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Tuesday, November 30, 2010

नीतीश : पैरों में..रेड कार्पेट.. और सिर पर कांटों का ताज



बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम इससे ज्यादा चामत्कारिक नहीं हो सकते थे। अगर होते तो पूरी तरह से अविश्वसनीय हो जाते। जिस तरह का अकल्पनीय बहुमत जद (यू)-भाजपा गठबंधन को वहां प्राप्त हुआ है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि राजनीति के फैसले अब जनता के बीच से होने वाले हैं। नीतीश के कदमों तले लाल गलीचे बिछ गये हैं।
बिहार ने राजनीति के विकेंद्रीकरण के लिए ऐसी भय और आतंकमुक्त जमीन तैयार कर दी है जो आने वाले वर्षों में अन्य राज्यों और नयी दिल्ली में भी सत्ता के समीकरणों और स्थापित मान्यताओं को बदल कर रख देगी। बिहार के चुनाव परिणाम केवल सड़कों, समाज कल्याण की सरकारी योजनाओं या ग्यारह प्रतिशत की विकास दर के नाम ही नहीं लिखे जा सकते। परिणामों का श्रेय तो वास्तव में जातिवाद के षड्यंत्र से प्रदेश को मुक्ति दिलाने की उस कोशिश को दिया जाना चाहिए जिसकी शुरुआत लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में नीतीश और सुशील मोदी ने वर्ष 1974 में कंधे से कंधा मिलाकर बिहार आंदोलन के जरिए की थी और जो पिछले पांच वर्षों से परवान चढ़ती रही है।

लालू प्रसाद यादव को जोरदार मात मिली है। हालांकि जानकार इस बात पर बंटे हुए हैं कि लालू को सियासत से आउट माना जाए या नहीं? लेकिन लालू जैसी शख्सियत में भारतीय राजनीति की दिलचस्पी अभी बनी रहेगी। लालू के तिलस्म का गारंटी पीरियड अभी खत्म नहीं हुआ है। इस बिसात में घोड़े या हाथी के तौर पर न सही, एक प्यादे के तौर पर वह कुछ बड़ी चालें तो चल ही सकते हैं। भारतीय सियासत, राजकाज, डेमोक्रेसी या सोसायटी में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी शख्स के लिए लालू को नजरंदाज करना मुश्किल रहा है।
सोचिए, जेपी के जलजले से एक युवा छात्र नेता उभरता है और अपने गंवई अंदाज से जनता का दिल जीत लेता है। वह सोशल जस्टिस का सबसे दमदार मोहरा बनता है और उसे सियासत के कारगर नुस्खे में बदलता हुआ देश के एक बड़े सूबे की सत्ता को उलट-पलट देता है। वह..राजा.. बन जाता है। उसकी इच्छा..प्रजा.. की इच्छा बन जाती है। वह पिछड़े और अल्पसंख्यकों का एक शानदार गठजोड़ तैयार करता है और सामंत वर्ग को ठिकाने लगाता हुआ एक नया सामंत खड़ा करता है। क्लास और कास्ट के इंडियन फॉमूलों के जरिए डेमोक्रेटिक पॉपुलैरिटी का नया मॉडल रचा जाता है और अचानक वह एक नेशनल हीरो के तौर पर पहचाना जाने लगता है।
बहुत कम लीडर होंगे, जो दो वक्त की दो धाराओं में बराबर तैर सकते हों। लिहाजा लालू से नीतीश की ओर सियासत का सफर होना था और हुआ। यह हुआ भी अपने वक्त पर ही, क्योंकि देश के एक सबसे पिछड़े राज्य में तरक्की की तड़प देर से ही पैदा होनी थी। बाजार को भी उसकी जरूरत सबसे बाद में पडऩी थी।
इस हिसाब से हम देखें तो यह कहानी लालू की नहीं है, नीतीश की भी नहीं है। इस कहानी का नायक बिहार है, अपनी किस्मत की तलाश में निकली भारत के बड़े राज्य की पिछड़ी आबादी, जिसने अपनी वक्ती जरूरत के हिसाब से अपने शासक चुने- पहले लालू और फिर नीतीश।
इसलिये नीतीश की वास्तविक चुनौतियां अब शुरू होंगी। बिहार में शिक्षा के स्तर में सुधार आया है, लेकिन नौकरियों की अब भी किल्लत है। सुरक्षा व्यवस्था सशक्त हुई है, लेकिन निवेशकों ने अभी राज्य में रुचि लेना शुरू नहीं किया। अपराधों पर नियंत्रण हुआ है, लेकिन भ्रष्टाचार में इजाफा भी हुआ है। सड़कें बनी हैं, लेकिन बिजली संकट अब भी मुंह बाये खड़ा है। बिहार की बहुसंख्य आबादी को अब भी गरीबी से बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा। पंजाब दिल्ली, गुजरात और यहां तक कि खाड़ी के देशों में श्रमिकों का पलायन जारी है। स्वयं नीतीश की छवि चाहे जितनी ही..लार्जर देन लाइफ.. क्यों न हो गयी हो, लेकिन उनकी पार्टी जनता दल (यू) उतनी ताकतवर नहीं हुई है। इसके चलते नीतीश कुमार को अपनी नीतियां लागू करने के लिए नौकरशाहों की कोर टीम पर निर्भर होना पड़ेगा। नीतीश का राज जरूर है, लेकिन पाटलिपुत्र का ताज कांटोंभरा है।

1 comments:

कडुवासच said...

... saarthak va saargarbhit post !!!