प्रकाश पर्व के इस अवसर पर आपका स्वागत है, ओबामा साहब।
भारत-अमरीका के अपने सम्बंधों के ताने बाने में कई कमजोर रेशों और काले धब्बों के बावजूद आपके स्वागत में लाल कालीन की दोनों तरफ सुनहरे दिये जलाने में कोई प्रयास बाकी नहीं रखेगा। बेशक भारत और अमरीका के नजरिये में कई अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भारी मतभेद हैं, खासकर हमारे निकटतम पड़ोसी को लेकर। यह कहना सही नहीं है कि हम दोनों एक ही नाव पर सवार हैं, जैसा कि अक्सर अमरीकी विदेश विभाग द्वारा कहा जाता है, इसके विपरीत हम इतिहास और अपने समय की धारा में एक ही दिशा में बह रहे हैं। हम एक स्थायी राष्ट्र हैं और लोकतंत्र पर भरोसा ही नहीं करते बल्कि उसकी राह पर दृढ़तापूर्वक चल भी रहे हैं। भारत को जल्दी आजादी दिलाने में अमरीका की भूमिका हम भूले नहीं हैं। जाहिर है कि आतंकवाद, भारत और पाकिस्तान में जिहादी सक्रियता और वैश्विक इस्लामी कट्टरपंथ पर दोनों देशों में वार्ता होगी। दुनिया में अमन के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में इससे लोहा लेना अमरीका की जिम्मेदारी है और भारत इस जंग में उसका समर्थन करता है।
शीतयुद्ध की समाप्ति और भारत के अमरीका की ओर स्पष्ट झुकाव के बावजूद वाशिंगटन ने कभी भी निर्गुट आंदोलन का समर्थन नहीं किया, उल्टे इसे तीसरी दुनिया के देशों का कम्युनिस्ट मोर्चा कहता आया है। हालांकि यह बात अभी सब नहीं जानते कि अमरीकी नीति में भारत की वैश्विक सामरिक विचारों को अमरीका के लिये हितकारी नहीं माना जाता है। इससे लगता है कि अमरीका में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की चौंधराहट का दंभ अभी भी कायम है। ओबामा साहब कृपया अमरीका को इस मनोस्थिति से निकलने में मदद करें।
1980 के दशक में अमरीका ने आतंकवाद से मुकाबले के लिये भारत को अपनी ताकत बढ़ाने सहायता की शुरूआत की। उस समय खुफिया-सुरक्षा एजेंसियों को बंधक समस्या से निपटने में विशेष दक्ष बनाने के लिये अमरीका बुलाया गया था। उसके बाद सन् 2001 में साइबर सुरक्षा और महाविनाश के हथियारों से लैस आतंकियों से निपटने की विशेष ट्रेनिंग दी गयी। कहने को तो कह दिया गया कि आतंकवाद से मुकाबले के लिये भारत और अमरीका में खुफिया सूचनाओं की लेन देन शुरू हो गयी है पर यह सहयोग अत्यंत असंतोषजनक है। 26/11 के पहले शायद ही अमरीका ने भारत को कोई काम की सूचना दी हो। मुम्बई हमले की खबर तो उसके पास पहले से ही थी पर वह चुप रहा और हमारे देश में सैकड़ों लोग मारे गये। अमरीका-पाकिस्तान जैसे दानव को पाल रहा है और कहता है कि वह आतंकवाद से जंग में साथी है। अमरीका की इस बात पर हंसी आती है।
इसे छोटी मुंह बड़ी बात न समझें लेकिन बराक ओबामा की भारत यात्रा न केवल भारत, बल्कि दुनिया की राजनीति और शक्ति-समीकरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। चीन से अर्थ-युद्ध लड़ रहे ओबामा भारत से क्या चाहते हैं ? आखिर अमरीका को भारत की जरूरत क्यों है?
बराक ओबामा की भारत यात्रा के ठीक पहले यह सोचना जरूरी है कि आखिर वे कौन-सी चीजें हैं, जो हम उनकी इस यात्रा से हासिल कर लेना चाहते हैं ? हम यह लगातार देख रहे हैं कि दुनिया में शक्ति के समीकरणों में बहुत तेजी से बदलाव आ रहे हैं। अगर हम चाहते हैं कि इस बदलाव में हमारी भी हिस्सेदारी हो, तो हमें ड्राइविंग सीट पर बैठा होना चाहिए। लेकिन भारत या भारतीयों को ड्राइविंग की आदत नहीं है।
हम अक्सर सहमतियों की तलाश करते हैं, मुकाबला की स्थिति में नहीं आते। हम..ना.. नहीं कह पाते, उसकी जगह.. शायद.. कहना हमारी आदत में शुमार है। हम आगे बढ़कर शक्ति को हासिल कर लेने की बजाय शक्ति की याचना करने में ज्यादा यकीन करते हैं। सौभाग्य है या दुर्भाग्य कि इस समय हम द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सबसे बड़े सत्ता-शक्ति-संघर्ष के बीचोबीच खड़े हैं। अमरीका और चीन के बीच एक आर्थिक लड़ाई चल रही है। यह युद्ध एक साथ कई मोर्चो पर लड़ा जा रहा है- करेंसी, जी 20, आयात-निर्यात, यहां तक कि सांस्कृतिक मोर्चे पर भी।
इन दिनों ग्लोबल लड़ाइयां पहले के मुकाबले ज्यादा महीन, जटिल और परिष्कृत हो चुकी हैं। पहले की लड़ाइयों का उद्देश्य हुआ करता था- हमला करो और किसी की जमीन हथिया लो। अब ऐसा नहीं होता। जब तक कि आप जमीन पर तेल या आतंकवादियों की तलाश न कर रहे हों, तब तक किसी भौगोलिक क्षेत्र को जीत लेने, अपने अधीन कर लेने का कोई मतलब ही नहीं।
हां, आप किसी देश की अर्थव्यस्था को जीतकर लगभग अपने अधीन कर लें, तो वह बहुत फायदेमंद हो सकता है। जैसा कि चीन ने अमरीका के साथ किया है। अमरीका के ट्रेजरी मार्केट का 40 प्रतिशत हिस्सा चीन नियंत्रित कर रहा है। इसका अर्थ है कि अमरीकी सरकार जो भी कर्ज दे रही है, उसकी फंडिंग चीन कर रहा है। जैसा कि हम जानते हैं कि अमरीकी सरकार अपने कॉरपोरेट्स के पुनरुत्थान के लिए अरबों डॉलर दे रही है। इस तरह, अमरीका अपनी अर्थव्यवस्था को रिवाइव करने के लिए जितने भी आर्थिक प्रयास कर रहा है, उनकी फंडिंग चीन द्वारा हो रही है। तो आखिर अमरीका की अर्थव्यवस्था में चीन क्यों निवेश कर रहा है ? इसके दो कारण हैं- पहला यह कि चीनी माल की खपत के लिए अमरीका सबसे बड़ा इकलौता उपभोक्ता देश है और दूसरा यह कि अगर अमरीका को चीन फंडिंग करता है, तो उसे अपने उपभोक्ता के ऊपर एक विराट आर्थिक वर्चस्व हासिल हो जाता है।
यह पूरा मामला किसी क्रेडिट कार्ड कंपनी की तरह है, जो वे सारे लुभावने सामान बनाती है, जिन्हें देखकर आपकी इच्छा और अधिक खर्च करने या और अधिक उपभोग करने की होती है। यानी आप जिन चीजों का उपभोग कर रहे हैं, वे उसी कंपनी ने बनाई हैं, जिसका क्रेडिट कार्ड आप इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तरह आप उस कंपनी के और ज्यादा कर्जदार होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति निजी तौर पर किसी व्यक्ति के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। और अगर यह स्थिति किसी देश के साथ आती है, तो इससे शक्ति का पूरा ग्लोबल समीकरण ही बदल जाता है।
इन्हीं स्थितियों के बीच, ओबामा के पास उन चीजों की लंबी फेहरिस्त है, जो वे भारत से चाहते हैं- रिटेल सेक्टर में एफडीआई से शुरू होकर भारत को लड़ाकू विमान बेचना हो, भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अमरीकी कंपनियों का प्रवेश सुनिश्चित करना हो, न्यूक्लियर डील करनी हो या उसके जरिए अमरीकी कंपनियों को भारत में व्यापार करना हो। वे चीन के साथ चल रही अपनी आर्थिक लड़ाई में भी भारत का समर्थन चाहते हैं।
भारत-चीन और अर्थव्यवस्था का यह कार्ड कैसे चलेगा ? क्या हमारा कद इतना बड़ा हो चुका है कि हम ग्लोबल स्टेज पर अपने अधिकारों की पुरजोर मांग कर सकते हैं या ओबामा की यात्रा से पहले ही हम सब कुछ से पल्ला झाड़ लेंगे? जब अमरीका और चीन जैसे दो विशालकाय हाथी लड़ रहे हों, तो हमारी स्थिति क्या होगी? क्या हम उनके बीच रौंदी जाने वाली घास होंगे या हम इसके बीच से एक मध्यस्थ की तरह उभरेंगे? मनमोहन सिंह के सामने यही सबसे बड़ा सवाल है। जहां तक उम्मीद है कि मनमोहन सिंह इन्हीं सवालों का उत्तर खोजने हाल में अपनी विदेश यात्रा पर निकले थे।
Wednesday, November 3, 2010
स्वागतम् बराक ओबामा
Posted by pandeyhariram at 5:08 AM
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