आर्थिक मंदी और सरकार की घोषणाएं
हमारे देश में सियासत का एक बहुत पुराना चलन है कि हमारे नेता आर्थिक सुधारों की पहल तभी करते हैं जब हालात बेकाबू होने लगें। वैसे हर सरकार की कोशिश होती है अर्थव्यवस्था को लेकर सुर्खियां ना बनें लेकिन इस विषय पर सुर्खियों का बनना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अर्थव्यवस्था को संभालने का प्रयास करना। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने पिछले हफ्ते पत्रकारों से बातचीत का फैसला इसलिए किया कि इसके तुरंत बाद स्पष्ट किया गया कि मोदी जी के कार्यकाल में गुजरे 6 वर्ष में चालू तिमाही ही ऐसी थी जिसमें जीडीपी की वृद्धि दर सबसे कम रही और उत्पादन में सबसे कम 0.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी के बाद वित्त मंत्री ने बैंकिंग सेक्टर में धमाका किया। एक ऐसी बिजली चमकाई जिसके आगे यह आंकड़े फीके पड़ गए। अब नए हालात में एक दृश्य सामने है। वह कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार 2013 के दिनों की तुलना में कम है। पिछली चार तिमाहियों में वृद्धि दर 6.1 प्रतिशत थी परंतु पिछली तिमाही में यह वृद्धि दर मात्र 5% हो गई और चालू तिमाही के लिए संभावनाएं कम ही हैं। कहा जा सकता है कि 2012 - 13 के बाद से सबसे धीमी वार्षिक वृद्धि दर इस वर्ष होगी।
एक आम धारणा है कि आर्थिक वृद्धि का संकट अचानक पिछले कुछ महीने से आया है। अब तक कुछ ऐसा हुआ भी है। इसके कई मानक दिखते हैं । उदाहरण के लिए इस साल की शुरुआत मैं आई एल एंड एफ एस में गिरावट से यह दिखता है। उसी समय वाहन क्षेत्र में बिक्री घटने लगी थी, हवाई भाड़े में वृद्धि होने लगी और हवाई सफर महंगा हो गया। इस के बावजूद जीडीपी के जो आंकड़े हैं वह अनुमानित ही हैं। लेकिन सरकार के आलोचक यह साफ कहते हैं पाए जा रहे हैं कि इस संकट का पूर्वानुमान लगाया जा सकता था। अंत में जब बिस्किट की बिक्री घटने लगी और बिस्किट उत्पादन क्षेत्र में छंटनी होने लगी तो अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत के बारे में बात होने लगी। अब बिस्कुट जैसी वस्तु को सामने रखकर कृषि और गैर कृषि रोजगार में वास्तविक ग्रामीण मजदूरी के संदर्भ में विचार करें । सरकार ने कई कदमों की घोषणा की लेकिन इसके बावजूद इसकी वित्तीय हालत मुश्किल में है। इस संदर्भ में जीएसटी पर सीएजी की रिपोर्ट साफ-साफ बताती हैं कि मोदी सरकार ने सुधार की जो कोशिशें की थीं वह कामयाब नहीं रहीं और राजस्व संग्रह के मामले में आगे भी निराश करती रहेगी। अब वर्तमान मोदी सरकार को इसके कारण हुए नुकसान को कम करने के प्रयास करने होंगे। इस बीच कठिन वृद्धि दरों को हासिल करने पर जोर देना। अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से निकलने के लिए गंभीरता से सोचना होगा।
सरकार ने ऐसी अपशकुनी खबरों का प्रभाव कम करने के लिए जवाबी परिदृश्य तैयार किया और उभरती स्थिति से मुकाबले की कार्रवाई की। क्योंकि क्रेडिट फ्लो में बाधा की शिकायत हमेशा रही है इसलिए इसे दूर करने के और बैंकों को फिर से पूंजी देने के उद्देश्य से सरकार ने 10 बैंकों को मिलाकर 4 बैंक बनाने की घोषणा की। इसका मतलब था मजबूत बैलेंस शीट वाली संस्थाओं का निर्माण करना। इसके बाद दूसरी घोषणा हुई। ताबड़तोड़ बजट में टैक्स की कटौती और खुदरा क्षेत्र के दरवाजे विदेशी निवेश के लिए खोले जाने लगे और चीनी निर्यात के लिए के लिए बड़ी सब्सिडी देने का ऐलान किया गया ताकि चीनी मिलें इस पैसे से बकाया का भुगतान कर सकें। रणनीति के लिहाज से लगातार घोषणा एक बड़े पैकेज की घोषणा से शायद बेहतर है। क्योंकि एक बड़ा पैकेज अगर कामयाब नहीं हो सका तो हालात पहले से भी ज्यादा बिगड़ जाएंगे जबकि निरंतर घोषणा में कम जोखिम होती है और इसमें ज्यादा खुलेपन की गुंजाइश होती है। उचित तो यह होता है कि सरकार इसे तब तक जारी रखे जब तक इसके सामूहिक असर के कारण लोग भविष्य के बारे में दूसरे तरह से ना सोचने लगें एवं ज्यादा खर्च न करने लगें और निवेश करने लगें। इस नजरिए से देखें तो सरकार को अभी कुछ और सुधार की जरूरत है ताकि लोगों का मूड सरकार की उम्मीद के मुताबिक बदले। अर्थव्यवस्था में निवेश एवं खर्च के लिए जरूरी है कि लोगों के उपभोग में बदलाव आना चाहिए और कंपनियां नकदी के संकट से निवेश में परहेज करने से ना डरें। यह तब तक नहीं हो सकता जब तक उपभोग में बदलाव ना आये और बिक्री में सुधार ना हो। बैंकरों का मानना है कि कॉरपोरेट क्रेडिट की मांग घटी है। अभी त्योहारों का सीजन शुरू हो चुका है और उम्मीद है कि खुदरा मांग बढ़ेगी। क्योंकि लोग इसी अवसर के लिए अपनी जरूरतों को टाल कर रखे हुए थे । लेकिन गन्ना किसानों की समस्याओं को निपटाने के अलावा सरकार ने ग्रामीण मांग में तेजी के लिए बहुत कोशिश नहीं की है। यहां यह गौर करने की बात है कि कृषि कीमतें लगातार कम ही रही हैं। इसलिए ग्रामीण मजदूरी भी लगभग स्थिर रही है। अतः चालू परिदृश्य में बदलाव लाने के लिए सरकार को अभी बहुत कुछ करना है।
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