प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शनिवार (बीस नवंबर) को कहा कि घोटालों के दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा। लेकिन उन्होंने अभी तक यह नहीं बताया कि किसके खिलाफ कौन सी कार्रवाई की जा रही है?
मंगलवार को नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट संसद के पटल पर सार्वजनिक होने के बाद साफ है कि मामला उससे कहीं ज्यादा गंभीर व चिंताजनक है, जितना समझा जा रहा था। इस घोटाले के कथित नायक पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा ने हालांकि अपने पद से इस्तीफा दे दिया है पर इससे जुर्म या सरकार के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। अभी हाल में प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्हें रोज परीक्षा देनी पड़ती हे। प्रधानमंत्री के ये दोनो जुमले परस्पर विरोधी से लगते हैं।
यह सच है कि क्या डॉ सिंह वाकई कड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं ? क्या सर्वोच्च पद पर उनके 6-7 वर्ष इतने पीड़ादायक रहे हैं कि उन्हें लगता है कि एक के बाद एक परीक्षा के दौर से (अपने मन के विरुद्ध) गुजरना पड़ रहा है? यदि ऐसा है तो मसला काफी गंभीर है।
यह सही है कि प्रधानमंत्री का पद कांटों का ताज है। इसे हमेशा पहने रहना पड़ता है, जो कष्टप्रद भी है। देश चलाना यूं भी आसान काम नहीं है। फिर यह गठबंधन सरकार है। इन दिनों एक चर्चा है कि प्रधानमंत्री को हमेशा कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लगभग हर निर्णय के लिए निर्भर रहना पड़ता है। राहुल गांधी भी एक बड़े शक्ति केंद्र हैं। लेकिन यह बिल्कुल सही नहीं है।
बात राजा घोटाले में विवादास्पद प्रधानमंत्री कार्यालय से ही शुरू की जाए- प्रधान सचिव टी के नायर की नियुक्ति से लेकर उनके सेवाकाल में बढ़ोतरी पूरी तरह प्रधानमंत्री की इच्छा से हुई और वे प्रधानमंत्री के आंख-कान की तरह सहयोगी हैं। कारपोरेट घरानों के प्रमुखों से लेकर मंत्रियों और विरोधियों से नायर के निरंतर संपर्क और सिफारिशों में 10 जनपथ का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। निश्चित रूप से पृथ्वीराज चव्हाण, अहमद पटेल, प्रणव मुखर्जी और ए के एंटनी जैसे नेता अध्यक्ष और प्रधानमंत्री की राय के तार जुड़वाने में समय-समय पर सहयोग करते हैं।
सरकार और संगठन के वरिष्ठ सहयोगी बताते हैं कि ए. राजा को संचार मंत्रालय या एम एस गिल को खेल मंत्रालय देने का अंतिम निर्णय प्रधानमंत्री ने ही किया था।
लेकिन यह मसला ऐसा नहीं है कि इसे तरजीह दी जानी चाहिये। महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने पहली पारी और दूसरी पारी के लगभग दो वर्ष देश की सरकार किस तरह चलाई, इस पर लोगों के क्या मत हैं। यह निश्चित है कि वे देश के इतिहास में सबसे कमजोर, निर्णय लेने में अक्षम और परावलंबी प्रधानमंत्री के रूप में जाने गए हैं। ऐसे में उनकी निजी पीड़ा कभी न कभी बाहर आना स्वाभाविक है। जिस राजा प्रकरण को लेकर डॉ सिंह ने ऐसा अनपेक्षित बयान दे डाला, उससे उन पर हावी दबावों का पता चलता है। उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार असीमित रूप से बढ़ा। वे ईमानदार होकर भी कड़ी कार्रवाई किसी के खिलाफ कभी नहीं कर पाए। इस कारण जनता में रोष तो है पर करुणा का भाव ज्यादा दिखता रहा।
अब तो यह समय ही बतायेगा कि प्रधानमंत्री जी अगला कदम क्या उठायेंगे। यह तो तय है कि वे दोषियों को सजा नहीं दे पायेंगे। अब उनके सामने दूसरा विकल्प है पद से इस्तीफा देकर खुद को दंडित करना अथवा मध्यावधि चुनाव की सिफारिश करना। लेकिन दोनों अभी संभव नहीं दिखते।
Monday, November 22, 2010
क्या मनमोहन सिंह दोषियों को दंड दे सकते हैं?
Posted by pandeyhariram at 1:02 AM
Labels: मनमोहन सिंह. दोषियों
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