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Tuesday, November 30, 2010

इस देश में सब चलता है


देश का हर आदमी जिस सिस्टम में जी रहा है, वहां का एक मूलमंत्र है..यह सब चलता है।.. उस हालत में नियम-कायदों को ताक पर रख दिया जाता है। जिसे मौका मिलता है वह नियमों को तोडऩा अपना अधिकार मानता है - कहीं कम कहीं ज्यादा। जब यह अधिकार बिकने लगे तो नतीजा वही, जो आज देखने को मिल रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार से लेकर पत्रकारिता तक सब कुछ बिकाऊ है।
कर्नाटक के मुद्दे पर भी कांग्रेस कुछ तर्क दे रही है। उन तमाम संदेहों की जांच होनी चाहिए पर येदियुरप्पा को थैली शाहों तथा पेड न्यूज का शिकार भी नहीं बनने दिया जाना चाहिए।
आज का भारत अफ्रीका के किसी ऐसे नवजात और भ्रष्ट समाज का दर्शन कराता है जहां किसी भी क्षेत्र में ईमानदारी बची ही न हो। हाल ही के कुछ ताजा उदाहरण देखें- साठ से सत्तर हजार करोड़ रुपये के घोटाले का दायरा रखने वाला कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों से लेकर दिल्ली सरकार तक पर शक की सुई घूम रही है। 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाला सी.ए.जी की रपट के अनुसार एक लाख इकहत्तर हजार करोड़ रुपये के दायरे में हैं। मुम्बई के आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले ने तो कारगिल शहीदों की स्मृति तक को अपमानित कर दिया। इन सबकी जांच के लिए जब समूचा विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच बिठाने की मांग करता है तो सरकार वहां से ध्यान हटाने की कोशिश करती है। वास्तव में किसी भी प्रकार की मांग को लेकर संसद की कार्यवाही बाधित करना संसदीय परंपरा और संसदीय कामकाज के दायित्व का उल्लंघन है लेकिन जब देश राजनेताओं पर भयंकर अविश्वास के अभूतपूर्व दौर से गुजर रहा हो तो जांच की उचित प्रक्रिया को लागू करने के लिए सरकार पर दबाव डालने का और कोई तरीका भी शेष नहीं रहता।

सरकारी पक्ष तो भ्रष्टाचार के मामले पर विपक्षी नेताओं को बोलने तक का समय नहीं देता। वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने संसदीय लेखा समिति द्वारा जांच कराए जाने का प्रस्ताव रखा लेकिन विपक्ष ने इसे इसलिए स्वीकार नहीं किया क्योंकि इस समिति का अधिकार क्षेत्र और दायरा बहुत सीमित है।
हम अपने लोकतंत्र की शान में गौरव- गान करते हैं जो उचित ही है। लेकिन यह कैसा लोकतंत्र है जो एक ओर तो 9 से 10 प्रतिशत विकास दर की ऊंचाई छूता है और दूसरी ओर 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं। एक ओर चुनाव सुधारों तथा राजनीतिक शुचिता पर सेमिनार होते हैं वहीं दूसरी ओर जनता का धन लूटकर स्विस बैंकों में सत्तर लाख करोड़ काला धन जमा करने वाले भारतीय नेता और उद्योगपति होते हैं। जो संसद उन लोगों को संरक्षण देने वालों को बचाए, जो देश की मिट्टी के साथ विश्वासघात करते हुए संविधान और जनता का मजाक उड़ाते हैं वह संसद निरर्थक और नाकामयाब ही कही जाएगी।
इन सारी स्थितियों के प्रति देश का रिएक्शन अब वैसा नहीं रहा, जैसा पहले हुआ करता था। कहना होगा कि वक्त के साथ हम मेच्योर हो गए हैं और अब घपले-घोटाले हमें उतना परेशान नहीं करते, जितना एक दशक पहले किया करते थे। यह मेच्योरिटी, यह उदासी बहुत कुछ कहती है। एक तो यह कि कोई भी सोसायटी एक-सी कहानी से एक दिन ऊब जाती है। दूसरा यह कि नए उभरते शहरी मिडल क्लास को सियासी ड्रामों में अब उतनी दिलचस्पी नहीं रही। वह अपने करियर, इनवेस्टमेंट और एंटरटेनमेंट की बदहवासी में खोया हुआ है। तीसरा यह कि करप्शन अब बड़ी बात इसलिए नहीं रही कि हम इसे लाइफस्टाइल के तौर पर मंजूर कर चुके हैं।
आप कहेंगे, इसमें नया क्या है? ये बातें अरसे से कही जा रही हैं। इनमें नया है मंजूरी का वह लेवल, जो पहले कभी नहीं था। आज की फिल्में आप देखते होंगे। इनमें चरित्र कोई मुद्दा है ही नहीं, जबकि अभी हाल तक कॉमिडी में भी चोर को सुधरना पड़ता था, बेईमान सही रास्ते पर आ जाते थे और गलत तरीके से मिली दौलत क्लाइमेक्स में खुद-ब-खुद छिन जाया करती थी। करप्शन को किसी सोसायटी में इस तरह की मंजूरी मिल जाती है, तो क्या होता है? और भी ज्यादा करप्शन, बेहिसाब करप्शन, जिसे रोकना मुमकिन नहीं रहता।

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