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Sunday, November 21, 2010

पी एम चुप हैं, पी एम ओ मुखर


सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री पर टिप्पणी की है वह भी घोटाले से जुड़े ऐसे मामले पर जिस पर देश भर की निगाहें हैं। आजाद भारत के इतिहास में ऐसा शायद ही हुआ है और उससे भी विचित्र है कि प्रधानमंत्री जी चुप हैं। उनकी ओर से ना कोई सफाई दी जा रही है और ना ही कोई बचाव किया जा रहा है।
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बिल्कुल सीधी और प्रतिकूल टिप्पणी की है। स्वामी ने सितंबर 2008 में कई मजबूत सबूतों, दलीलों और नजीरों के साथ 2 जी घोटाले को लेकर तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत प्रधानमंत्री से मांगी थी। प्रधानमंत्री कार्यालय से उनके पास जवाब लगभग दो साल बाद अक्टूबर 2010 में आया, जिसमें कहा गया है कि सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है, लिहाजा मंत्री पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगना अपरिपक्व (प्रीमैच्योर) है। अदालत ने इस जवाब और इसके आने में हुई देरी, दोनों का ही संज्ञान लेते हुए सरकार को याद दिलाया है कि किसी मंत्री के खिलाफ इजाजत देने या इससे मना करने की अवधि अधिकतम तीन महीना तय की गई है।
करीब डेढ़ दशक पहले हवाला मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन महीने की अवधि इस बात को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की थी कि मुकदमे की इजाजत को इससे ज्यादा लटकाना सुशासन की दृष्टि से उचित नहीं होगा। अदालत ने कहा है कि ठोस सबूतों की रोशनी में प्रधानमंत्री तय अवधि में मुकदमा चलाने की इजाजत दे सकते थे, या इन्हें निराधार बताते हुए इजाजत देने से साफ मना कर सकते थे। सत्ता पक्ष को समझना चाहिए कि अभी तक इस मामले को वह जितनी गंभीरता से ले रहा था, देश के जनमानस में उससे कहीं ज्यादा गंभीर शक्ल यह ले चुका है। 2 जी प्रकरण में इतने सारे पेच हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री इस पर जितनी खामोशी बरतेंगे, अफवाहों का बवंडर उतना ही तेज होता जाएगा। सवाल यहां प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी या उनकी मंशा पर नहीं है। सरकार चलाने से जुड़ी उनकी राजनीतिक मजबूरियों से भी सभी वाकिफ हैं।
यहां सवाल है कि क्या रिपोर्ट को संसद में रख देने मात्र से सरकार के कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? विपक्ष की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग को खारिज करते हुए सरकार कह रही है कि रिपोर्ट सीएजी की अन्य रिपोर्टो की तरह लोकलेखा समिति (पीएसी) के पास जाएगी, जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व है। इसका मतलब है कि सरकार इसे एक रूटीन मामला मान रही है जबकि यह रिपोर्ट एक संवैधानिक संस्था के द्वारा स्वतंत्र भारत के एक सबसे बड़े घोटाले का दस्तावेजी खुलासा है। उधर, जेपीसी के माध्यम से जांच की विपक्षी मांग में राजनीति ज्यादा दिखाई देती है, व्यवस्था को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की व्यग्रता कम। आखिर बोफोर्स और प्रतिभूति घोटालों में जेपीसी जांच का अनुभव क्या हमारे सामने नहीं है?
अब वक्त आ गया है जब अपनी असंदिग्ध ईमानदारी के लिए प्रतिष्ठित प्रधानमंत्री को निर्णायक कदम उठाना चाहिए और देश को बताना चाहिए कि सरकार नुकसान की भरपाई व दोषियों को कठघरे में खड़ा करने के लिए क्या कर रही है? अन्यथा अभी केवल सर्वोच्च न्यायालय राजा के खिलाफ जांच की अनुमति देने के मामले में उनके कार्यालय की खामोशी पर सवाल उठा रहा है, आने वाले दिनों में सारा देश इतने बड़े घोटाले के दौरान व उसके बाद उनकी निष्क्रियता और चुप्पी पर सवाल उठाएगा।

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