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Wednesday, August 31, 2011

अंधे को अंधा नहीं कहते भाई


हरिराम पाण्डेय
31 अगस्त 2011
चर्चा है कि कुछ माननीय सांसद खुद को बुरा-भला कहने से नाराज हो गये हैं। सही बात है, अगर किसी अंधे को अंधा कहेंगे तो बुरा लगेगा ही, उसे सूरदास कहा जाता है। लेकिन यहां शंका कुछ और है। किरन बेदी, ओम पुरी और प्रशांत भूषण के खिलाफ तो ये नोटिस दे देंगे और जिद पर अड़े तो तीनों को माफी न मांगने पर 15 दिनों की जेल की सजा भी दे देंगे। लेकिन वह जनता जो सड़कों पर है और जिसने इनको चुना है वह इनको क्या कह रही है, क्या इनको पता है?
दरअसल बात यह है कि हमारे माननीय सांसदों में अपनी आलोचना सहने की क्षमता नहीं रही। कोई जबरदस्ती तो हो नहीं सकती कि आप संसद में एक-दूसरे को माननीय बोलते रहें तो हमें भी आपको माननीय बोलना पड़े भले ही किसी के खिलाफ करोड़ों के घोटाले का आरोप हो, किसी के खिलाफ कत्ल करवाने का और किसी के खिलाफ दंगे भड़काने का।
हमने मुश्किलों और उपद्रवों का एक लंबा दौर देखा। हमने अडिय़लपन, अभद्रता और दोनों ही पक्षों की ओर से अति आक्रामकता जैसी कुरूप प्रवृत्तियां भी देखीं। फासले मिटाने के लिए यह रवैया ठीक नहीं। एक आदर्श दुनिया में लोग विवेकसंगत होंगे और अपनी ताकत या स्थिति को दरकिनार कर उचित कदम उठाएंगे।
लेकिन इसके बावजूद मौजूदा हालात में उम्मीद की किरण देखी जा सकती है। वे शांतिपूर्ण रूप से सामने आए और शालीनता के साथ एक अधिक न्यायपूर्ण समाज की मांग की। यह हम सभी के लिए गौरव का क्षण है। अण्णा का आंदोलन सफल रहा है, लेकिन यदि हमारे बौद्धिक कुलीनों ने उनके आंदोलन का समर्थन किया होता तो उनकी स्थिति और मजबूत होती। इस आंदोलन के विरोध में सबसे ताकतवर दलील यह थी कि संसद की अवहेलना नहीं की जा सकती और न ही की जानी चाहिए। यकीनन, इसमें कोई संदेह नहीं कि संसद और संविधान का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इस तरह की संस्थाएं एक बुनियादी धारणा के आधार पर संचालित होती हैं और वह है जनता का विश्वास। यदि जनता का भरोसा डिग जाए तो ऐसी कोई संस्था संचालित नहीं हो सकती। हमें ऐसे प्रयास करने चाहिए कि संसद में जनता का भरोसा पुन: स्थापित हो।
भारत के राजनेता और खासतौर पर भारत की सरकार भरोसे के इसी संकट से जूझ रही है। जनता अब सरकार पर भरोसा नहीं करती। सरकार के बयानों से हालात और बदतर हो गए हैं। सरकार लगातार कहती है कि भ्रष्टाचार की समस्या से निजात पाना जरूरी है, लेकिन वह खुद इसके लिए लगभग कुछ नहीं करती। हमारे राजनेताओं ने अपने रवैये की यह कीमत चुकायी है कि अब लोग उन पर भरोसा नहीं करते। जनता का विश्वास जीते बिना नियमों का हवाला देने से कुछ नहीं होगा।

अभी आंदोलन जारी है, लेकिन सावधानी जरूरी है


हरिराम पाण्डेय
30 अगस्त 2011
हाल के वर्षों में देश का सबसे बड़ा जनांदोलन खड़ा कर देने वाला अण्णा का अनशन समाप्त हो चुका है। टीवी चैनल, सोशल मीडिया और जहां भी आप देखें जीत का जश्न चल रहा है। गोपाल अग्रवाल ने एस एम एस किया 'मैं बेवजह आजादी के किस्से पढ़ रहा था, मैं तो आज 15 अगस्त 1947 को जी के देखा। एक हाथ में सेल फोन और एक हाथ में पोस्टर, मैं तो 64 साल के बाद हिंदुस्तान को जवान होते देखा। कल तक सिर्फ सिगरेट में चिंगारी को जलते देखा, आज दिल में ज्वाला जला के देखा। Ó यह बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न था। यह उल्लास स्वाभाविक है। आखिर, हर तरह से ताकतवर और ओवर स्मार्ट लोगों से भरी सरकार जनता की शक्ति के सामने हथियार डाल दे, यह नजारा सामान्य तो नहीं है। यह पल देश की आजादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए खासा रोमांचक ही नहीं अभूतपूर्व भी है जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी गयी आजादी की लड़ाई नहीं देखी।
इस उत्साह और जोश के बावजूद यह सोचना भोलापन होगा कि लड़ाई खत्म हो गयी है। सच्चाई यह है कि लड़ाई अभी शुरू ही हुई है और अण्णा की अद्भुत संकल्प शक्ति के बावजूद इस लड़ाई का आने वाला दौर उससे कहीं ज्यादा कठिन होगा जो हमने अब तक देखा है। सबसे पहले तो यह बता देना जरूरी है कि सरकार और पूरी राजनीतिक बिरादरी, इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो अब तक अण्णा के लिए समर्थन जताने में आगे रहे हैं, चीजों को उस रूप में नहीं लेगी जिस रूप में लेने की उम्मीद जनता उनसे करती है। नेता खुद अपनी आमदनी के अवैध स्रोत बंद करना भला क्यों चाहेंगे? 12 दिन के अनशन के दौरान देश ने सरकार और उनके वार्ताकारों की तरफ से जो उलझन और संदेह देखा, प्रदर्शनकारियों और मीडिया में भ्रम फैलाने की जो कोशिशें उनकी ओर से की गयीं , खुद विपक्ष ने जिस तरह से प्राइवेट और पब्लिक स्टैंड में फर्क बनाए रखा- ये बातें यह साफ करने के लिए काफी हैं कि ये लोग अपने विशेषाधिकार आसानी से नहीं छोड़ेंगे, बल्कि, ये पूरी ताकत से इसे तब तक रोके रखेंगे जब तक कि इनका वश चलेगा। अब आगे चुनौतियां विशाल हैं, क्योंकि आम आदमी की उम्मीदें आसमान छू रही हैं। उम्मीदों का यह रूप आंदोलन के नेताओं के लिए डरावना हो सकता है। उम्मीदें जगाना आसान है, गरीबों की उम्मीदें पूरी करना अलग बात है।
इसलिए यह बेहद जरूरी है कि आंदोलन ने क्या हासिल किया है और यह क्या हासिल करना चाहता है, इस बारे में लोगों को शिक्षित करने का अभियान बड़े पैमाने पर शुरू किया जाए। यह आंदोलन की कामयाबी का मूल आधार होगा। उम्मीदों को पूरा करने में नाकामी से लोगों का भरोसा टूटेगा और आंदोलन को मिले जन- समर्थन में तेजी से कमी आएगी। इन सबके अलावा आंदोलन को आगे चलते रहने के लिए पैसों की भी जरूरत होगी। अब तक ऐसा लगता है कि आम लोगों के बीच से पैसा जुटाना मुश्किल नहीं है। लेकिन, हमें याद रखना होगा कि जहां कहीं भी पैसा आता है, वहां से घोटाले और आरोप- प्रत्यारोप भी दूर नहीं रह पाते। इसलिये सावधानी जरूरी है।

अजीब सांसत में पड़ी सरकार



हरिराम पाण्डेय
29 अगस्त 2011
पिछला पखवाड़ा भ्रष्टïाचार आंदोलन की भेंट चढ़ गया और इस परेशानी में कोई यह नहीं देख पाया कि देश की अर्थ व्यवस्था कैसे डूब रही है और अब उसका असर भ्रष्टïाचार से ज्यादा विकराल हो चुका है। गत गुरुवार से सरकार भ्रष्टïाचार के खिलाफ अनशन पर बैठे अण्णा हजारे की मनुहार में लगी थी और उधर रिजर्व बैंक ने चेतावनी दी कि 'आर्थिक विकास की दर 8 प्रतिशत से नीचे जा सकती है।Ó दुनिया में ऐसे बहुत से देश हैं जहां यदि आर्थिक विकास की दर 7 प्रतिशत से ज्यादा हो जाय तो वे रोमांचित हो उठेंगे पर जहां तक भारत का सवाल है यहां 2008 में आर्थिक विकास की दर 9 प्रतिशत थी जो पिछले साल गिर कर 8 प्रतिशत हो गयी और अब यह 7 प्रतिशत से नीचे जाने वाली है। यह स्थिति भारत के लिये बेहद चिंताजनक हो सकती है। आर्थिक विकास की दर में गिरावट का मतलब होगा एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे घुटने के लिये मजबूर हो जायेगी और इसका परिणाम एक बड़े उथल पुथल के रूप में सामने आ सकता है। यही नहीं कई विकसित देशों की अर्थ व्यवस्था भी इससे प्रभावित होगी , क्योंकि उनका बाजार भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर निर्भर है। कई विशेषज्ञ भारत की इस डूबती माली हालत के बारे में बहुत पहले से चिंतित हैं। औद्योगिक देशों के 'डबल डिपÓ के पहले से कई विशेषज्ञ भारतीय अर्थ व्यवस्था में गिरावट के प्रति शंकित थे। पिछले साल के आखिर से निजी निवेश घटने लगा था। पिछले साल से महंगाई आसमान छू रही है और मुद्रास्फीति की दर 10 प्रतिशत के आस पास घूम रही है और इस अवधि में रिजर्व बैंक कम से कम 11 बार ब्याज दरों में इजाफा कर चुका है। विगत चार दशकों में सबसे बड़े जन- आंदोलन से निपटने में लगी सरकार को यह दिखा ही नहीं कि आर्थिक दुरवस्था धीर- धीरे हम पर हावी होती जा रही है। लेकिन हजारे के आंदोलन में शामिल लोगों का यकीन है कि यदि भ्रष्टïाचार का मसला हल हो जाता है तो आर्थिक समस्याएं भी हल हो जाएंगी। लोग भ्रष्टïाचार से इतने परेशान लग रहे हैं कि उन्हें हर समस्या की जड़ में भ्रष्टïाचार ही दिखायी पड़ रहा है और वे इसके लिये सत्ता प्रतिष्ठïान को दोषी मान रहे हैं लिहाजा जनता परिवर्तन चाहने लगी है। भारत के सामने चुनौतियां गंभीर हैं क्योंकि एक तरफ जनता का सारी गड़बडिय़ों के लिये सरकार को दोषी मानना और दूसरी तरफ बिगड़ती अर्थव्यवस्था और तिस पर अमरीका तथा यूरोप में बिगड़ती माली हालत। हालांकि भारत इन देशों में बहुत ज्यादा निर्यात नहीं करता इसलिये वहां की आर्थिक दुरवस्था का इस पर ज्यादा असर पडऩे की आशंका नहीं है लेकिन अपनी निवेश की जरूरतों पर तो यह विदेशी पूंजी पर निर्भर है ही और उसमें गिरावट आनी शुरू हो गयी है। भारत में भ्रष्टïाचार विरोधी लहर आने से और देश के नौजवानों को उसका समर्थन मिलने के कारण वे बदलाव अब नहीं लाये जा सकते हैं जिनसे नौजवानों में खुशहाली लायी जा सके। इसका कारण है कि सरकार विपक्ष और इन कार्यकर्ताओं के भय से कठोर राजनीतिक - आर्थिक सुधार लाने में हिचकेगी और इसके प्रतिफल में जो भी बचा है वह शेष हो जायेगा। यहां तक कि इस आंदोलन के पहले भी कहा जा रहा था कि सरकार गरीबी उन्मूलन और बेहतर शिक्षा जैसे सुधार नहीं ला पा रही है जिसके कारण पढ़े- लिखे लड़के भी किसी काम के नहीं हो पा रहे हैं साथ ही भूमि सम्बंधी कानून भी नहीं बना पा रही है सरकार। परंतु आंदोलन से हफ्ते भर पहले सरकार ने भूमि सम्बंधी कानून में बदलाव के लिये एक विधेयक पेश किया था जिससे किसानों को मालिकाना हक मजबूत होने के आसार बढ़े थे और उम्मीद की जाने लगी थी कि विदेशी निवेशक भारत की धरती पर लौटेंगे। इसी को देखते हुए गोल्डमन शैस ने भारत की रेटिंग बढ़ा दी थी। लेकिन अब सरकार कई महीनों तक कोई कदम नहीं उठा सकेगी। इसके साथ ही चूंकि अगले साल यूपी में चुनाव होने वाले हैं इस लिये सरकार अगले साल के शुरू में भी कोई कठोर कदम नहीं उठा सकती। लेकिन 2014 में लोकसभा सभा के चुनाव हैं अतएव बिना सुधार किये सरकार रह नहीं सकती है। अब इसमें कौन सी राह चुनें यह तय करना कठिन है क्योंकि हर राह में नौजवान रोड़े बन कर खड़े हैं। भारत की आबादी में इस समय नौजवानों की संख्या पूरी आबादी में से आधी है और उनकी आकांक्षाओं को हवा दी गयी है। ऐसा पहले नहीं था। लेकिन इसके भय से हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना भी अक्लमंदी नहीं होगी।

रामलीला मैदान में लहूलुहान जनसंगठन


हरिराम पाण्डेय
28 अगस्त 2011
अण्णा हजारे ने अनशन तोड़ दिया। रामलीला मैदान में जश्न का माहौल दिखा। शनिवार की रात भारत की संसद ने अण्णा हजारे और उनकी टीम के सदस्यों की मांगें मान लीं और प्रस्ताव को स्थायी समिति को सौंपे जाने का निर्णय लिया गया। रात से कोलकाता में भी पटाखे चल रहे हैं और लाउड स्पीकरों पर देशभक्ति की धुनें बजायी जा रहीं हैं। जश्न कुछ है मानों करप्शन खत्म करने का सरकार ने अण्णा के कहने पर बंदोबस्त कर दिया है। अण्णा हजारे के पुण्य प्रताप से भारत देश की संसद ने ऐसा लोकपाल बिल बनाने की ठानी है, जो देश में ईमानदारी की रोशनी फैला देगा। उम्मीद करनी चाहिए, उम्मीद से सपने पूरे होते हैं। लेकिन उस छोटे करप्शन का क्या, जो आप-हम भी कर लेते हैं या कभी किया होता है? अब यह हो सकता है कि इसे करप्शन माना ही न जाए या फिर इतनी मामूली बात मानी जाए कि ऐतराज करना भी टुच्चापन लगे। आप दलील दे सकते हैं, करप्शन तो दरअसल वही है जो हमारे लीडर कर रहे हैं - लाखों-अरबों के घोटाले, हिंदुस्तान को चूना तो उन्हीं से लग रहा है।
सवाल उठता है, अण्णा हजारे के साथ जुड़े लाखों लोगों में से कितने इस तरह की राय रखते होंगे? या यह अलौकिक बात भी हो सकती है कि उन्हें इस तरह की दलीलों की जरूरत हो ही नहीं, क्योंकि वे सभी करप्शन से अछूते हों। यह सुखद कल्पना किसी भी चमत्कार की तरह शक के काबिल लगती है। बिना किसी जोखिम में पड़े इतना कहा जा सकता है कि उस भीड़ में ऐसे लोग भी होंगे ही, जो छोटे वाले करप्शन में पार्टी रहे हों। बदकिस्मती से इन दोनों के बीच एक फर्क है और वह यह कि बड़े करप्शन को तो लोकपाल या जन लोकपाल का डंडा दिखाया जा सकता है, लेकिन छोटे करप्शन को डराना बेहद मुश्किल है। कायदे और सिस्टम उसे मात नहीं दे पाते, क्योंकि वह अनगिनत सुराखों से गुजर सकता है। इसके साथ ही अण्णा के आंदोलन ने एक बड़ा सामाजिक बदलाव किया है। उनके आंदोलन ने कुछ और बदलाव किया हो या नहीं, उत्सव और आंदोलन के बीच के अंतर को मिटा दिया है। उनके अभियान में शरीक लोगों के हाथ में तिरंगा, होठों पर वंदेमातरम् और विचारों में राजनीति के प्रति एक अगंभीर किस्म की वितृष्णा महसूस की जा सकती थी। सभी नहीं तो इनमें से बहुत सारे वो लोग भी हैं जो आम तौर पर राजनीतिक विरोध प्रदर्शनों पर नाक भौं सिकोड़ते हैं और कहते हैं कि हड़तालों और प्रदर्शनों पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए क्योंकि इससे लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। इस आंदोलन के समर्थकों में कॉरपोरेट कंपनियों में काम करने वाले लोग भी शामिल हैं जो सामाजिक मुद्दों पर सड़कों पर उतरना आम तौर पर अपनी तौहीन मानते हैं। अण्णा का आंदोलन भारतीय समाज में पिछले बीस वर्षों में आए बदलावों को प्रतिबिंबित करता है। अब जनांदोलनों को जन संगठन नहीं चलाते, सिविल सोसाइटी चलाती है। अब आंदोलन के लिए कंधे पर थैला टाँगे, चना-मूढ़ी खाकर दिन-रात लोगों को गोलबंद करने वाले कार्यकर्ता की शायद जरूरत नहीं रहेगी। ये काम इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक की मदद से एनजीओ कर रहे हैं। पर्यावरण से लेकर समलैंगिकों के अधिकारों तक और दलित जागरण से लेकर कलाओं के संरक्षण तक - हर सामाजिक गोलबंदी के पीछे एनजीओ होते हैं। 'सिविल सोसाइटीÓ और जनसंगठन के द्वंद्व में फिलहाल जनसंगठन लहूलुहान चित पड़ा हुआ है और रामलीला मैदान में उसको दफन किए जाने का जश्न मनाया जा रहा है।

Saturday, August 27, 2011

अजेंडा सुशासन का होना चाहिये


हरिराम पाण्डेय
26 अगस्त 2011
ट्वीटर, फेसबुक और टीवी चैनलों की मानें तो अण्णा हजारे ग्रेट हैं, शायद बापू की भी अपने जमाने में 'टी आर पी Ó इतनी ज्यादा नहीं थी। एक तरफ अण्णा की साफगोई और सादगी पर सब मर-मिटे हैं लेकिन दूसरी तरफ गिरावट की इंतहा देखिए। पिछले 64 सालों में हमारे राजनीतिज्ञों की जितनी मिट्टी पलीद अब हुई है, कभी इससे पहले नहीं हुई। सच तो यह है कि अण्णा की सफलता का सबसे बड़ा कारण ही यह है कि लोग अब राजनीतिज्ञों को हिकारत की नजर से देख रहे हैं। पिछले कुछ समय से देश में जितने घोटाले हुए हैं, उन्होंने राजनीतिज्ञों की साख को सबसे नीचे पहुंचा दिया है। अरबों-करोड़ों के घोटाले बर्दाश्त कर चुके देश के लोग अब ऐसे नेताओं से मुक्ति मांगने लगे हैं। अण्णा के पीछे दीवानगी का यह आलम उसी मुक्ति की चाह का एक सबूत है। यही वजह है कि जन लोकपाल बिल से भले ही कुछ लोगों को ज्यादा उम्मीदें नहीं हों, लोग यह भी मानते हों कि सिर्फ एक कानून से ही 'हिंदोस्तां सारे जहां से अच्छाÓ नहीं हो जाएगा। रातों-रात व्यवस्थाएं नहीं बदला करतीं और सिर्फ कानून के बल पर समाज नहीं सुधर जाते। ऐसा होता तो दहेज की प्रथा कब से खत्म हो चुकी होती लेकिन अण्णा को जिस तरह लोगों ने सिर-आंखों पर बिठाया है, वह राजनीतिज्ञों के लिए एक बड़ी चुनौती है। 'सब चलता हैÓ की जगह 'बस, अब और नहींÓ की चेतावनी को समझना होगा। लेकिन गुरुवार को प्रधानमंत्री ने सदन में कहा कि अण्णा के प्रस्तावित बिल पर संसद में बहस करायी जाएगी। हमें नहीं पता कि स्थायी समिति किस बिल पर विचार करेगी। यह भी नहीं पता कि संसद में बिल के विभिन्न प्रारूपों पर बहस के बाद क्या होगा, क्या फिर कोई नया बिल बनेगा? क्या उस पर संसदीय समिति बहस करेगी? अगर टीम अण्णा के मनचाहे रूप में वह बिल पास नहीं हुआ तो इस आंदोलन का रूप क्या होगा? इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं है। सत्तापक्ष हो या विपक्ष, सभी मौके की आंच पर मतलब की रोटी सेंकते रहे लेकिन घोटालों के खिलाफ ठोस नतीजे सिफर रहे। ऐसे नाजुक समय में जब लोगों ने देखा कि 74 बरस का एक बूढ़ा खुद को भूखा रख कर नतीजे पाने के रास्ते गढऩे की कोशिश कर रहा है, तो खाने-पकाने वालों के खिलाफ देश की जनता दौड़ पड़ी। यह आंदोलन वैसा ही है जैसा 74 का जेपी मूवमेंट था, यह समझने की चूक हमें नहीं करनी चाहिए। जेपी की संपूर्ण क्रांति सीधे-सीधे सत्ता परिवर्तन की मांग पर टिकी थी। कहा जा सकता है कि उसका ध्येय वही था, जबकि अण्णा का आंदोलन भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात कर रहा है। गौर करें कि भ्रष्टाचार का मुद्दा अकेले कानून की जिम्मेदारी नहीं है। न ही जन लोकपाल विधेयक जैसे किसी बिल के लागू होने मात्र से यह खत्म हो जाएगा। बल्कि इसके लिए लंबे संघर्ष की जरूरत है। हर आदमी अगर खुद के भीतर बैठे भ्रष्टाचार को खत्म करे, तभी यह खत्म हो सकता है। इसलिये जरूरत है सुशासन की।

दिशाहीन आंदोलन


हरिराम पाण्डेय
25 अगस्त 2011
टीम अण्णा और सरकार में टकराव का निश्चित स्वरूप समाने आ चुका है। इस टकराव का मूल्यांकन भी जीत-हार के रूप में किया जा रहा है। लेकिन इसमें लोकपाल बिल का स्वरूप अपना महत्व खो चुका है। अब यह सवाल है कि जीतेगा कौन- टीम अण्णा या सरकार? दोनों पक्ष अपनी इज्जत बचाने जैसे किसी समझौते पर पहुंचना चाह रहे हैं। मजे की बात है कि जो नौजवान उस आंदोलन में शरीक हैं उनका कोई लक्ष्य नहीं है। गांधी टोपियों का उमड़ता सागर और उस पर तिरंगे की अशालीन लहर स्वतंत्रता और संविधान की मर्यादा को समझने वालों के मन में कष्टï पैदा कर रही है। यहां चंद जहीन लोग, जो अण्णा के समर्थक कहे जा रहे हैं, वे इसे सत्याग्रह का नाम दे रहे हैं और आंदोलन को गांधीवादी कह रहे हैं। वे शायद भूल रहे हैं कि गांधी ने सत्याग्रह का इस्तेमाल एक नैतिक शक्ति के रूप में किया था। इसके अंतर्गत उन्होंने अपने विरोधियों पर सत्य और न्याय को पहचानने के लिए दबाव डाला। उनका सत्याग्रह ब्लैकमेल नहीं था। ऐसे ब्लैकमेल को गांधी ने सत्याग्रह का नहीं बल्कि दुराग्रह का नाम दिया। गांधी ने कहा था कि एक सच्चे सत्याग्रही को हमेशा एक सम्मानजनक समझौते के लिए तैयार रहना चाहिए। सत्याग्रही का संघर्ष जीत के लिए नहीं बल्कि एक बेहतर समझौते के लिए होता है। कोई भी राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन सिर्फ मुद्दों के आधार पर नहीं चलाया जा सकता , जब तक कि उसका एक निश्चित विचारधारात्मक आधार न हो। इस आंदोलन का उद्देश्य , दिशा तथा सामाजिक आधार तब तक स्पष्ट नहीं होंगे जब तक यह न तय हो कि इसका विचारधारात्मक ढांचा क्या है। यह बतलाना काफी नहीं है कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है। सिर्फ चंद मुद्दों पर आधारित आंदोलन को समाज की अवांछित और प्रतिक्रियावादी ताकतों द्वारा आसानी से हड़पा जा सकता है। पिछले दो - तीन दशकों से हमारा समाज एक खास तरह के संक्रमण से गुजर रहा है। सब जानते हैं कि भ्रष्टाचार के बिना जीवन बहुत कठिन होता है। भ्रष्टाचार करोड़ों लोगों की रगों में बह रहा है, भारत में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला उद्यम भारतीय रेल या कोल इंडिया नहीं है बल्कि ईश्वर की तरह सर्वव्यापी भ्रष्टाचार है। अण्णा सही हैं या गलत इस बहस को एक तरफ रखकर सोचना चाहिए कि अगर अण्णा का आंदोलन सफल हो गया तो उन्हें ही सबसे बड़ा झटका लगेगा। इस आंदोलन के समर्थन में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो राजनीतिक भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं और उन्हें लगता है कि जन-लोकपाल बिल से सिर्फ नेताओं की कमाई बंद होगी, उनका जीवन यूं ही चलता रहेगा। जैसे मिलावट करने वाले दान भी करते हैं, पाप करने वाले गंगा नहाते हैं, उसी तरह बहुत से लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्तियां जला रहे हैं, इससे मन को शांति मिलती है, ग्लानि मोम की तरह पिघलकर बह जाती है। अण्णा हजारे को इस बात का श्रेय जरूर मिलना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार को बहस का इतना बड़ा मुद्दा बना दिया है, हो सकता है कि यह एक बड़े आंदोलन की शुरुआत हो लेकिन अभी तो भावुक नारेबाजी, गजब की मासूमियत और हास्यास्पद ढोंग ही दिखाई दे रहा है। वर्तमान दौर को जरा गौर से परखें। यह मंथन का दौर है, बिल्कुल सागर मंथन की मानिंद। इस सागर मंथन के गर्भ में अमृत और विष दोनों ही मौजूद हैं। ऐसे में हमारी राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक आंदोलन , दोनों पर ही यह जिम्मेदारी आती है कि वे कुछ भी ऐसा न करें जिससे इस मंथन की कोख से विष बाहर निकलकर पूरे समाज को दूषित कर दे।

ताजा आंदोलन से उपजे चंद सवाल


हरिराम पाण्डेय
24 अगस्त 2011
अभी हाल में किरण बेदी ने कहा था 'अण्णा इज इंडिया एंड इंडिया इज अण्णा।Ó उनकी यह बात अचानक इमरजंसी के उस अवसर की याद दिलाती है जब एक महानुभाव ने कहा था 'इंदिरा इज इंडिया....।Ó इसके बाद क्या हुआ था यह सब जानते हैं। अभी इन बातों से अलग एक बात विचारणीय है कि अगर टीम अण्णा के मनचाहे रूप में यह बिल पास नहीं हुआ तो इस आंदोलन का रूप क्या होगा? औरों की तरह इस सवाल का जवाब स्पष्टï नहीं है। पर अण्णा की अगुवाई में शुरू हुए इस आंदोलन से यह बात जरूर साफ हो गयी है कि राजनीतिक पार्टियों से आम आदमी का मोहभंग हुआ है। इन पार्टियों के नेताओं के झूठे वादों से बार-बार आहत हुई आम आदमी की आस्था को संभावनाओं का नया ठौर अण्णा के रूप में दिख रहा है। अण्णा ने इस जनता से कोई वादा नहीं किया है, पर जनता उनसे बार-बार वादा कर रही है कि अण्णा हम तुम्हारे साथ हैं। आखिर इस आस्था की वजह क्या है? क्या कारण है कि अनिश्चित, अनसुलझे और अनगढ़ रास्ते पर लोग अण्णा के पीछे भागे चले जा रहे हैं। इस आस्था की वजह है हाल के वर्षों में उपजी निराशा और नाउम्मीदी। यह नाउम्मीदी क्यों? डॉ. राधाकृष्णन ने चेताया था कि 'एक धनलोलुप और बिकाऊ शासक वर्ग स्वप्न को दु:स्वप्न में बदल सकता है: जब तक कि हम शीर्ष स्थानों से भ्रष्टाचार को खत्म न कर दें, भाई-भतीजावाद, सत्ता लोलुपता, मुनाफाखोरी और काला बाजारी की हर जड़ को न उखाड़ फेंके , जिन्होंने हमारे महान देश के नाम को खराब किया है ..तब तक हालात नहीं सुधरेंगे।Ó इसी सुधार की उम्मीद जनता को अण्णा से है। आज अण्णा हजारे ठीक उसी तरह का प्रतीक बन गये हैं, जैसे जयप्रकाश नारायण 1974 में थे। उनकी खास मांगें उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि उनके द्वारा उन मांगों को उठाया जाना। किसी ज्यादा योग्य सरकार ने अण्णा की शुरुआती मांग मान ली होती, लोकपाल मसौदे के उनके ड्राफ्ट को लोकसभा में रख दिया होता और लंबी वैधानिक प्रक्रिया चलने दी होती। इससे आधिकारिक तौर पर प्रतिक्रिया देने की जिम्मेदारी सभी राजनीतिक दलों तक पहुंच जाती, बजाय व्यापक तौर पर कांग्रेस संगठन के। यहां दो बातें काफी स्पष्ट हैं। एक , यह मसला आंदोलन की विश्वसनीयता से ज्यादा सरकार की गिरती हुई छवि और साख को दर्शाता है। अण्णा आंदोलन में लोगों का विश्वास हो या नहीं , सरकार पर उन्हें पूरा अविश्वास है। हमारे लोकतंत्र ने हमें एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था दी है जिसने लोगों में इसके प्रति संदेह को बढ़ाया है। ऐसे में सरकार के खिलाफ चलाया जाने वाला कोई भी आंदोलन आसानी से लोगों के दिलो - दिमाग पर छा सकता है। ऐसे में अगर अण्णा का यह आंदोलन औंधे मुंह गिरा, तो? यह सवाल जितनी बेचैनी पैदा करता है उससे तीखा यह सवाल है कि अगर आंदोलन कामयाब हुआ और जनता ने जितनी उम्मीदें बांध रखी हैं उन्हें वह पूरी होती नहीं दिखीं तो क्या होगा?

यदि आंदोलन फेल हुआ तो...


हरिराम पाण्डेय
23 अगस्त 2011
अबसे लगभग 36 बरस पहले इसी रामलीला मैदान से सम्पूर्ण क्रांति के नारे के जनक जयप्रकाश नारायण ने ऐलान किया था 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। Ó और इस नारे के बाद जनता तो नहीं आयी बेशक जनता पार्टी सत्ता में आ गयी और साझे की यह पार्टी साल भर से ज्यादा नहीं चल पायी और साझे की हांड़ी चौराहे पर फूट गयी। फिर वही हुआ जो पहले था। जिन छात्रों को 'जिगर के टुकड़ेÓ कह कर जे पी ने स्कूलों- कालेजों से बाहर लाकर सड़कों पर नारेबाजी के लिये खड़ा कर दिया था उन्हीं छात्रों के समूह से लालू और चंद्रशेखर जैसे लांछित नेता निकले। आज हमारा देश फिर एक वैसे ही आंदोलन के मध्य खड़ा है। बड़ी- बड़ी बातें कहीं जा रही हैं। छात्र फिर उसी पुराने रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। परिवर्तन का शंखनाद भी हो रहा है। लेकिन क्या ऐसा संभव है? भ्रष्टïाचार से ज्यादा खतरनाक है भ्रष्टï बनाने वाला तंत्र। इस पर ना अण्णा की नजर है और ना औरों की। राजनीति का अर्थव्यवस्था से नजदीक का रिश्ता है। हमारी आज की बाजार चालित अर्थव्यवस्था में उसे चलाने की शक्ति व्यापारी, उद्योगपति व कॉरपोरेट जगत के हाथों में है। ये तबके या तो संसद व विधानसभाओं में अपने नुमाइंदे भेजते हैं अथवा चुने हुए सांसदों व विधायकों पर असर डालकर अपने फायदे के कानून व नीतियां बनवाते हैं। किसानों- मजदूरों का ज्यादातर शोषण बेलगाम मुनाफा के जरिए होता है जिसे कानून जायज मानता है। जहां कानून आड़े आता है, ये वर्ग घूस देकर अपना काम निकाल लेते हैं। ये एक करोड़ घूस देकर 10 करोड़ का फायदा उठाते हैं। घूस संस्कृति का असली लाभ उठाने वाला यह वर्ग नेताओं पर (अक्सर मामूली अनियमितताओं को लेकर) कीचड़ उछलवाता है और खुद अछूता और निष्कलंक दिखने की कोशिश करता है। राजनैतिक दल अपने अस्तित्व के लिए उन पर आश्रित हैं क्योंकि उनसे चंदा आता है। भ्रष्टाचार सभी दलों का तन ढंकता है, इसे खत्म करने के लिए उसे टिकाने वाली व्यवस्था को समझना जरूरी है। अन्ना ने जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार से लडऩे या ऊंचे स्तर पर काले धन व घूस के स्रोत को सुखाने का कोई प्रोग्राम या सोच नहीं रखा है। बल्कि अपने समर्थकों से भ्रष्टाचार मुक्त आचरण का आग्रह न रखने के कारण भ्रष्टाचार में लीन तत्व भी (चाहे वे व्यापारी हों या अफसर) उनकी तरफ आ रहे हैं। चूंकि यही तत्व सांप्रदायिकता के आधार हैं इसलिए खतरा है कि इस मुहिम से कहीं सांप्रदायिक ताकतें न मजबूत हो जाएं। डर है कि सिर्फ सत्तारूढ़ गठबंधन को निशाना बनाने की इस मुहिम से सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में वापसी में मदद मिलेगी भले ही कुछ उदार लोग भी इस मुहिम में शामिल हो गए हों। यहां यह भी सवाल है कि क्या आंदोलन इस बात को सही तरीके से भीड़ तक पहुंचा पाया है कि लोकपाल तो महज पहला कदम है, भ्रष्टïाचार मिटाने के लिए कई मुकाम पार करने होंगे और यह रातोंरात नहीं हो जाएगा। अण्णा सुपरमैन नहीं हैं और लोकपाल कतई भगवान नहीं होगा। लोक आंदोलन हमेशा आसान नारों का सहारा लेते हैं और निराशा के खतरे को साथ लिए चलते हैं। अगर आंदोलन नाकाम रहा या कामयाब होकर भी बेअसर साबित हुआ, तो क्या होगा? भारत की महान हताशा उसका क्या हाल करेगी?

Sunday, August 21, 2011

कृष्ण युगधर्म से प्रेरित हैं

19 अगस्त 2011
आज जन्माष्टïमी है। इस अवसर पर कृष्ण के जन्म पर चर्चा जरूरी है क्योंकि आज हम फिर एक विचित्र संक्रमण काल के चौराहे पर खड़े हैं। वर्तमान युग आधुनिक और उत्तर आधुनिक काल से आगे बढ़ कर एक वैश्विक काल में प्रवेश कर रहा है तथा यह एक संक्रमण काल है। तेज रफ्तार से बदलते वक्त में अक्सर परम्पराओं और मान्यताओं का क्षय होने लगता है और संस्कृतियों का टकराव आरंभ हो जाता है। ऐसे बदलाव में हमेशा कृष्ण सदृश किसी नायक की जरूरत पड़ती है। महाभारत की कथा का यदि हम समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो पाएंगे कि वह उत्तर भारत में गंगा- यमुना के तटवर्ती इलाकों में भारी राजनीतिक और सामाजिक उथल - पुथल का दस्तावेज है और साहित्य में थोड़े अतिरंजित रूप में वह काल आज बचा हुआ है। पर यह तय है कि वह इस महाद्वीप में एक गहरे संक्रमण का काल था। कृष्ण इस संक्रमण काल के एक मात्र नायक हैं। महाभारत के सारे पात्र एक मिटती सभ्यता के चरित्र हैं। अतएव वे चाहे जितने तेजोदीप्त हों घटनाक्रम उन्हें लगातार निस्तेज बनाता जाता है। मानव सभ्यता कबीलों और गणों से होती हुई परिवार और कुलों के राज्य के स्वरूप पर पहुंच कर नये सिरे से खुद को गठित करने के मोड़ पर खड़ी है। इतना पारिवारिक कलह और बदलते मूल्यों से उपजता सामाजिक संघर्ष एवं उससे उद्भूत मानवीय पीड़ा सभ्यता के किसी संक्रमण काल में ही हो सकती है। कृष्ण के पास इन सबकी एक व्याख्या है और संक्रमण युग के उपयुक्त कर्म का एक दर्शन भी है। पाण्डवों से उनके सरोकार किसी मोह से प्रेरित न होकर अपने युगधर्म से प्रेरित थे। इस संदर्भ में यह स्पष्टï होता है कि गीता का संदेश न अध्यात्मिक पाठ है और ना कोरा कर्म का ज्ञान है बल्कि विषाद ग्रस्त अर्जुन के माध्यम से एक नये समाज और नयी व्यवस्था के निर्माण का संदेश है। मानवता के समूचे संकट काल को कृष्ण ने अपने भीतर इस तरह से धारण कर रखा था कि गांधारी ने युद्ध खत्म होने के बाद कृष्ण को शाप देते हुए कहा था कि 'तुम चाहते तो युद्ध रुक सकता था।Ó अब पुत्रों के खोने से दुखी गांधारी यह भूल जाती है कि युद्ध रोकने के अंतिम कोशिश के रूप में कृष्ण ही दूत बनकर कौरव की सभा में गये थे। गांधारी कृष्ण को कारण मानने लगी थी जबकि मनुष्य कारण बन ही नहीं सकता। कारण तो इतिहास था जो करवट ले रहा था। कृष्ण तो महापरिवर्तन के द्रष्टïा हैं इसलिये परिवर्तन की अगुवाई करने वाले हर नेता को चाहे वह कोई हो उन्हें कहीं ना कहीं कृष्ण की जरूरत पड़ती है। कृष्ण की पूरी कहानी में इतने मानवीय तत्व और इतने अनुभव हैं कि इस कथा को समझे जाने की जरूरत है। आज हमारा समाज जिस मोड़ पर खड़ा है वहां भी परिवर्तन की आहट सुनायी पड़ रही है और ऐसे में कृष्ण ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं। आज फिर नयी व्यवस्था की मांग हो रही है और व्यवस्था वहीं कायम रहने की जिद पर अड़ी है। यहां यह समझना जरूरी है कि समय सदा स्थिति सापेक्ष होता है और आज स्थितियों के सारे संदर्भ बदल गये हैं। आज समस्त मानवीय सम्बंध, परिवार का स्वरूप, सत्ता और सम्पत्ति का ढांचा, स्त्री पुरुष सम्बंध और सामाजिक संस्थाएं सब बदल रही हैं। इसी संक्रमण में जीवन की समग्रता का आकलन जरूरी है जैसा कृष्ण ने किया था। तभी विध्वंस के बगैर नये समाज का जन्म हो सकेगा। वरना विध्वंस को रोकना संभव नहीं हो पायेगा। इस विध्वंस को रोकने के लिये हमें कृष्ण के जीवन से प्रेरणा लेनी होगी।

इंडिया को भारत बनाना जरूरी

हरिराम पाण्डेय
15 अगस्त 2011
आज भारत का स्वाधीनता दिवस है। चारों तरफ उत्सव और कार्यक्रमों का जोर है। विभिन्न लेखों के जरिये स्वाधीनता दिवस और आंदोलन की महत्ता के बारे में बताने की कोशिश की गयी है। चंद अंग्रेजी अखबारों में कुछ ज्ञान गुमानियों ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को यूरोपीय पुनर्जागरण से प्रभावित बताया है। लेकिन यह कथन भ्रामक है और ऐसे भ्रामक विचारों के कारण ही आज भी हमारे देश में दो देश हैं एक है भारत और दूसरा इंडिया। हमारे स्वराज्य और स्वतंत्रता की अवधारणा 5-6 सौ बरस पहले के यूरोपीय पुनर्जागरण काल की देन नहीं है। ऋग्वेद का एक पूरा सूक्त (1.80) स्वराज्य की कामना है-'माययाव धीरर्चनु स्वराज्यंÓ। ऋग्वेद के 1.80.7 सूक्त के सभी 16 मंत्रों के अंत में 'अर्चन् अनु स्वराज्यमÓ है यानी स्वराज्य प्राथमिक आवश्यकता है। स्वराज समाज संगठन व शासन से जुड़ा स्वभाव है। स्वराज के अभाव में स्वभाव का दमन होता है। स्वराज से प्रकृति संस्कृति बनती है। भारत में वैदिक काल से ही स्वछंद, स्वरस, स्वानुभूति का स्वस्थ स्वतंत्र वातावरण था। धरती माता और आकाश पिता थे। लेकिन विदेशी हमलावरों ने भारत का अवनि - अंबर आहत किया। शिक्षापद्धति ने हमारी सोच को विकृत कर छद्म स्वाभिमान के भाव से भर दिया। नतीजा हुआ कि हमारी सामाजिक मेधा में गुलामी का आवरण चढ़ गया। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण भारतीय संविधान सभा में भारत के नामकरण पर हुई बहस है। संविधान सभा ने भारत का नाम 'इंडियाÓ रखा। इंडिया बनाम भारत के सवाल पर संविधान सभा में 18 सितम्बर 1949 को बहस हुई। वोट पड़ा। 'भारतÓ को 38 और इंडिया को 51 वोट मिले और इस प्रकार भारत हार गया तथा इंडिया जीत गया। भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। जो भारत है, उसका नाम भी भारत है। लेकिन गुलाम मानसिकता के नेताओं ने एक नये राष्ट्र की कल्पना की। एक राष्ट्र के भीतर राष्ट्र के रूप, स्वरूप, दशा, दिशा, नवनिर्माण, भविष्य और नाम को लेकर दो धाराएं जारी हैं। पहली धारा भारतीय और दूसरी इंडियन। महात्मा गांधी, डॉ0 राममनोहर लोहिया, डॉ0 हेडगेवार, बंकिमचंद्र और सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रवादी धारा के अग्रज हैं। कांग्रेस पर सम्मोहित एक और धारा यहां प्रभावित है और वह धारा इंडियावादी है। दुर्भाग्य से आज 'इंडियावादीÓ समूह का वर्चस्व है। आज भी अपने देश के मानस पर गुलामी का असर है और जब तक हम इस असर से मुक्त नहीं होंगे हमारा सोच स्वतंत्र नहीं हो सकता और गुलाम सोच का इंसान या समूह या राष्टï्र कभी भी अपने स्व का विकास नहीं कर सकता। हमें इंडिया को भारत बनाने के लिये एक नयी क्रांति का शंख फूंकना चाहिये।

ब्रिटेन में दंगा

हरिराम पाण्डेय
11 अगस्त 2011
ब्रिटेन में इन दिनों भयानक दंगे हो रहे हैं और उसकी लपटें लंदन के अलावा कई अन्य शहरों में भी फैल गयी हैं। लंदन और दुनिया के अन्य स्थानों पर बैठे वामपंथी उदारवादी चिंतकों और लेखकों ने इसका जो भी विश्लेषण किया है वह दर असल उनका बुद्धि विलास है और उसका जमीनी हकीकतों से कुछ लेना- देना नहीं है। पहली बात कि इन दंगों में शामिल लोग मिलीजुली आबादी के नहीं हैं बल्कि अश्वेत हैं और ज्यादातर किशोर हैं। ये अश्वेत अधिकतर एशियाई और अफ्रीकी मुस्लिम बहुल समाज के लोग हैं। ये लड़के दुकानों, घरों और मोटर कारों को फूंक रहे हैं तथा इनके हाथों जो भी लग जाता है उसे लूट रहे हैं। इनमें फ्लैटस्क्रीन टी वी सेट्स, मोबाइल फोन, स्नीकर्स और महंगी शराब के प्रति ज्यादा आकर्षण दिख रहा है। इन घटनाओं के बारे में जो भी विश्लेषण आ रहे हैं वे एक तरह से गुमराह करने वाले हैं। कोई भुी ठीक से यह बताने का प्रयास करता हुआ नहीं देखा- सुना गया कि आखिर लंदन और उसके आस- पास के कई शहर इस गुस्से का शिकार हो कैसे गये? इनका इरादा अधिकारियों के ध्यान को दूसरी तरफ मोडऩा है ताकि असली अपराधी गिरफ्त में ना आ सके। जो सवाल सहज होते हैं उनके जवाब भी सरल होने चाहिये। ऐसा नहीं कि ज्ञान के जोश में लहीम- शहीम दलीलों को लोगों के गले में उतार दिया जाय। दंगे को देख कर ब्रिटिश अधिकारी हैरत में हैं और दंगाई शांत होने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में उन दंगों के कारणों के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं कहा जायेगा। ऐसी स्थिति में इसके कारणों के बारे में जानकारी के लिये प्रतीक्षा करना ही उचित होगा। इस संबंध में फिलहाल जो कुछ भी कहा जायेगा वह उपलब्ध वास्तविकताओं के आधार पर ही कहा जायेगा। चूंकि दंगाई अश्वेत हैं , प्रवासी हैं और किसी की निजी सम्पत्ति के प्रति उनमें कोई विचार नहीं है, उल्टे उन सम्पत्तियों के प्रति उनमें रोष है। ये हालात बताते हैं कि उनकी यह कार्रवाई विरोध प्रदर्शन नहीं है बल्कि स्पष्टï रूप से दंगा है। दूसरी बात कि दंगे का इस तरह बेइख्तियार भड़कना और उसे काबू करने में पुलिस तथा अन्य सम्बद्ध एजेंसियों की नाकामयाबी यह बताती है कि वहां की पुलिस भी भारत की तरह समाज से जुड़ी नहीं है। अभी हाल में इंग्लैंड में पुलिस और अन्य सम्बद्ध एजेंसियों के खर्च को घटा दिया गया और यह दंगा बता रहा है कि पुलिस की ट्रेनिंग में कोताही कितनी महंगी पड़ सकती है। पुलिस बलों की कम संख्या का मतलब है मौके पर नाकामयाबी। भारत में नीति बनाने वालों के लिये यह एक सबक है। उन्हें यह सोचना चाहिये कि टे्रनिंग में कमी के कारण लंदन की मेट्रोपॉलिटन पुलिस दंगे को काबू करने में फिसड्डïी साबित हुई है। तीसरी बात कि इंग्लैंड में वोट बैंक की सियासत के कारण बहुसंस्कृतिवाद को बढ़ावा और प्रवासियों के अपराध को वंचितों के बदले की कार्रवाई की संज्ञा देकर सियासत की रोटी सेंकना अब महंगा पड़ेगा। उदारता और व्यावहारिकता के उपदेश की घुट्टïी पिलाने वाले ब्रिटिश राजनीतिज्ञों को अब सोचना होगा कि अपराधियों , आतंकियों और वांछितों को शरण देना कितना महंगा पड़ेगा। तुष्टीकरण की नीति ने जिस तरह भारतीय समाज में द्वेष का सूत्रपात किया है उसी तरह वहां भी हो रहा है। ब्रिटेन अब अपनी गलतियों का नतीजा भोग रहा है।

गैरजरूरी गोपनीयता में लिपटा 'राजवंशÓ

हरिराम पाण्डेय
10 अगस्त 2011
देश की लगभग 85 प्रतिशत आबादी किसी ना किसी रूप में मीडिया से जुड़ी है। सियासत की मसालेदार खबरों के अलावा यदि सबसे लोकप्रिय आइटम कोई मीडिया में है तो वह है क्रिकेट। लेकिन कुछ दिनों से यह देखने को मिल रहा है कि देश की अंग्रेजी और इलेक्ट्रानिक मीडिया कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बीमारी की जांच करने में लगी है। विभिन्न संदर्भों में इस बात को इतना प्रचारित किया जा रहा है कि यह अब निजी बतरस से लेकर सोशल नेटवर्किंग में 'चटरस (चैटिंग का रस)Ó का सिलसिला बन गया है। विगत एक बरस से मीडिया देश में व्याप्त कथित भ्रष्टïाचार के मामलों में हस्तक्षेप के कारण जनता में लोकतंत्र के पहरुआ के तौर पर उभर कर आया है, खास कर घोटालों का पर्दाफाश करने और सियासी क्लास से जवाब तलब करने के अपनी भूमिका के कारण उसे काफी शोहरत मिली है। ऐसे में जहां तक सोनिया जी की बीमारी का सवाल है मीडिया ने कम्बल ओढ़ कर घी पीने वाली भूमिका अपनायी है। भारत के लगभग सभी मीडिया घरानों के दल न्यूयार्क अस्पतालों की खाक छान रहे हैं जिनमें से किसी एक में सोनिया जी गुमनाम तौर पर भर्ती हैं। कांग्रेस में गांधी परिवार से जुड़े लगभग हर स्रोत को टटोला जा रहा है कि उन्हें क्या बीमारी है या उनका क्या उपचार चल रहा है। कांग्रेस या सरकार का कहना है कि वह एक निजी मामला है तथा उसे गोपनीय रखा जाय। इस मसले को लेकर देश में और मीडिया में बहस चल रही है। वैसे कांग्रेस के नेतृत्व का मामला दरअसल गांधी परिवार का निजी मसला है भी नहीं। जो देश का पूरी तरह स्वीकृत नेता हो और जो शासन नहीं कर रहा हो पर असल में उसी के हाथों शासन की डोर हो वह कभी निजी हो भी नहीं सकता। भारत सोवियत संघ नहीं है जहां यूरी आंद्रोपोव की बीमारी आखिर तक रहस्य बनी रही और उसे सरकारी गोपनीयता का जामा पहना दिया गया या भारत उत्तर कोरिया भी नहीं है जहां हर सूचना क्लासीफायड होती है। लोकतंत्र में नेताओं के स्वास्थ्य के बारे में अस्पतालों से जिम्मेदार डाक्टर दैनिक बुलेटिन जारी करते हैं और साथ ही परिवार की गोपनीयता के हक की भी हिफाजत करता है। जहां तक भारत का सवाल है यहां जब देश के सर्वोच्च परिवार की बात आती है तो मीडिया की खोजी पत्रकारिता की धार कुंद हो जाती है और सब कुछ हैंडआउट पर जा टिकता है। जबकि मीडिया इस हकीकत से भी अच्छी तरह वाकिफ है कि कई अवसरों पर देश को गुमराह किया जा चुका है। सोनिया जी की ही बात लें , कई मौकों पर जब वे उपस्थित नहीं हो सकीं तो कहा गया कि उन्हें वाइरल बुखार है या वे अपनी मां को देखने इटली गयी हैं वगैरह- वगैरह, हालांकि कोई भी प्रमाणिक तौर पर पक्की जानकारी नहीं दे पाया। राहुल गांधी के साथ भी यही हुआ। कांग्रेस महासचिव अपने जन्म दिन के अवसर पर देश में थे ही नहीं। कहां गये थे पता नहीं। यहां तक कि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी भी उनके यात्रा कार्यक्रमों की जानकारी नहीं दे पायी। सुरक्षा के नाम पर बात टाल दी गयी। गांधी परिवार ने न जाने क्यों अपने को गैरजरूरी गोपनीयता के पर्दे के पीछे छिपा रखा है। इसके कारण तरह- तरह की अफवाहें फैल रही हैं, साजिशों की अटकलें लगायी जा रहीं हैं। महत्वपूर्ण लोगों की बीमारी के बारे में अफवाहें तभी फैलती हैं जब सूचनाओं को अवरुद्ध कर दिया जाता है। अफवाहों को नजरअंदाज भी कर दें तो सोनिया जी की लम्बी गैरहाजिरी का असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ेगा। रोगी के स्वास्थ्य के बारे में सही सूचना और परिवार की गोपनीयता के मध्य संतुलन के लिये कई उपाय हैं जो कामयाब भी रहे हैं।

ब्रेविक प्रभाव: हमारे जवानों के सिर काटे गये

हरिराम पाण्डेय
9 अगस्त 2011
फिलाडेल्फिया में स्लट वाक पर सन्मार्ग कार्यालय में चर्चा हो रही थी और इसी दरम्यान नार्वे में ब्रेविक के खून खराबे पर विमर्श होने लगा। इनका संयुक्त संवादी प्रभाव अंतरराष्टï्रीय स्तर पर मुस्लिम विरोध के स्वरूप में सामने आ रहा था कि खबर मिली कि कुछ आतंकी सीमा पर दो भारतीय सैनिकों के सिर काट कर ले गये और सेना के सूत्रों ने दबी जुबान से इसका अनुमोदन किया है। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार के फरमान नहीं चलते बल्कि सेना और आतंकियों की मिलीजुली साजिशें चलती हैं। हाल में हमारे फौजियों के सिर काट लिये गये और उनकी लाशें कुपवाड़ा के समीप भारतीय सीमा में फेंक दी गयीं। इससे साफ जाहिर होता है कि यह फौजियों का अपहरण कर मार डालने का मामला है। जो खबरें मिल रहीं हैं उनसे पता चल रहा है कि भारतीय फौजियों के कटे सिरों को पाकिस्तानी आतंकियों ने अपने घरों में पदक के रूप में सजा रखा है। इस पूरी घटना में वैश्विक स्तर पर फैल रहे मुस्लिम विरोध के प्रतिशोध की झलक दिखायी पड़ रही है। पाकिस्तानी आतंकियों की यह मानसिकता निश्चित रूप से एक ऐसी बहस को जन्म देने वाली है जो धर्म, नस्ल, जाति और भाषा के जन्मजात संस्कारों के चलते अनायास उपजने वाले खतरों को रेखांकित करने के लिए बाध्य करती है। इस त्रासदी की बौद्धिक पड़ताल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यहां मुसलमानों को राजनीतिक बहस और चुनाव का मुद्दा भी बनाया जा रहा है। वैश्वीकरण को हम इस रूप में गुणात्मक मानते हैं कि इसकी बिना पर दुनिया की विलक्षण संस्कृतियों के उत्कर्ष और महत्व को समझने में आसानी हुई। संस्कृतियों का विनिमय हुआ। प्रजातांत्रिक मूल्यों और बाजारवाद की ओट में वास्तव में ईसाई कट्टरपंथी (फंडामेंटलिज्म) ने दुनिया के अनेक देशों के सांस्कृतिक वैविध्य को अपनी चपेट में ले लिया। यह स्थिति खतरों से खाली नहीं है। एक तरफ लोगों में अपनी मूल अथवा पुरातन संस्कृति बचाने की जद्दोजहद है तो दूसरी तरफ पश्चिमी संस्कृति में चले जाने की होड़ है। लिहाजा नूतन और पुरातन के बीच संस्कृतियों में कशमकश है। मिलीजुली संस्कृति का प्रचलन मुस्लिम राष्ट्रों में संभव नहीं है। भारतीयों की तरह सहिष्णु और सर्व समावेशी अवधारणाएं उनके लिए गौण हैं। इस परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तानी आतंकियों के इस ताजा करतूत को नरपिशाच की क्रूरता कहकर नकारा जाना खतरनाक होगा।

न हन्यते

हरिराम पाण्डेय
8 अगस्त 2011
आज कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर की पुण्य तिथि है। पश्चिम बंगाल सरकार ने इस अवसर को स्मरणीय बनाने के लिये विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया है। कविगुरु के नाम पर आयोजनों के इस चकाचौंध में कई बातें हम विस्मृत कर गये हैं। हालांकि उन पर भी चर्चा करना जरूरी है पर अभी कविगुरु के प्रसंग में ही बातें हों तो अच्छी। कविगुरु की कविताएं उनके मानस का प्रतिविम्ब हैं और उनकी कविताओं में जहां मृत्यु का रुदन है वहीं जिजीविषा का हास्य भी है। यही नहीं वह हास्य मृत्यु के रुदन से कहीं ज्यादा प्रगल्भ है। दरअसल वे कवि कम और दार्शनिक ज्यादा थे। भारतीय दर्शन और अध्यात्म में जहां मृत्यु पर नकारात्मक विमर्श है वहीं रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविताओं में उसे ललकारा है। भारतीय वांगमय लिखता है कि 'जीवन क्षणभंगुर है, संसार नश्वर है।Ó जबकि रवींद्रनाथ ने लिखा है कि 'अवसान के बाद जो मिथ्या है वही अवसान के पूर्व सत्य है। जो जितना सच होगा उसे हमें स्वीकारना होगा वरना वह हमसे स्वीकार करवा लेगा।Ó मानव जाति की दिमागी 'कंडीशनिंगÓ कुछ ऐसी हुई है कि वह अक्सर यथार्थ को अस्वीकार करता है, उससे आंखें चुराता है जबकि रवींद्र नाथ का कहना है कि किसी वस्तु को अपनाना या उसे अस्वीकार करना दोनों वास्तविकता है और जब तक दोनों को मिलाया नहीं जायेगा तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं होगी। हमारा दर्शन मानव स्वभाव के संदर्भ में सामंजस्य को उपस्कर मानता है जबकि गुरुदेव का मानना है कि स्वभाव की वास्तविकता को जानने के लिये मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानना होगा और स्वरूप का किसी एक प्रयोजन के संदर्भ में विश्लेषित करने से सच्चाई सामने नहीं आयेगी। अगर वीणा की सच्चाई जाननी है तो लकड़ी के टुकड़े और तारों को समझने से काम नहीं चलेगा बल्कि उस पर बजने वाले उन सुरों को भी समझना होगा और बजाने वाले की दक्षता भी जाननी होगी। आज के जमाने में मानव एक साधन बन गया है और हमारी जरूरतें उसे जिस नजरिये से देखती हैं हम उसे वैसा ही बनाना चाहते हैं। अगर मनुष्य को हम राष्टï्र के संदर्भ में देखेंगे तो सिपाही बनाने की सोचेंगे और नजरिया यदि आर्थिक होगा तो मानव समाज को हम धन कमाने की मशीन बना देना चाहेंगे। मनुष्य का अर्थ हमारी जरूरतों और प्रयोजनों से बढ़ा है और मनुष्य को समझने के लिये हमें उसे अपने प्रयोजनों और जरूरतों के चश्मे से नहीं देखना होगा। रवींद्र नाथ का काल यूरोपीय भौतिकवाद के प्रहार का काल था और भारतीय दर्शन एवं जीवन मूल्यों का घातक संहार चल रहा था उस काल में, उन्होंने लिखा 'गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्माचरेत।Ó रवींद्रनाथ ने पाश्चात्य मनोविज्ञान को ललकारते हुए एक सार्वभौमिक मस्तिष्क की परिकल्पना की है जो वैयक्तिक मस्तिष्क से उच्च कोटि का है और जिसमें चार सतह हैं-चित्त, मनस , बुद्धि और सत्य से युक्त अंतज्र्ञान। रवींद्र नाथ आज भी पुनर्जागरण के कवि हैं और विज्ञान एवं भौतिकतावाद से आगे मानवता का निर्माण करते हैं। ऐसे विचारक भले ही अपना भौतिक शरीर त्याग चुके हों लेकिन अपने विचारों के संदर्भ में जीवित हैं- न हन्यते हन्यमान शरीरे।

विश्वव्यापी मंदी का आतंक

हरिराम पाण्डेय
5 अगस्त 2011
तीन दशक पहले अमरीका में मंदी आयी थी और उसके बाद हाल में आयी और अब जो आर्थिक हालात हैं उससे लगता है कि पिछली मंदी दोगुनी हो जायेगी और सारी दुनिया में आर्थिक गति में अवरोध का आतंक ब्याप गया है। विगत दो हफ्तों से अमरीका की आर्थिक स्थिति के बारे में जो निराशाजनक खबरें मिल रहीं हैं उससे लगता है कि स्थिति और शोचनीय हो गयी और इसके पहले उतना सुधार नहीं हुआ जितनी उम्मीद की गयी थी। इसके पहले जब मंदी आयी थी , जिसे आर्थिक इतिहासकार महामंदी- 1 बताते हैं, उसके बारे में सबका मानना था कि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इसका मुकाबला करे और स्थिति को पटरी पर ले आये। यकीनन सरकार ने कुछ ऐसा ही किया और हालात सुधर गये। अब जब महामंदी 2 आयी है तो इसके बारे में राजनीतिक दलों में एक दम भिन्न मत हैं। वे सरकारी खर्चों में कटौती पर जोर दे रहे हैं। अब लगभग दो महीनों की कड़ी कवायद के बाद आने वाले दशक में खर्चों में भारी कटौती के एक प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गयी है। विश्लेषक बता रहे हैं कि अमरीका में आर्थिक स्थिति में सुधार को लेकर पैदा हुई आशंका और यूरोजोन में कर्ज के संकट की वजह से वहां के बाजार में निराशा की स्थिति पैदा हुई है।
उनका कहना है कि अगले कुछ हफ्तों तक वैश्विक बाजार की हालत इसी तरह से डावांडोल रहेगी। एक्शन इकोनॉमिक्स फोरकास्टिंग के डेविड कोहेन का कहना है, वैश्विक अर्थव्यवस्था में आ रही सुस्ती को देखते हुए निवेशकों ने सांस रोक रखी है। लोग उम्मीद कर रहे हैं कि एक बार यूरोजोन की सारी राजनीतिक आशंकाएं खत्म हो जाएं और अमरीका के वित्तीय मुद्दे हल हो जाएं तो बाजार को वैश्विक अर्थव्यवस्था में विकास का सहारा मिलेगा। उनका कहना है, लेकिन अमरीका के बाहर के पिछले दो हफ्तों के आंकड़े निराशा पैदा करने वाले रहे हैं और इसने चिंता जगायी है कि अमरीका में मंदी से उबरने की गति उससे कहीं अधिक धीमी होगी जितना लोग अनुमान लगा रहे थे। पिछले कुछ समय से कई यूरोपीय देश कर्ज चुकाने के संकट से जूझ रहे हैं और चिंता जताई जा रही है कि स्पेन और इटली भी इसकी चपेट में आ सकते हैं। इटली यूरोजोन की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है। हालांकि बीते सोमवार अमरीका में कर्ज लेने की सीमा को बढ़ाने को लेकर हुए समझौते का विश्व अर्थव्यवस्था और शेयर बाजारों पर सकारात्मक असर देखने को मिला था। अमरीका के ऋण संकट को लेकर समझौते ने पूरी दुनिया के बाजार को राहत दी थी। यूरोप में सरकारों की ऋण संबंधी समस्याओं, बैंकों पर दबाव और विकास दर कमजोर होने की संभावनाओं की वजह से यूरोप शेयर बाजार के व्यापारियों की चिंता का केंद्र बन गया है। इसी कारण यूरोपीय शेयर बाजारों में बैंकों के शेयरों में खास गिरावट देखने को मिली है। और यही हाल रहा तो आने वाले समय में यूरोप में आयात की मांग घटेगी। अमरीकी शेयर बाजार में 80 प्रतिशत शेयर 10 प्रतिशत दौलतमंद अमरीकियों के हैं। वहां के 20 प्रतिशत कुल राष्ट्रीय खर्च के 40 प्रतिशत के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। शेयरों की कीमतों में गिरावट का मतलब उनकी दौलत में गिरावट है।अमरीकी बाजारों का सीधा असर एशियाई और भारतीय शेयर बाजारों पर देखने को मिल रहा है। शुक्रवार की दोपहर बीएसई सेंसेक्स 480 अंकों से ज्यादा नीचे आ चुका है। सभी सेक्टोरियल इंडेक्स भारी गिरावट पर कारोबार कर रहे हैं। मेटल और आई टी सेक्टर तकरीबन 4 फीसदी टूट चुका है। वहीं एनएसई का निफ्टी भी 144 अंकों का गोता लगाकर 5188 पर बना हुआ है। एक अर्थशास्त्री माइकल नीमिरा ने कहा कि शेयरों के भावों में गिरावट का अर्थव्यवस्था पर असर पडऩा स्वाभाविक है। तेल और खाद्य पदार्थों के बढ़ते दाम से उपभोक्ता परेशान हैं।

नये कानून से सिकुड़ जायेगा खाद्य सुरक्षा अधिकार का आधार

हरिराम पाण्डेय
4 अगस्त 2011
खाद्य सुरक्षा विधेयक जल्दी पारित होकर कानून बनने वाला है। इस विधेयक पर विचार के लिए गठित मंत्रियों के समूह ने इसे मंजूरी दे दी है। वर्तमान में देश में खाद्यान्नों के विशाल सुरक्षित भंडार जमा हैं और बड़े पैमाने पर खाद्यान्नों का निर्यात किए जाने की ही तैयारियां हो रही हैं। इस विधेयक का उद्देश्य है कि देश में! कुपोषण के शिकार हो रहे लोगों को उचित पोषण मिले। लेकिन सरकार ऐसा करने में विफल रही है। सच तो यह है कि प्रस्तावित विधेयक जितना देगा, उससे ज्यादा तो छीन ही लेगा।
पहली बात तो यह है कि अब तक लागू सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत, गरीबी की रेखा के नीचे तथा गरीबी की रेखा के ऊपर (एपीएल तथा बीपीएल) की श्रेणियों में कुल मिलाकर, 82 प्रतिशत परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में थे। लेकिन प्रस्तावित विधेयक इस हिस्से को घटाकर, ग्रामीण क्षेत्र में 75 प्र.श. और शहरी क्षेत्र में 50 प्र.श. परिवारों तक ही सीमित कर देता है। वास्तव में इस विधेयक में योजना आयोग के बहुत ही संदिग्ध आकलन को मंजूरी दे दी गयी है। इसमें कहा गया है कि ग्रामीण भारत के 75 प्र.श. और शहरी भारत के 50 प्र.श. को ही इस खाद्य सुरक्षा के दायरे में रखा जाएगा। यानी ग्रामीण भारत के कम से कम 25 प्र.श. और शहरी भारत के 50 प्र.श. को तो इस विधेयक के दायरे से बाहर ही छोड़ा जाना है। इस संदर्भ में यह कहना पड़ेगा कि सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने, जिसमें खाद्य अधिकार मुहिम के अनेक कार्यकर्ता भी शामिल हैं, योजना आयोग की पूरी तरह से संदिग्ध पद्धति को कानूनी हैसियत देना मंजूर कर और राज्यों को गरीबी के लिए कोटा तय किए जाने के लिए मंजूरी देकर, खाद्य सुरक्षा की अवधारणा को ही भारी चोट पहुंचायी है। इस संदर्भ में यह याद रखना भी जरूरी है कि 2010 के फरवरी में हुए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में खाद्य मंत्रालय द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार, गरीबी की रेखा के ऊपर के कार्डधारक परिवारों की कुल संख्या 11.51 करोड़ थी। इसे विडंबनापूर्ण ही कहा जाएगा कि प्रस्तावित विधेयक तैयार करने वाली सरकार ने ही लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में आने वाले, गरीबी की रेखा के नीचे तथा गरीबी की रेखा के स्वीकार्य परिवारों (राज्य सरकारों के अस्वीकार्य अनुमानों के विपरीत) की संख्या 18.03 करोड़ स्वीकार की थी।
अगर हम 2001 की आबादी के आधार पर हिसाब लगाएं (जिसका वास्तव में 1991 की आबादी के आधार पर अनुमान लगाया गया था), जिसके आधार पर केंद्र सरकार हिसाब लगाती आई है, तो यह संख्या उस समय की कुल आबादी के 90 प्र.श. हिस्से से ज्यादा हो जाती है। अगर हम 2010 की जनगणना के आंकड़ों (22 करोड़ परिवार) को ही लें तब भी इसका अर्थ हुआ कि करीब 82 प्र.श. परिवार तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में पहले से ही थे। इसलिए विधेयक में ग्रामीण भारत में 75 प्र.श. और शहरी भारत में 50 प्र.श. परिवारों के लिए ही खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का लक्ष्य रखे जाने का एक ही अर्थ है कि गरीबी की रेखा के नीचे की श्रेणी के लाखों परिवारों को उन्हें अब तक हासिल लाभों से भी वंचित किया जाय और बड़ी संख्या में गरीबी की रेखा के ऊपर की श्रेणी के कार्डधारकों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे से ही बाहर कर दिया जाय।
वास्तव में इस विधेयक का खाका ही समस्यापूर्ण है, क्योंकि प्रस्तावित विधेयक के विभिन्न प्रावधानों के जरिए केंद्र्र खाद्य सुरक्षा के मामले में सर्वोच्च शक्तियां खुद हथियाने की कोशिश कर रहा है। शक्तियों के इस अतिकेंद्र्रीकरण के पीछे मकसद यही है कि नव उदारवादी नीतियों को संस्थागत रूप दिया जाय और गरीबों को मिलने वाले लाभ को घटाकर नगदी के लेनदेन को बढ़ाया जाय। इससे संभवत: खद्य सुरक्षा के अंतर्गत गरीबों! को मिलने वाले अधिकारों का आधार सिकुड़ जायेगा।

Sunday, August 14, 2011

ANNA’S FAST AND GOVERNMENT’S REACTION



Hari Ram Pandey
The Anna Hazare resolve to go on a fast unto death from August 16 in support of the demand of the anti-corruption movement headed by him for a stronger Jan Lok Pal Bill than the one introduced by the Government in the Parliament pose an executive and moral dilemma to the Government .
The executive dilemma arises from the fact that an attempt to commit a suicide for whatever purpose is a criminal offence and the Government is legally bound to act against the threatened fast, if necessary by arresting Anna Hazare either before or during his fast in order to save his life and to prevent a public disorder. The executive dilemma is enhanced by the danger that the act of saving his life might be interpreted as a violation of his right to protest and might lead to an even greater public disorder.
The moral dilemma arises from the fact that a fast unto death as a form of protest has been an accepted weapon since the days of Mahatma Gandhi. It was a unique non-violent weapon used by Mahatma Gandhi under unique circumstances. At that time India was under foreign rulers and did not have a democratic set-up.
Anna Hazare and his followers have been carrying on their protest in an independent and democratic India where various forms of democratic mobilisation and advocacy are available to them. They have been making use of these forms in order to educate the public on their demands and to bring moral pressure on the Government to accept the legitimacy of their demands. If the Government has not accepted the legitimacy of some of their demands, it is because it thinks that it will not be in the national interest to accept them and that those demands could be counter-productive.
A democratically-elected Government has the right to decide what is workable and what is not and what is in the national interest and what is not. If one is not in agreement with the views of the Government, one has the right to continue with the campaign of mobilisation and advocacy in the hope that the Government might be made to relent in its stand.
But one does not have the right to intimidate the Government into conceding one’s demands by threatening to use a weapon which might have been morally justifiable under the then existing circumstances during the British rule, but is no longer so under an independent and democratic dispensation. The Government has a legal obligation to prevent any attempt to commit a suicide and this obligation cannot be diluted because of the moral force of the demands of Anna Hazare and his followers for stronger action against corruption. Even a morally justifiable demand cannot be sought to be achieved through legally impermissible means.
Under our Constitution and our laws, every citizen has a right to protest, but not by adopting any means. While protesting, the existing laws have to be observed and any attempt at seeming intimidation avoided. The Government has to exercise its legal responsibility by preventing Anna Hazare from carrying out his threat to die through fasting. Whether that obligation should be exercised by arresting him before he starts his fast or by allowing him to fast for some time to satisfy his conscience and then arrest him is a matter for the Government to decide on the basis of its judgement regarding likely dangers to public order under different options.
It has to be admitted that there is considerable public support for Anna Hazare’s proposed fast because large sections of the public are not convinced of the sincerity of the Government’s proclaimed determination to end corruption. The executive responsibility of the Government to maintain law and order has not been matched by an exercise of its moral responsibility to convince the public of the sincerity of its determination to end corruption.
It is important for the Prime Minister even at this last moment to address the public on the issue of corruption through the electronic media and through a press conference devoted exclusively to public concerns over corruption.
An over-focus on the executive dimensions of the problem while neglecting the moral dimensions of it will maintain and exacerbate the existing tensions on this issue.

Tuesday, August 2, 2011

अमरीका का संकट : भारत के लिये अवसर

हरिराम पाण्डेय
2 अगस्त 2011
अमरीका भले ही दुनिया का सबसे धनी देश है, लेकिन अगले साल जुलाई में होने वाले राष्टï्रपति चुनाव की गहमागहमी और उसकी प्रदूषित राजनीति ने वहां की अर्थव्यवस्था का चीर हरण कर लिया है। अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि यहां के दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों - सत्ताधारी डेमोके्रट्स और मुख्य प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकन्स के बीच यदि यों ही बंदरबांट का खेल चलता रहा, तो संभव है कि चीन जल्दी ही अमरीका की अर्थव्यवस्था पर हावी हो जाए। फिलहाल वह दूसरे पायदान पर खड़ा है। कर्ज संकट के चलते अमरीकी अर्थव्यवस्था में उथल - पुथल की आशंका से पूरी दुनिया में बेचैनी है। बहुत सारे मुल्क परेशान हैं कि अगर अमरीका अपना कर्ज चुकता करने या उसकी अदायगी की सीमा बढ़ाने में कभी नाकाम रहा, तो जो महामंदी आएगी, वह कैसी होगी। फिलहाल कर्ज संकट से निकलने के जो उपाय अमरीकी नीति - नियंता कर रहे हैं, उससे तात्कालिक तौर पर थोड़ी राहत जरूर मिलेगी। लेकिन अब इस तरह के संकटों से चीन और भारत जैसे देशों को बहुत ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। वे अमरीकी अर्थव्यवस्था में आने वाली उथल - पुथल को अपने लिए अवसर में बदल लेने में समर्थ हो चुके हैं। पिछले चार साल से अमरीका को मंदी ने घेर रखा है। इससे अर्थव्यवस्था में सुधार आना तो दूर, यहां कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अर्थात् कुल आमदनी में भी वृद्धि नहीं हो रही है। पर खर्चे ज्यों के त्यों बने हुए हैं। उस पर भी तेवर चढ़े हुए हैं। अब जब राष्टï्रपति का चुनाव सिर पर आन खड़ा हुआ है, तो परंपरावादियों की और धन कुबेरों की ग्रैंड ओल्ड पार्टी - जीओपी आम आदमी से जुड़ी ओबामा की डेमोक्रेट सरकार को आने वाले चुनाव में जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए चाणक्य की तरह चालें चल रही है।
अब यह किसी से छिपा नहीं है कि अफगानिस्तान और इराक के दो युद्धों में खरबों डॉलर झोंक देने वाली दोनों ही दलों की सरकारों ने (पहले रिपब्लिकन और फिर डेमोक्रेट्स ने) नाक के सवाल के नाम पर यहां की आम जनता के हितों की ही कुर्बानी दी है। ओबामा के 30 माह के कार्यकाल में करीब सवा खरब डॉलर अतिरिक्त व्यय हुआ है। इस खर्च का अमरीकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में कोई उपयोग नहीं हुआ। हां , इसने रिपब्लिकन नेताओं को ओबामा की नीतियों की आलोचना का एक कारगर मुद्दा जरूर दे दिया है। हालांकि सच तो यह है, और इसे वे भी जानते हैं कि इराक और अफगानिस्तान में युद्ध की आग उन्हीं की लगायी हुई है। निवेश के सुरक्षित ठिकाने के तौर पर अमरीकी अर्थव्यवस्था में उसका भरोसा तो पहले ही टूट चुका था, अब यूरोपीय देश भी अमरीका की गलतियों की कोई भरपाई खुद करने से कतरा रहे हैं। वे अपने निवेशकों को नए ठिकाने खोजने और अमरीका से व्यापार के मामले में भी सावधानी बरतने की ताकीद कर रहे हैं। वह दौर खत्म हो रहा है, जब भारी - भरकम निवेश, निर्यातकों के विशाल बाजार और वित्तीय प्रणाली को नई दिशा देने के मामले में अमरीका सबका अगुआ था। लोगों को भरोसा था कि राष्टï्रभक्ति और राजनीति के नाम पर दोनों दल किसी तरह जोड़ - तोड़ कर ऐसे किसी समझौते पर पहुंच ही जाएंगे। लेकिन कर्ज से दबी यह अर्थव्यवस्था और ऊंची नाक वाला मिजाज कब तक इस देश को नंबर वन की कुर्सी पर बैठने देगा। इससे भारत जैसे देशों के लिए नए अवसर पैदा हुए हैं। उनके लिए मौका यह है कि जो निवेश इधर अमरीकी डॉलर की फीकी पड़ती चमक के कारण सोने और स्विस फ्रैंक में बढऩा शुरू हुआ है , उसे वे अपने टिकाऊ बाजारों की तरफ मोड़ लें। पर इसके लिए जरूरी है कि भारत इस निवेश को खींचने के उपाय करने के साथ - साथ अमरीकी बाजारों पर निर्भर अपने निर्यात के लिए भी नए ठिकाने खोजे।

यूरोप के संघर्ष से भारत को सचेत रहने की जरूरत

हरिराम पाण्डेय
1 अगस्त 2011
अपने उदारवादी सोच पर फख्र करने वाले यूरोप के नार्वे की घटना इस बात का संकेत है कि यूरोप में दक्षिणपंथ तेजी से जड़ जमाता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न यूरोपीय देशों की सियासत में तेजी से जगह बना रहे दक्षिणपंथियों ने अपने देश के प्रवासियों, खासकर मुसलमानों के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। वे सांस्कृतिक शुद्धता के हिमायती हैं और उनका मानना है कि बहुसंस्कृतिवाद की अवधारणा चल नहीं सकती। यह कैसी विडंबना है कि पूरी दुनिया को जनतंत्र, उदारता और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाला यूरोप आज नफरत और हिंसा की गिरफ्त में फंसता जा रहा है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में यूरोप में हुए सामाजिक-राजनीतिक बदलाव ने आम यूरोपीय के सोच पर गहरा असर डाला है। यूरोप के एकीकरण से कई जगहों पर रोजगार का संकट उठ खड़ा हुआ है। फिर सीमाओं की समाप्ति और बाहरी लोगों के वहां बसने से मूल नागरिकों में असुरक्षा का भाव पैदा हो रहा है। वहां पहुंचे एशियाइयों, खासकर मुसलमानों के बारे में कहा जाता है कि वे वहां के समाज में घुल-मिल नहीं पाए हैं। इससे उन्हें लेकर वहां के मूल निवासियों में संदेह बना रहता है। ऊपर से दुनिया में जहां-तहां होने वाली आतंकवादी घटनाओं से यह शक और बढ़ता है। यूरोपीय लोगों के भीतर के संदेह और भय का कुछ राजनीतिक दल दोहन कर रहे हैं। उन्होंने यूरो, मुक्त व्यापार और बहुसंस्कृतिवाद के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है और असुरक्षा की भावना से ग्रस्त लोग उन्हें समर्थन भी दे रहे हैं। सच तो यह है कि यूरोप ने जिस बहुसंस्कृतिवाद की कटार से भारतीय उपमहाद्वीप के जिगर को टुकड़ों में काट डाला आज वही कटार उसके कलेजे के लहू से लथपथ है।
नॉर्वे में कत्लेआम के बाद एक प्रसिद्ध यूरोपीय पत्रिका में एक कार्टून छपा। जिसकी लगभग पूरे यूरोप में व्यापक चर्चा हुई। उस कार्टून में एक जंगली को एके-47 लिए हुए दिखाया गया था। यह सांकेतिक कार्टून आधुनिक इंसान के भीतर जाग उठे दरिंदे की ओर इशारा करता था और इस बात की ताईद करता था कि सभ्यता का इतना लंबा सफर भी इस जंगलीपन को काबू नहीं कर पाया है, बल्कि इसने वहशीपन को ज्यादा मारक हथियार दे दिये हैं। लेकिन हकीकत यह नहीं है। अगर किसी जंगली को एके-47 थमा दें तो भी वह दर्जनों लोगों की जान नहीं लेगा। वह तभी कत्लेआम पर उतारू होगा, जब उसे अपनी जान पर खतरा दिखेगा। लेकिन जंगलियों से ब्रिविक की तुलना नहीं की जा सकती। अफसोस कि यह मॉडर्न इंसान की ही फितरत है कि वह विचारधारा के नाम पर बेशुमार कत्ल कर सकता है। पता नहीं आप सहमत हों या नहीं लेकिन विचारधारा इंसानियत की सबसे बड़ी ईजाद है- एटम बम से भी बड़ी और उससे ज्यादा जानलेवा। विचारधारा वह तेल है, जिससे इंसानियत की ट्रेन चलती है। हम अच्छे या बुरे जो भी हैं, इसी की वजह से हैं। विचारधारा हमें मकसद देती है, वह हमें जीना सिखाती है और मरने की ताकत देती है। वह हमें स्वर्ग और नरक देती है, वह हमें गुलामी और आजादी देती है, उनमें फर्क करने का तमीज देती है, हमें उस दुनिया को तरतीब देने का मौका देती है, जिसमें हम धकेल दिए गए हैं। भारत का बंटवारा यूरोप की उसी नफरत भरी विचारधारा का नतीजा था। आज भी आखिर क्या वजह है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति निकोला सारकोजी बाहरी लोगों के महत्व को स्वीकार करते हुए भी यह कहने लगे हैं कि बहुसंस्कृतिवाद विफल हो रहा है।
लिहाजा इंसानियत के सामने सवाल यह है कि वे कौन सी कसौटियां हैं, जिन पर विचारधारा के बीच सही और गलत का फर्क किया जा सकता है? यह फैसला करना इसलिए जरूरी है कि हम सब कभी न कभी किसी विचार का साथ देते हैं और हमारे भीतर भी सही-गलत को चुनने की लड़ाई चलती है। भारत भी कई तरह की विचारधारा की जंग में उलझा है। धर्म के नाम पर, लाल क्रांति के नाम पर, जाति और पहचान के नाम पर या फिर देश के ही नाम पर कितनी ही लड़ाइयां चल रही हैं। क्या कोई फारमूला है, जो हमें सही विचारधारा चुनने में मदद करता है? जिन्होंने इतिहास पढ़ा होगा उन्हें मालूम होगा कि अबतक दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को जिन विचारधाराओं ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है वे वही हैं जो हिंसा को बढ़ावा नहीं देती थीं, प्यार और बराबरी की वकालत करती थीं , जन्नत के सपने नहीं दिखाती थीं और अतीत की नहीं भविष्य की बात करती थीं।
आज भी सभी विचारधाराएं इन चारों पैमानों में आंकी जा सकती हैं और आंकी भी जा रही हैं। यही वजह है कि सारी दुनिया में लगभग एक जैसे पैमानों पर चलने के एक जैसे तरीके ईजाद किए जा रहे हैं, जैसे लोकतंत्र, आजादी, भाईचारा, शांति और तरक्की। कोई विचारधारा एकदम सही नहीं होती, क्योंकि दुनिया का हिसाब-किताब और इंसान की फितरत इतनी उलझी हुई चीज है कि कोई एक फारमूला उसे पूरा-पूरा बयान नहीं कर पाता। जिस राह पर दुनिया चल रही है, उसमें भी कई खामियां हो सकती हैं और दिख भी रही हैं। लेकिन जो भी विचारधारा इसकी जगह लेने का दावा करेगी, उसे इससे बेहतर होना होगा। इस जहरीली हवा का असर भारत में भी हो सकता है इसलिये हमें सचेत रहने की जरूरत है।

अण्णा संसद को पहले अपना काम तो करने दें

हरिराम पाण्डेय
31 जुलाई 2011

सरकार ने अण्णा हजारे के अनशन पर रोक लगाने के लिये कई तरह की अड़चनें लगा दीं। उसे भी शायद लग रहा था कि अगर अण्णा हजारे को अनशन करने दिया गया तो समस्या जटिल हो जायेगी। अतएव टीम अण्णा से कहा गया कि वो जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन के लिए पहले नयी दिल्ली नगरपालिका परिषद (एनडीएमसी) से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) लें। जंतर मंतर पर अनशन के लिए अटल अण्णा हजारे ने सरकार को चुनौती दी है कि वो हर कीमत पर आंदोलन के लिए तैयार हैं। वहीं अनशन की इजाजत देने से मना कर मुसीबत मोल लेने वाली दिल्ली पुलिस बचाव की मुद्रा में आ गयी है। पुलिस ने टीम अण्णा को चि_ी लिखकर कहा है कि यदि उनका अनशन सिर्फ एक दिन का हो और इस दौरान 2000 से अधिक लोग जमा नहीं हों तो उन्हें प्रदर्शन की इजाजत दी जा सकती है। मजबूत लोकपाल की मांग को लेकर 16 अगस्त से जंतर-मंतर पर अनशन की तैयारियों में जुटे अण्णा हजारे को दिल्ली पुलिस ने इससे पहले साफ कह दिया था कि वह जंतर-मंतर पर बेमियादी अनशन नहीं कर सकते। पुलिस ने उनसे कहा कि या तो वह अपने आंदोलन के लिए दिल्ली के बाहर कोई जगह चुन लें या फिर पहले से कार्यक्रम बता कर आंदोलन के लिए इजाजत मांगें। संसद के मानसून सत्र के दौरान सदन के आसपास अण्णा धरना-प्रदर्शन नहीं कर सकें, इसके लिए धारा 144 लागू करने के आदेश भी दिये गये हैं। लेकिन अण्णा का कहना है कि शांतिपूूर्वक प्रदर्शन करना उनका हक है और वह मनाही के बावजूद अनशन करेंगे।
यह नहीं पता कि बीजेपी और अन्य दलों का लोकपाल बिल के मामले में क्या रुख है। बिल संसद में आयेगा तभी पता चलेगा। लेकिन उससे पहले अण्णा हजारे के अगले कदम का इंतजार है। उम्मीद है कि अण्णा की टीम सुप्रीम कोर्ट में जायेगी और शांतिपूर्ण तरीके से प्रतिवाद करने के अपने अधिकार की बहाली की मांग करेगी। यह सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही सक्रिय होती है। अब सवाल उठता है कि अण्णा हजारे को भी 16 अगस्त से फिर से आंदोलन करने की आवश्यकता क्यों लग रही है? यह सही है कि उन्होंने कहा था कि यदि 15 अगस्त तक लोकपाल विधेयक पारित नहीं होता है तो वे फिर से आंदोलन की राह अपनाएंगे, लेकिन क्या यह भी सही नहीं है कि सरकार ने संसद के मानसून सत्र में ही लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करना स्वीकार कर लिया है? यही नहीं, सर्वदलीय बैठक में सभी दलों ने मजबूत लोकपाल विधेयक का समर्थन करने की शपथ भी ली है। बैठक में प्रधानमंत्री द्वारा प्रस्तुत इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया कि संसद के अगले सत्र में मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल विधेयक प्रस्तुत किया जाएगा। हां, प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि विधेयक प्रस्तुत करने का यह काम निश्चित प्रक्रियाओं के अनुसार ही किया जायेगा।
इस घोषणा के बाद लोकपाल विधेयक को लेकर किसी आंदोलन की बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता। हां, यदि विधेयक पारित होने के बाद अण्णा हजारे के प्रतिनिधित्व वाली सिविल सोसायटी को अथवा अन्य किसी को भी यह लगता है कि पारित विधेयक अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है और अपर्याप्त है तो उसे इस बात का पूरा अधिकार है कि वह अपनी बात के समर्थन में जनमत बनाने की कोशिश करे।
यह बात सही है कि सिविल सोसायटी द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक और सरकार द्वारा रखे गए विधेयक में अंतर है, लेकिन यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि विधेयक पर संसद में बहस होनी है। निश्चित रूप से बहस के दौरान अभी कई संशोधन और रखे जाएंगे और निर्धारित प्रक्रियाओं के अनुसार ही कानून बनेगा। ऐसी स्थिति में किसी आंदोलन की धमकी देने के बजाय अण्णा हजारे और उनके सहयोगियों को अपने प्रस्तावित विधेयक के समर्थन में जनमत तैयार करना चाहिए। इस जनमत के जरिए सरकार और सभी राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना चाहिए कि जो मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल विधेयक वे पारित करना चाहते हैं, वह जनमत के अनुरूप हो। दुर्भाग्य से यह जनमत बनाने की कोई कोशिश होती नहीं दिखायी पड़ रही। बहरहाल, जहां तक लोकपाल विधेयक का सवाल है, एक मजबूत और प्रभावकारी विधेयक का पारित होना आज की जरूरत है। लेकिन कोई भी कानून स्वीकृत जनतांत्रिक प्रक्रिया से ही पारित होना चाहिए। यह काम संसद का है। संसद को ही इसे अंजाम देना होगा। सिविल सोसायटी को यह भी देखना चाहिए कि हमारे सांसद जनहित के मुद्दों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचें। वे जन जागृति के लिए आंदोलन चलाएं, राजनेताओं को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए आंदोलन चलाएं। अण्णा, 16 अगस्त को ऐसा आंदोलन शुरू करें, तो पूरा देश उनके साथ होगा।

येदियुरप्पा की विदाई से भाजपा को मिला एक मौका

हरिराम पाण्डेय
30 जुलाई 2011

लोकायुक्त संतोष हेगड़े की रिपोर्ट में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी. एस. येदियुरप्पा को दोषी बताया गया। इसके फौरन बाद भाजपा आलाकमान ने उनसे पद छोडऩे को कह दिया। पार्टी का यह कदम सही था क्योंकि पार्टी शायद पहले ही इस मामले में कार्रवाई करने में काफी देर कर चुकी है। हालांकि भाजपा पूरी तरह से कन्फ्यूज्ड पार्टी है। यह भी कहा जा सकता है कि अंतर्कलह से जूझ रही इस पार्टी के टॉप नेता आपस में ही लड़ रहे हैं। इसलिए पार्टी किसी भी मुद्दे पर विश्वसनीय रूप से आक्रामक नहीं दिख पाती है फिर भी उसने येदियुरप्पा पर इतनी जल्दी कार्रवाई का फैसला किया यह हैरत की बात है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जल्दी ही यूपीए कई राष्टïीय मुद्दों से घिरने वाली है और ऐसे में उसने एक क्षेत्रीय मुद्दे पर भाजपा को बेहतर तरीके से किनारे लगा दिया। वैसे, हकीकत तो यह है कि केंद्र में सत्ताधारी गठबंधन जिन मुद्दों पर भी खुद को फंसा हुआ पा रहा है उसमें ज्यादा योगदान मीडिया के दबाव का है। पार्टी के इस फैसले पर शक्तिशाली येदियुरप्पा पार्टी आलाकमान को चुनौती देते हुए बागी बनने की धमकी देते रहे, हालांकि कुछ घंटों में ही वह पस्त हो गये। इससे पता चलता है कि क्षत्रपों पर पार्टी आलाकमान का कितना नियंत्रण रह गया है। पार्टी के महारथियों द्वारा दिल्ली तलब किए जाने के बावजूद वह खुलेआम खुद भी नाफरमानी कर रहे और अपने समर्थकों को भी ऐसा करने के लिए उकसाते रहे। मजबूरन पार्टी को चेतावनी जारी करनी पड़ी कि वह 12 घंटे में कुर्सी छोड़ें या फिर उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। अल्टिमेटम की अवधि के अंदर ही उन्होंने बात मान ली, इससे क्षत्रपों के बागी तेवर झेलने की आदी हो चुकी भाजपा ने जरूर राहत की सांस ली होगी।
यह तो जाहिर है कि येदियुरप्पा को हटाने का फैसला भाजपा ने पहले ही बहुत देर से लिया है। इसलिए ऊपर से नीचे तक के पार्टी के लोगों के यह चिल्लाने का कोई मतलब नहीं कि येिदयुरप्पा ने जो किया है वह पूर्व की सरकारें और मुख्यमंत्री भी करते रहे हैं और सिर्फ येदियुरप्पा को दोष देना सही नहीं होगा। आज जब सब जानते हैं कि राजनीति में यह पूर्वाग्रह का खेल है और येदियुरप्पा बहुत पहले ही भ्रष्ट नेता के तौर पर सामने आ चुके हैं, ऐसे में पार्टी को बहुत पहले ही इस दर्द पर मरहम लगाने का काम करना चाहिए था। फिर भी यह अच्छा हुआ कि आखिरकार यह फैसला लिया गया। अच्छा इसलिये कि अगर पार्टी में जरा भी राजनीतिक सूझ बूझ होगी वह संसद के अगले सत्र में सहयोगी दलों के साथ मिल कर कुछ बेहतर रणनीति के साथ अपनाएंगे। यूपीए सरकार जितने घोटालों से इस समय घिरी है, वहां भी हालात दिनों दिन बदतर होते जा रहे हैं। 2जी घोटाले का मामला और संदेहास्पद होता जा रहा है। यह तो स्वाभाविक है कि जब दबाव पड़ता है तो वे लोग भी अपना सब्र खो देते हैं, जिनसे चुप रहने की उम्मीद की जाती है। राजा का पिछले दिनों आया बयान भी यही दर्शाता है। उन्होंने बयान दिया कि बतौर टेलिकॉम मिनिस्टर उन्होंने जो भी फैसले किए, उनकी पूरी जानकारी तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों को थी।
ठीक ऐसे ही, कॉमनवेल्थ गेम्स में बलि चढ़े सुरेश कलमाडी को अचानक डिमेंशिया से पीडि़त बताया जा रहा है। ऐसे में संकेत यही जा रहे हैं कि कहीं यह सारा ड्रामा इस घोटाले में शामिल चार बड़े खिलाडिय़ों के नामों का खुलासा न होने देने के लिए तो नहीं है। लेकिन यहां भी, लगता है कि, अगर कलमाडी पर और दबाव पड़े तो वह अपनी चुप्पी तोड़ देंगे। और फिर, क्षेत्रीय स्तर पर, कांग्रेस के प्रादेशिक दिग्गजों पर भी कम बड़े कलंक नहीं हैं। दिल्ली में एक मिनिस्टर को लोकायुक्त की रिपोर्ट में तलब किया गया था, लेकिन पार्टी ने इस रिपोर्ट को दबा लिया। इसी तरह, एक केंद्रीय मंत्री को सुप्रीम कोर्ट के जज ने दोषी माना था, लेकिन वे अपने पद पर बने रहे और पार्टी आलाकमान की ओर से उन्हें हटाने की कोई कोशिश नहीं की गयी थी। इन सबके बाद अब अगर भाजपा ने अपनी ही पार्टी के सीएम को कुर्सी से उतार दिया है और इस कदम के बावजूद वह खुद पर नैतिक होने का तमगा न लगवा पायी हो तो यह ठोस सबूत है इस बात का कि पार्टी को अपने भीतर झांकने की जरूरत है।
लोकतंत्र में यह जरूरी है कि प्रमुख विपक्षी दल कुछ इस तरह से काम करे कि इसका असर पड़े। यह बड़ा ही भयावह होगा कि सत्ताधारी पार्टी देश को सरेआम लूट कर ले जाए और विपक्ष इस बारे में कुछ भी न कर पाए क्योंकि उसके पास कोई सामंजस्यपूर्ण रणनीति नहीं थी। अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो केवल एक ही कारण हो सकता है कि पार्टी जानती हो कि कई बड़े घोटालों के तार खुद इसके शासनकाल से भी जुड़े हैं।