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Friday, November 26, 2010

भुखमरी दस्तक दे रही है


क्या बंगाल-दुर्भिक्ष अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों की अध्ययन स्थापनाओं का पैमाना? भले रबी की बंपर फसल (विशेषकर गेहूं) की संभावनाओं के बीच यह विषयांतर लगे, लेकिन दहशतनाक सच्चाई यही है कि अगर हम अब भी न चेते तो हमारे यहां ही नहीं दुनिया के हर हिस्से में बंगाल जैसे दुर्भिक्षों की वापसी हो सकती है जिसमें लाखों ने भूख से तड़प-तड़प कर दम तोड़ा था।
जी हां! भले ही जेनेटिक मोडीफाइड बीजों (फसलों) की बदौलत हम इस भुलावे में रहने की कोशिश करें कि दुनिया की खाद्यान्न समस्याओं का हल हमारे हाथ में है, लेकिन हकीकत यह है कि पिछले कुछ सालों से दुनिया के सभी कोनों में खाद्यान्न की समस्या गहरा रही है और चिह्न ऐसे हैं, जो इस समस्या के भयावह होने की तरफ इशारा कर रहे हैं। भुखमरी चुपके से दुनिया की दहलीज पर आ धमकी है और अब दस्तक दे रही है।
42 साल पहले 1968 में अमरीकी वैज्ञानिक डॉ विलियम गॉड ने उत्पादन में सुधार करके दुनिया को..ग्रीन रिवोल्युशन.. जैसी सौगात भेंट की थी। लेकिन हरित क्रांति के फायदों में वशीभूत दुनिया को एक बार भी यह ख्याल नहीं आया कि प्रकृति से कोई छेड़छाड़ सिर्फ हमारे फायदे के लिए ही नहीं हो सकती। कहने का मतलब यह नहीं सोचा गया कि ..ग्रीन रिवोल्युशन.. की चाहत खेती का इकोलॉजी सिस्टम भी बिगाड़ सकती है। वही हुआ पैदावार बढ़ाने के तात्कालिक फायदों को ध्यान में रखते हुए मिट्टी का अधिकाधिक दोहन करने वाली फसलों की बाढ़ आ गयी और इसे..'सघन कृषि.. का नाम दिया गया। कुछ यूं जाहिर किया गया जैसे ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए बहुत सूझबूझ और परिश्रम का सहारा लिया जा रहा है जबकि हकीकत यह थी कि..सघन कृषि.. के नाम पर दुनिया धरती की उर्वरता का अंधाधुंध दोहन कर रही थी। लगातार की गयी सघन खेती और कीटनाशी, फफूंदनाशी व खरपतवारनाशी दवाओं के हस्तक्षेप से जमीन की उर्वरता क्षरित होने लगी और मिट्टी क्षारीय व लवणीय होने लगी। पिछले चार दशकों में जब दुनिया इस खुशफहमी में जी रही थी कि हरित क्रांति की बदौलत अन्न समस्या का अंत हो गया। मिट्टी में बढ़ती लवणीयता और क्षारीयता के कारण खेती योग्य भूमि के क्षेत्रफल में कमी आने लगी। सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में यह भयावह समस्या देखने को मिली है।

अकेले पिछले 5 सालों में ही पूरी दुनिया में खेती के रकबे में 8 प्रतिशत की कमी आयी है। धूलभरी आंधियां बढ़ रही हैं, जिसमें एक ओर जहां रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है वहीं दूसरी तरफ नदियों में भारी पैमाने पर प्रदूषण बढ़ रहा है। हाल के कुछ दशकों में धरती के औसत तापमान में 2 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। इससे फसलों का चक्र तो बुरी तरह से गड़बड़ाया ही है, गेहूं और चावल की उत्पादकता में भी 8 से 10 प्रतिशत तक की कमी आयी है। जिस कारण खेती जहां एक ओर घाटे का सौदा बनी है, वहीं दूसरी ओर गांवों से शहरों की तरफ पलायन में बेहद तेजी आयी है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अब भी नहीं चेते तो हरित क्रांति के गढ़ अगले एक-डेढ़ दशक में रेगिस्तान में तबदील हो जायेंगे। गौरतलब है कि जलस्तर को पुनर्जीवित करना सबसे मुश्किल और लगभग असंभव काम होता है।
इस जलवायु परिवर्तन के चलते भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में खाद्यान्न का संकट साफ-साफ नजर आने लगा है। वर्ष 2008 और 09 में चीनी के उत्पादन में 4.7 से 5.8 प्रतिशत तक की कमी आयी है दूसरी तरफ मांग और आपूर्ति का फासला भयानक रूप से बढ़ा है। हालांकि 2009-10 की रबी फसल के कारण फिलहाल हमारे गेहूं के बफर स्टॉक में कमी नहीं आयेगी, लेकिन दुनिया के संदर्भ में देखें तो खाद्यान्न का बफर स्टॉक खतरे में पड़ते जा रहे हैं।
भारत में खाद्यान्न के दामों में 20 से 38 प्रतिशत तक की स्थायी वृद्धि हो चुकी है जिस कारण 18 से 25 प्रतिशत तक निम्न और मध्य वर्ग के लोगों की क्रयक्षमता पर बेहद नकारात्मक असर पड़ा है। इसके बावजूद बाजार में मांग और आपूर्ति के मामले में 15 से 20 प्रतिशत का फासला बढ़ा है। विशेषकर दालें और खाद्य तेल बाजार में स्थायी रूप से कम पड़ गए लगते हैं।
कुल मिलाकर कहीं हमने अपनी होशियारी से तो कहीं नादानी से इस तरह की स्थितियां पैदा कर ली हैं और करते जा रहे हैं कि भुखमरी की अतीत गाथाएं इतिहास के भूतलों से निकलकर हमारी दहलीज तक आ पहुंची हैं और दरवाजों पर दस्तक दे रही हैं। अगर अब भी हम बहरे बने रहे तो आने वाले सालों में करोड़ों लोग भयावह बीमारियों से नहीं भूख से मर जायेंगे।

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