भारत दुनिया में सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश का बचपन दाल जैसे खाद्य पदार्थ के अभाव में कुपोषण का शिकार होता जा रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के मुताबिक देश में 19.46 करोड़ लोग गंभीर कुपोषण के शिकार हैं साथ ही गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 39 प्रतिशत बच्चे इसके शिकार हैं। इन बच्चों को पोषाहार तो दूर भर पेट भोजन नहीं मिलता है। कुपोषण के शिकार बच्चे व्यस्क होकर मानसिक रूप से अक्षम हो जाते हैं ओर सही गलत का निर्णय करने में अशक्त होने के कारण कईै तरह के गलत कार्यों में फंस जाते हैं। विख्यात आचरण मनोविज्ञानी टॉनी ग्रांट के मुताबिक ‘कुपोषण के शिकार बच्चे नाकारात्मक आदर्शों के शिकार होते पाये गये हें और देशों में इसके ज्वलंत उदाहरण भी दिख रहे हैं।’ कुपोषण के विभिन्न कारणों पोषाहार की अनुपलब्धता प्रमुख कारण है। यह तो सर्वविदित है कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के बच्चों के लिये दाल सबसे अच्छा पोषाहार है। दाल में 23 प्रतिशत प्रोटीन होता है। लेकिन हमारे देश में विगत दो महीनों दाल की कीमतें आसमान छूने लगीं हैं। सिर्फ फिछले महीने दाल की कीमतों में 31.5 प्रतिशत वृद्धि हुई और दो महत्वपूर्ण दालों के मूल्य 170 रुपये और 190 रुपये पहुंच गये हैं। अ ब आप खुद सोचें कि देश के साधारण जन के लिये यह सुलभ है। एक तरफ हमारे नेता विदेशों ताल ठोक कर कह रहे हैं कि हमारा देश तेजी से बढ़ती हुई अर्थ व्यवस्थ है और दूसरी तरफ हमारे देश में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित लाग हैं। हालांकि भारत सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश है पर यहां मांग और आपूर्ति में भारी अंतर हैं सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2015-2016 में दाल का उत्पादन 1.76 करोड़ टन हुआ था जबकि मांग थी 2.35 करोड़ टन। इस अंतर को भरने के लिये हमारे यहां म्यांमार , कनाडा और अफ्रीका से दाल का आयात किया जाता है। पिछले साल 55 लाख टन अरहर की दाल का आयात हुआ था। इस वर्ष , कृषिमंत्री राम विलास पासवान के मुताबिक , 65 लाख टन दाल का आयात किया जायेगा। दरअसल, हमारे देश में कुल कृषि उत्पादन का महज 5 प्रतिशत दाल की खेती होती है। यह एक तरह से हाशिये पर होने वाली खेती है। दूसरी तरफ इसमें हर साल बीमारी लग जाती हे जिससे यह कभी हरित क्रांति के दायरे में आ नहीं सका। इसका उत्पादन नहीं बढ़ने का एक कारण यह भी है कि अरहर जैसी फसल एक साल में तैयार होती है और इस दौरान साल भर तक खेत फंसे रहते हैं जो कृषि के नजरिये से अलाभकारी है। यही नहीं दाल की फसल में उत्पादकता कम होती है आम तौर पर हमारे देश में एक हैक्टेयर में 600-800 किलोगह्राम दाल का उत्पादन होता है , जबकि विदेशों में 1400 किलो प्रति हेक्टेयर उत्पादन होता है। हमारे देश में कम उत्पादन का कारण बीज की गुणवत्ता का अभाव , उरवर्क की कमी, दलहन को लगने वाली बीमारी ओर सिंचाई की कमी है। साथ ही दुनिया भर में दालों की कीमत बढ़ रही है और साथ ही साथ इसकी मांग भी बढ़ती जा रही है, लिहाजा कीमतें भी बढ़ रहीं हैं। अक्सर दलहन का उत्पादन वर्षा से सिंचाई के भरोसे होते है, साथ ही मिट्टी भी उतनी अच्छी नहीं होती । क्योंकि अच्छी मिट्टी वाले खेतों में गेहूं, धान और गन्ना बोया जाता है। कृषि विज्ञानियों के अनुसार दलहन खास कर अरहर के पौदों में एक खास किस्म का गुण होता है। वे हवा से नाईट्रोजन लेकर जड़ों में संचय करते हैं जिससे खेतों की उर्वरशीलता बढ़ती है। अतएव इसमें जल की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं होती। हालांकि दालों का निम्नतम समर्थन मूल्य सरकार ने बढ़ा दिया है पर उत्पादकता को देखते हुये लोग उसकी खेती कम करते हैं और पानी की खपत वाले गेहूं धान की खेती पर ज्यादा ध्यान देते हैं। सरकार को चाहिये कि वह किसानों को दलहन की खेती के लिये प्रोत्साहित करे।
अगर बाजार के नजरिये से देखें तो चने के अलावा किसी भी दाल की वायदा बाजार में पैठ नहीं है इसलिये मूल्य प्रबंदान तथा हानि संशोधन के अभाव का जोखिम होता है। जिंस बाजार से अगर वायदा सौदा अलग हो जाय तो वह बड़ा अनिश्चित सा हो जाता है। वायदा सौदा दरअसल मूल्य चेतावनी प्रणाली का काम करता है। जब तक जमाखोरी ना हो तब तक बाजार मूल्य नहीं बढ़ते और अगर वायदा बाजार में मूल्य बढ़ते दिखते हैं तो इससे किसानों और आयातकों को लाभ होता है। अतएव दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिये एक पुख्ता नीति तथा प्रयास की जरूरत है। आयात करके जरूरत खत्म करने की नहीं।