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Wednesday, June 29, 2016

कुपोषण से ग्रस्त बचपन

भारत दुनिया में सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश का बचपन दाल जैसे खाद्य पदार्थ के अभाव में कुपोषण का शिकार होता जा रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के मुताबिक देश में 19.46 करोड़ लोग गंभीर कुपोषण के शिकार हैं साथ ही गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 39 प्रतिशत बच्चे इसके शिकार हैं। इन बच्चों को पोषाहार तो दूर भर पेट भोजन नहीं मिलता है। कुपोषण के शिकार बच्चे व्यस्क होकर मानसिक रूप से अक्षम हो जाते हैं ओर सही गलत का निर्णय करने में अशक्त होने के कारण कईै तरह के गलत कार्यों में फंस जाते हैं। विख्यात आचरण मनोविज्ञानी टॉनी ग्रांट के मुताबिक ‘कुपोषण के शिकार बच्चे नाकारात्मक आदर्शों के शिकार होते पाये गये हें और देशों में इसके ज्वलंत उदाहरण भी दिख रहे हैं।’ कुपोषण के विभिन्न कारणों पोषाहार की अनुपलब्धता प्रमुख कारण है। यह तो सर्वविदित है कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों के बच्चों के लिये दाल सबसे अच्छा पोषाहार है। दाल में  23 प्रतिशत प्रोटीन होता है। लेकिन हमारे देश में विगत दो महीनों दाल की कीमतें आसमान छूने लगीं हैं। सिर्फ फिछले महीने दाल की​ कीमतों में 31.5 प्रतिशत वृद्धि हुई और दो महत्वपूर्ण दालों के मूल्य 170 रुपये और 190 रुपये पहुंच गये हैं। अ    ब आप खुद सोचें कि देश के साधारण जन के लिये यह सुलभ है। एक तरफ हमारे नेता विदेशों ताल ठोक कर कह रहे हैं कि हमारा देश तेजी से बढ़ती हुई अर्थ व्यवस्थ है और दूसरी तरफ हमारे देश में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित लाग हैं। हालांकि भारत सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश है पर यहां मांग और आपूर्ति में भारी अंतर हैं सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2015-2016 में दाल का उत्पादन 1.76 करोड़ टन हुआ था जबकि मांग थी 2.35 करोड़ टन। इस अंतर को भरने के लिये हमारे यहां म्यांमार , कनाडा और अफ्रीका से दाल का आयात किया जाता है। पिछले साल 55 लाख टन अरहर की दाल का आयात हुआ था। इस वर्ष , कृषिमंत्री राम विलास पासवान के मुताबिक , 65 लाख टन दाल का आयात किया जायेगा। दरअसल,  हमारे देश में कुल कृषि उत्पादन का महज 5 प्रतिशत दाल की खेती होती है। यह एक तरह से हाशिये पर होने वाली खेती है। दूसरी तरफ इसमें हर साल बीमारी लग जाती हे जिससे यह कभी हरित क्रांति के दायरे में आ नहीं सका। इसका उत्पादन नहीं बढ़ने का एक कारण यह भी है कि अरहर जैसी फसल एक साल में तैयार होती है और इस दौरान साल भर तक खेत फंसे रहते हैं जो कृषि के नजरिये से अलाभकारी है। यही नहीं दाल की फसल में उत्पादकता कम होती है आम तौर पर हमारे देश में एक हैक्टेयर में 600-800 किलोगह्राम दाल का उत्पादन होता है , जबकि विदेशों में 1400 किलो प्रति हेक्टेयर उत्पादन होता है।  हमारे देश में कम उत्पादन का कारण बीज की गुणवत्ता का अभाव , उरवर्क की कमी, दलहन को लगने वाली बीमारी ओर सिंचाई की कमी है। साथ ही दुनिया भर में दालों की कीमत बढ़ रही है और साथ ही साथ इसकी मांग भी बढ़ती जा रही है, लिहाजा कीमतें भी बढ़ रहीं हैं। अक्सर दलहन का उत्पादन वर्षा से सिंचाई के भरोसे होते है, साथ ही मिट्टी भी उतनी अच्छी नहीं होती । क्योंकि अच्छी मिट्टी वाले खेतों में गेहूं, धान और गन्ना बोया जाता है। कृषि विज्ञानियों के अनुसार दलहन खास कर अरहर के पौदों में एक खास किस्म का गुण होता है। वे हवा से नाईट्रोजन लेकर जड़ों में संचय करते हैं जिससे खेतों की उर्वरशीलता बढ़ती है। अतएव इसमें जल की बहुत ज्यादा जरूरत नहीं होती। हालांकि दालों का निम्नतम समर्थन मूल्य सरकार ने बढ़ा दिया है पर उत्पादकता को देखते हुये लोग उसकी खेती कम करते हैं और पानी की खपत वाले गेहूं धान की खेती पर ज्यादा ध्यान देते हैं। सरकार को चाहिये कि वह किसानों को दलहन की खेती के लिये प्रोत्साहित करे।

अगर बाजार के नजरिये से देखें तो चने के अलावा किसी भी दाल की वायदा बाजार में पैठ नहीं है इसलिये मूल्य प्रबंदान तथा हानि संशोधन के अभाव का जोखिम होता है। जिंस बाजार से अगर वायदा सौदा अलग हो जाय तो वह बड़ा अनिश्चित सा हो जाता है। वायदा सौदा दरअसल मूल्य चेतावनी प्रणाली का काम करता है। जब तक जमाखोरी ना हो तब तक बाजार मूल्य नहीं बढ़ते और अगर वायदा बाजार में  मूल्य बढ़ते दिखते हैं तो इससे किसानों और आयातकों को लाभ होता है। अतएव दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिये एक पुख्ता नीति तथा प्रयास की जरूरत है। आयात करके जरूरत खत्म करने  की नहीं।

Monday, June 27, 2016

दुखद अलगाव

कितना अजीब लगता है जब कुछ ऐसी घटना होती है जिसके बारे में सोचना भी कठिन लगता था। कौन जानता था या किसको इसका अनुमान था कि 4 दशक के बाद इंगलैंड यूरोपीयन यूनियन से अलग हो जायेगा। उस र्सघ में शामिल अन्य देश जो ना केवल इंगलैंड की अर्थ व्यवस्था को मदद देते थे बल्कि समाज व्यवस्था ओर अन्य क्षेत्रो में भी सहायक थे। यही नहीं इंगलैंड की जनता अपने देश ओर दुनिया के अन्य भागों के अर्थशा​िस्त्रयों  , अपनी सरकार और अन्य लोगों को अनसुना कर संघ से अलग होने के लिये वोट डालेगी और अकेले ही एक अज्ञात राह पर चल पड़ेगी। नतीजा क्या होगा यह तो आने वाला समय बतायेगा पर एक बार फिर इंगलैंड और उससे आर्थिक सम्बंध रखने वाले दुनिया के देश मंदी के महापंक में फंस जायेंगे। उसका सबसे पहला लक्षण 30 वर्षों  में पौंड की कीमत में भारी गिरावट। इसका प्रतिफल होगा रोजगार का अभाव, आमदनी की कमी और सरकारी खर्चों में भारी कटौती। इसका असर दुनिया भर की अर्थ व्यवस्था पर पड़ सकता है। इसके अलावा जिस संघ ने संघबद्ध हो कर यूरोप और अन्य महादेशों में 5 दशक तक शांति कायम रखी आज वह छिन्न भिन्न हो गया। यह कोई निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि इंगलैंड को इससे अलग होने में कितना वक्त लगेगा। क्योंकि अभी सरहदें तय होंगी, राष्ट्रीयता का मसला छिड़ेगा और उसके राष्ट्रीय शौर्यभाव का बखेड़ा होगा। जैसा कश्मीर में भारत पाक के बीच चल रहा है। इन्हीं अंग्रेजों ने भारत को यह अभिशप्त स्थिति में लाकर खड़ा किया था आज वह इससे दो चार होने जा रहा है।  अब यहां दो सवाल हैं जिनपर शायद कोई विचार नहीं कर रहा। वे सवाल हैं कि एक समाजाशास्त्री की निगाह में ब्रिटेन और यूरोप के लिये इस जनमत संग्रह के मायने क्या होंगे और अब आगे क्या होगा?

अगर गहराई से देखें तो ब्रिटेन के लिये इसका अर्थ है व्यवस्था पर गुस्सा। कैमरून से लेकर ओबामा तक, आई एम एफ से लेकर नाटो तक सबने ब्रिटेनवासियों से अपील की थी कि वे संघबद्ध रहें पर ब्रिटेनवासियों ने अलग होने के लिये वोट डाले। द टाइम्स अखबार के ‘मुताबिक ब्रिटेनवासियों ने यूरो क्षेत्र की भंगुर अर्थ व्यवस्था और ब्रुसेल्स में लाकतंत्र के छीजन से वे कुपित थे इसी ने साथ विदेशियों के अबाध प्रवाह के कारण आर्थिक स्त्रोतो की घटती उपलब्धता से भी वे क्रोध में थे।’ लेकिन शायद ऐसा नहीं है क्योंकि अगर वह यानी ब्रिटेन रोक लगाता है तो वह संघ के बदले एकाकी अर्थ व्यवस्था में बदल जायेगा। जिसका नतीजा और खराब होगा। यही नहीं प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन में भी वह काबिलियत नजर नहीं आयी जो ऐसे संवेदनशील समय पर दिखनी चाहिये। उन्होंने अपनी क्षमता का आकलन किये बगैर जनमत संग्रह की वकालत शुरू कर दी यही नहीं उन्होंने एक असफल अभियान का संचालन किया और जब इंगलैंड को अलग होने का समय आया तो खुद सत्ता से मुक्त हो गये। अब सारी जिम्मेदारी एक नये प्रधानमंत्री पर आ गयी और वह कौन होगा इसका अनुमान नहीं है।  लेकिन चाहे जो हो उसे संभवत: मुक्त बाजार व्यवस्था और प्रवासियों के आवागमन को बाधामुक्त करने की दिशा में काम करना होगा क्योंकि प्रवासी​ पूजी ही भारत की तरह ब्रिटिश अर्थ व्यवस्था को फलने फूलने में मददगार होगी। अगर यूरोपीयन यूनियन से लोग यहां नहीं आते हैं तो यहां शिक्षा और सेवा क्षेत्र में श्रमिकों का भारी अभाव हो जायेगा। इसलिये नये प्रधानमंत्री को बहुत संभल कर चलना होगा , क्योंकि जरा सी चूक उनपर देश को बेच देने का तोहमत चस्पां कर देने में मदद करेगी। इसलिये हरकदम पर उन्हें वोट डालने की बात आयेगी। यूरोपीय संघ में लोकतंत्र का मूल्य घटता देखा जा रहा है। नेता और अफसर जनता से दूर होते दिख रहे हैं। इसीलिये फ्रांस भी , जो कभी संघ का समर्थक था, संघ से विमुख होता नजर आ रहा है। वहां संघ से अलग होने के बारे में 38 प्रतिशत वोट पड़े। यह इंगलैंड से महज 6 प्रतिशत कम है। हर देश को अपनी तरह की पीड़ा है। कमजोर अर्थ व्यवस्था वाले देश जर्मनी और इटली लगातार दोष मढ़ रहे हैं। दुनिया भर केअखबारों में जनमत संग्रह के परिणामों का रोना है और सब कह रहे हैं कि ब्रिटेन अकेला पड़ा जायेगा। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि अगर ब्रिटेन एक लघु यूरोप की शक्ल में कायम रहेगा तो यह उसके लिये दुखद होगा और अगर फिर बड़े यूरोप की परिकल्पना हुई तो इस जनमतसंग्रह में अलग होने वाले क्या हासिल कर पायेंगे। यह एक कठिन स्थिति और इस स्थिति भारतीय उपमहाद्वीप  को सबक लेनी चाहिये और खासकर कश्मीर के मामले में। क्योंकि अलगाव एक संकट पैदा करता है।

ब्रेक्जिट के बहाने

ब्रक्जिट जैसा जनमत संग्रह न केवल इंगलैंड के लिये खराब साबित हुआ है बल्कि आदिम युग में यूनान और अथेंस के लिये भी हानिकारक रहा है। अथेंसवासियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही सबसे पहले प्रत्यक्ष मतदान का चलन शुरु किया था। लेकिन वे लोग प्रत्यक्ष मतदान का हक केवल पुरुषों को ही दिया करते थे। महिलाओं और गुलामों को इसका हक नहीं था। उस समय के आलोचकों का मानना था कि इसमें केवल बड़े लोगों की ही चलती थी। ये लोग अच्छे वक्ताओं के जाल में या भावनाओं क्र प्रवाह में उचित मतदान ना कर उस समय के रौ में मतदान कर डालते थे। ऐसा ही इंगलैंड में हुआ। वहां ब्रिटेन को अलग किये जाने वाले समूह अपने नेताओं के तीव्र प्रभाव में देखे गये थे। ब्रिटिश विद्वान भारतीय लोकतंत्र को संस्कृति उन्मुख कहते हैं औंऱ् अपने देश की लोकतंत्र को शिक्षा उमुख। उनकी दलील है कि संस्कृति उन्मुख समाज भावुकता में बह जाता है जबनि ज्ञानोन्मुख समाज तर्कों का सहारा लेता है। पर ब्रक्जिट के मामले में उल्टा होता देखा गया है।  वहां दुबारा जनमत संग्रह की बात की जा रही है। भारत में आखिरी जनमत संग्रह 1947 में हुआ था। वह था जूनागढ़ रियासत को भारत राज्य में शामिल किये जाने के मामले पर। जूनागढ़ के नवाब पाकिस्तान में जाना चाहते थे जबकि वहां की हिंदू बहुल जनता भारत में रहना चाहती थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जनमत संग्रह के जरिये मामला सुलझाया और 99 पतिशत भारत में रहने के पक्ष में मिले। तीन साल के बाद भारत कांविधान लागू हुआ और इसके बाद यहां की जनता को  व्यस्क मताधिकार प्राप्त हुआ और इसके बाद जनमत संग्रह की जरूरत ही नहीं रह गयी। कुछ लोग कश्मीर के मामले में जनमत संग्रह की बात करते हैं और वे स्वीट्जर लैंड, ब्रिटेन और स्कॉटलैंड  का उदाहरण देते हैं। लेकिन उन्हें शायद यह माहलूम नहीं है कि वहां के समाज और हमारे समाज में भारी अंतर है। हमारे यहां बहुजातीय समाज है और बहुदलीय प्रणाली है। ऐसे में कैसे यह तय हो सकता है कि कौन सा मसला सबके लिये महत्वपूर्ण है। इंगलैंड में केवल चार राजनीतिक दल हैं जबकि भारत में चुनाव आयोग द्वारा स्वीकृत 6 राष्ट्रीय दल और 49 क्षेत्रीय दल हैं। आज भारत में ब्रक्जिट के जनमतसंग्रह की भारी चर्चा है। एक एक मतों का विश्लेषण और उनके प्रभावों का ​आकलन चल रहा है पर यहां यह बता देना या कहें कि चेता देना जरूरी है कि भारत में ऐसा नहीं हो सकता है। ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन में शामिल रहनने ओर उसे छोड़ने के मामले पर काफी जानकारियां एकत्र की गयीं थीं। आवासीय और प्रवासी लोगों के आंकड़े, उनपर प्रभाव, अर्थ व्यवस्था पर प्रभाव इत्यादि से जुड़े ढेर सारे विंदुओं के बारे विस्तृत जानकारी, अलग होने और शामिल होने के फायदे और नुकसान इत्यादि पर विशद सूचना इत्यादि जनता को मुहय्या करायी गयी थी। इन सूचनाऔं के आधार पर लोगों ने अपने मत दिये या नहीं यह जानना मुमकिन नहीं है पर उन्हें सारी सूचना उपलब्ध थी। पर वह देश जहां राष्ट्रीय चैनलों पर फर्जी बहसों के  इीडियो दिखाये जाते हैं, फर्जी मुठभेड़ों को फर्जी दस्तखतों के जरिये सच बताया जाता है , सूचनाएं गढ़ी जातीं हैं वहां राजनीतिक स्वार्थ के बगैर हकीकत हासिल हो सकती है क्या? टेलीविजन पर घटिया और राजनीति प्रभावित बहसें जो खुद में जनमत संग्रह की तरह होतीं हैं उनके आधार पर कैसे रेफररेंडम लिया जा सकता है? इंगलैंड में जो हुआ प्रधानमंत्री डेविड कैमरून वह नहीं चाहते थे फिर भी उन्होंने यह मसला जनमत संग्रह के लिये पेश किया और यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने को बहुमत प्राप्त हुआ। कैमरून हार गये और इसके फलस्वरूप उन्होंने पद छोड़ दिया। भारत जैसे देश में जहां हर वक्त अल्पसंख्यकों के हितों की बात होती है वैसे एक मुद्दे वाली सियासत ज्यादा हानिकारक हो सकती है।  कल्पना करें कि यदि उत्तर प्रदेश में हिंदू पहचान को सामने रख कर जनमत संग्रह हो तो कौन सी पार्टी जीतेगी यह बताने की जरूरत नहीं है। भारत की गलाकाट सियासी प्रतिद्वंदिता इस मामले को और कठिन बनाती है। अतएव भारत जैसे देश जनमतसंग्रह की बात सोचना तक गलत है।

Thursday, June 23, 2016

फूट डालो और राज करो

यह कहावत भारत में अंग्रेजों के लिये मशहूर है और लोग कहते हैं कि इसी के कारण उन्होंने भारत पर राज किया और जाते जाते देश को टुकड़े कर गये। यह सच भी है। अगर आप इतिहास की वीथियों में थोड़ी दूर तक जायेंगे तो इस बात के पुख्ता प्रमाण भी मिल जायेंगे। इतिहास के गलियारों में जाने के पहले यहां यह बता देना जरूरी है कि आजाद भारत में भी शायद ही कोई ऐसा दौर रहा है जिसमें राजनीतिक दलों ने साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल ना किया हो। भारत में साम्प्रदायिकता की आग को भड़काने का पहला प्रमाण 14 सितम्बर 1857 को  अवध के कमिशनर का फोर्ट विलियम कोलकाता को लिखा गया पत्र है। अवध के कमिशनर ने लिखा था कि , ‘उन्होंने बरेली में मुसलमानों के मुकाबले हिंदू आबादी को बढ़ाने के लिये 50 हजार रुपये की मंजूरी दी​ थी , लेकिन इससे कोई लाभ ना मिला इसलिये इसे रोक दिया गया।’ यह तो एक उदाहरण है और अगर देखें तो इसके कई उदाहरण मिल जायेंगे। अंग्रेजों के खौफ का कारण था कि 1857 के गदर में हिंदू और मुस्लिम समुदाय ने कंधे से कंधा मिला कर अंग्रेजों से लड़ा था ओर इस्ट इंडिया कम्पनी को भारत का साम्राज्य ब्रिटिश क्राउन के लिये छोड़ना पड़ा था। ब्रिटिश साम्राज्य ने आरंभ से ही इस एकता को भंग करना शुरू कर दिया। 1857 में तो उनके मंसूबे कामयाब नहीं हो सके पर 90 साल के बाद उन्होंने इसी आधार पर भारत को टुकड़े कर दिया।

इस राज को क्या जाने साहिल के तमाशायी

हम डूब के समझे हैं दरिया तेरी गहरायी

इसके बाद से अभी तक देखा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में या देश में अन्य किसी भी जगह शासन में बने रहने के लिये या सत्ता में आने के लिये साम्पदायवाद का हथकंडा राजनीतिक पार्टियां अपनाती हैं। चाहे वह मेरठ हो या मुजफ्फरनगर , कैराना हो या दादरी सब जगह मूल में एक ही बात नजर आती है और पक्ष एवं विपक्ष दोनों इसे बनाये रखने के लिये हेनरिक गोयबल्स का फारमूला अपनाते हैं कि ‘एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच हो जाता है।’ मामूली खुसफुसाहट से शुरू हुई बात धीरे धीरे बवंडर हो जाती है और दंगों का सबब हो जाती है। राजनीतिक नेता इस दंगे को अपनी अपनी तरफ से देखते हैं और उसके मायने निकालते हैं। वे मायने उनके स्वार्थी मंसूबों से लबालब होते हैं। चाहे वह दादरी का कत्ल हो या कैराना की भगदड़ सच्चाई कहीं नहीं होती और पूरी घटना अंदेशों के कारण घटती है।

मुहब्बत करने वालों मे ये झगड़ा डाल देती है

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

इन दिनों कैराना की घटना गर्म है। सोशल मीडिया इसे और भड़का रही है। यहां से हिंदुओं के पलायन की तुलना कश्मीरी पंडितों की भगदड़ से की जा रही है। कुछ संगठन यहां हिंदुओं की हिफाजत की मांग उठा रहे हैं। यह तो उपर वाले का शुक्र है कि कुछ लोगों ने वहां जाकर ाटना की जांच की और पूरी बात को सत्य से परे पाया। दरअसल यहां से कुछ लोग नौकरी चाकरी या पढ़ाई या अन्य रोजगार के लिये बाहर गये जैसा कि अक्सर छोटी जगहों में होता है, और इसे ही पलायन का नाम दे दिया गया। वहां हालात ना बिगड़े इसलिये हिंदू और मुस्लिम धार्मिक नेता एक साथ प्रयास में लगे हैं। लेकिन सोचने की बात है कि ऐसा होता क्यों है। आने वाले दिन उत्तहर प्रदेश में चुनाव के दिन होंगे और इस दौरान तो बहुत आशंका है कि पूरे प्रांत में साम्प्रदायिक तनाव हो। क्योंकि ऐसी स्थिति पैदा करने के लिये सभी पार्टियों की तरफ से करोड़ो रुपये फूंके जायेंगे। सोचिये कि हमें अपने ही​ देशवासियों के खून से नहाने कि लिये ये राजनीतिज्ञ उकसायेंगे।

तवायफ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर

हुकूमत मंदिर और मस्जिद का पर्दा डाल देती है

प्रश्न है कि क्या लोग इसके ​शिकार होंगे? जो लोग इसके लिये भाजपा पर दोष मढ़ते हैं वे खुद कुशासन, घृणित साम्प्रदायिकता ओर आपराधिकता में लिप्त हैं। विकल्पहीनता की स्थिति है और आने वाला समय बतायेगा कि क्या होगा, लेकिन अगर हमें अपने समाहज को बचाना है और अपने बच्चों को एक सुरक्षित भविष्य मुहय्या कराना है तो तय कर लें कि हमलोग इसके झांसे में नहीं आयेंगे। सामाजिक तौर पर हम हर्गिज विभाजित नहीं होगे। सामाजिक संकल्प ही देश को बचा सकता है।  

ये जब्र भी देखे हैं तारीख की नजरों ने

लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी

Wednesday, June 22, 2016

स्वामी का अगला शिकार

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की विदाई सुनिश्चित करने के बाद भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी ने अगला निशाना सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद स्वामी को बनाया है। उन्होने बुधवार को एक ट्वीट कर कहा कि वे भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों के अनुकूल नहीं हैं। उनका कहना है कि उन्होंने सरकार की नीतियों का अमरीका में में विरोध किया हे। अरविंद सुब्रमणियम को अक्टू बर 2014 में इस पद पर बहाल किया गया था। इसके पहले इस पर रघुराम राजन थे जिन्हें भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बना दिया गया था। राजन इस पद के लिये बेहतरीन अदिकारी थे और उन्होंने आर्थिक राजतनतिकरण के मुकाबले जनता के हितों पर ध्यान दिया ओर उसकी हिफाजत के लिये सचेष्ट थे।  उन्होंने बैंकों के डूब्पाते कर्जों और पोंजी स्कीम जैसे आर्थिक घोटालों पर अंकुश लगाने के लिये बहुत बड़ा कम  किया। अरविंद सुब्रहमणियम ने हमेशा उनका समर्थन किया अनुकूल नीतियां बनाने की सलाह दी सरकार को। अब सवाल उठता है कि राजन जा रहे हैं और अरविंद के ​खिलाफ भी मोर्चा खोला जा चुका है। ऐसे में क्या भारत को दूसरा राजन यफा दूसरा अरविंद मिलेगा? भारत का समाज एक मिश्रित समुदाय है। एक तरफ जहां राजन र्जैसे लोगों की वाहवाही होती है वहीं दूसरी तरफ छोटे मामलों पर उबल पड़ते हैं। ऐसे देश में पूर्ण सुधार ओर समरसता लाने के लिये पूरे जीवन की जरूरत पड़ती है। अब राजन जा रहे हैं और अरविंद के खिलाफ बात निकली है तो वह भी दूर तलक जायेगी। ऐसी बात नहीं है कि भारत में प्रतिभाओं का अकाल है। लेकिन यहां सवाल है कि हम ऐसी व्यवस्था बनाते ही क्यों हैं जिसमें सुधार ना हो। क्यों नहीं अच्छे कार्यों को जारी रहने दिया जाता है। राजन के जाने के बाद सरकार दरअसल  अपनी वही राजनीतिक उठापटक जारी रखेगी जिसमें अर्थव्यवस्था की खस्ता हाली का कारण दूसरों पर थोपने की कोशिशें होती हैं। सच्चाई तो यह है आने वाली छमाही देश की अर्थव्यवस्था के लिये तूफानी दिन होंगे। आज ब्रक्सिट पर मतदान होने वाला है। अगर उसके मुखलिफ विजयी होते हैं तो अंतरराष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था में तूफान आ जायेगा। लेकिन लगता नहीं हे कि ऐसा हो पायेगा क्योंकि ब्रिटिश भारत की तरह आंख मूंद कर वोट नहीं देती। अगर ब्रक्सिट को छोड़ भी दें तब भी संकट के आसार नजर आ रहे हैं।दुनिया में आर्थिक संरक्षणवाद बढ़ रहा है और साथ ही भगौलिक राजनीतिक हालात भी तेजी से बिगड़ रहे हैं। इससे भारत से बाहर पूंजी के पलायन की पूरी आशंका है और दूसरी तरफ अमरीकी​ फडरल रिजर्व द्वारा लगाम कसने से भारत में विदेशी मुद्रा कोष  में गिरावट आयेगी। इससे भारत के बाहर पूंजी पलायन के कारण आर्थिक सुनामी का खतरा पैदा हो जायेगा। इस स्थिति में एक ही अच्छी बात दिख रही है कि तेल की कीमतें कम ही रहेंगी लेकिन इस कम कीमत का खाड़ी के देशों की अर्थ व्यवस्था पर दुष्प्रबाव पड़ेगा लिहाजा निर्यात घटेगा और भारत में आने वाली विदेशी मुद्र्रा का प्रवाह भी कम होगा। क्योंकि विदेशी मुद्रा का बहुत बड़ा भाग खाड़ी के देशों में भारतीय मजदूरों के पैसों का है वे वहां सरोजगार से अलग हो रहे हैं भारत लौट रहे हैं। इससे भारत में बेरोजगारी का अनुपात भी बढ़ सकता है। विकास की धीमी दर और अगले साल देश के सबसे राज्य उत्तर प्रदेश के चुनाव तथा उसके दो वर्ष बाद लोकसभा चुनाव के कारण देश की अर्थ व्यवस्था पर भारी दबाव पड़े सकता है और इससे मौद्रिक अनुशासन गड़बड़ हो सकता है। ऐसे में हमें एक ऐसे विशेषज्ञ की जरूरत है जिसमें सियासी चातुरी भी हो और वह भारत की नब्ज को पहचानता हो।  सरकार के रुख को देख कर यह अनुमान लगाना सरल है कि आने वाले दिनों में लोक लुभावन आर्थिक कार्यक्रम आरंभ होंगे  और इसमें पूंजी डूबने के लिये जो छोलदारियां खडी की जाएंगी वे नाकाम होंगी और बाड़ ही खेत को खाते दिखेंगे। मुद्रास्फीति बढ़ सकती है और इससे एक बार फिर महंगाई को बल मिलेगा। यह तो तय है कि अब जो भी इन पदों पर आयेगा वह राजनीतिक समझौता करने के लिये बाध्य होगा। भारत में हर राजनीतिक कदम में अर्थ व्यवस्था जुड़ी होती है। इससे क्या होगा यह अभी से कहना कठिन है पर अर्थ व्यवस्था के लिये परेशानी भरे दिन आने वाले हैं इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।