हमारी भाषा हमारे आत्म अन्वेषण का आयुध है
आज हिंदी दिवस है। हिंदी दिवस से एक बात याद आती है कि दो दिन पहले राष्ट्रीय ग्रंथागार कहने पर एक विदुषी महिला ने हैरत जाहिर की कि यह क्या है? यह बताए जाने पर कि यह नेशनल लाइब्रेरी का हिंदी है वह चौंक गई। हिंदी को नारों की भाषा समझने वाले ऐसे बौद्धिक वातावरण में हिंदी में बहस बड़ा ही अजीब लगता है ,और एक प्रश्न भी सामने खड़ा होता है कि ऐसे वातावरण में हिंदी के विकास के लिए इतना श्रम क्यों? क्योंकि हिंदी या कहें हमारी भाषा हमारे आत्म अन्वेषण का एक आयुध है। उसी के माध्यम से हम अपने भीतर की बातों को बाहर प्रगट करते हैं। मातृभाषा मनुष्य की देह का एक का अदृष्य अंग है। अथवा, कह सकते हैं कि यह हमारी ज्ञानेंद्रिय है जो हमें आत्मदृष्टि देती है। चाहे आप कितने भी विद्वान हों, कितनी भी भाषाओं के पारंगत हो लेकिन आप का भाव बोध आपकी अपनी ही भाषा में होता है। मां को आप चाहे जो कहें लेकिन उसे आप अपनी भाषा में ही महसूस करते हैं। भाषा और आत्मबोध का यह संबंध मनुष्य को समस्त जीव जंतुओं से अलग कर देता है। अपने अधूरेपन को पहचान कर मनुष्य में संपूर्णता का स्वप्न में आता है और यही पहचानना आत्मबोध है, जो अपनी ही भाषा में होता है। किसी भी संस्कृति की पहचान केवल उसकी यथार्थता से नहीं होती बल्कि उसके सपनों से भी उसकी विशेषता उजागर होती है। उन सपनों की बुनावट में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक संस्कृति के जो सपने हैं यह बहुत हद तक उसकी स्मृतियां निर्धारित करती हैं। शब्द में उन्हीं सपनों का संकेत हुआ करता है और वे शब्द आपकी भाषा के मूल अक्षर हैं। इसीलिए कोई भी भाषा कभी मरती नहीं उसे मारने का चाहे जितना प्रयास किया जाए। वह संस्कृति के सपने में हमेशा जीवित रहती है। हमारे अवचेतन में लगातार प्रवाहित रहती है। यही कारण है कि हमारा एहसास, हमारी अनुभूतियां वगैरह हमारी अपनी भाषा में ही होती हैं। हम सीखी हुई या थोपी हुई भाषा में उसे अनुभूत नहीं कर सकते। भले ही अभिव्यक्त कर सकते हैं। यही कारण था कि मैक्स मूलर जैसे भारतविद को सदा यह महसूस होता था कि "जब तक भारत में संस्कृत या उससे पैदा हुई भाषाएं परस्पर संवाद और आत्म चिंतन के लिए जीवित रहती हैं तब तक भारत की सांस्कृतिक अस्मिता बची रहेगी। उसके रहते भारतीय सभ्यता को मृत स्मारकों की तरह नहीं देखा जा सकता।" उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत की राष्ट्रीय चेतना इसी सांस्कृतिक अस्मिता के भीतर से प्रस्फुटित हुई। संस्कृत और भारतीय भाषाओं के भीतर जातीय स्मृतियों की एक ऐसी विपुल संपदा सुरक्षित थी जो एक संजीवनी की तरह अतीत से बहकर भारत की चेतना को आप्लावित करती थी। हमारी राष्ट्रीयता के बीज इसी चेतना में निहित थे। यही कारण था कि मेकाले ने चेतावनी दी थी कि "हम भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभुत्व तब तक नहीं कायम कर सकेंगे जब तक भारतीय शिक्षा पद्धति में संस्कृत भाषा को पूरी तरह से निष्कासित नहीं कर लेते।" जिस वैचारिक स्वराज की बात भारतीय दार्शनिक के सी भट्टाचार्य ने उठाई थी उसका गहरा संबंध है एक जाति की भाषाई अस्मिता से है। यही भाषाई अस्मिता हमारी संस्कृति का सत्य थी। सच तो यह है और कहिए सच तो यही है कि अन्य भाषा जिसे हम बहुत विकसित कहते हैं वह खिड़की से बाहर देखा गया एक बाह्य जगत है। किसी ऐतिहासिक दबाव और या दमन के कारण जब अपनी भाषा से उन्मूलित हो जाते हैं तो ठीक उसी अनुपात में अगर खिड़की से बाहर जाकर देखें तो बाहर देखा गया परिदृश्य धुंधला नजर आता है। भाषा भीतर के सच और बाहर की यथार्थ के बीच एक सेतु है और यह सच तथा यथार्थ दोनों एक दूसरे से अलग नहीं हैं। बस केवल वैचारिक सुविधा के लिए हम उसे दो अवधारणाओं के रूप में देखते हैं।
यहां आकर भाषा के दो रूप हमारे सामने उभरते हैं या कहिए उनके दो चरित्र। एक जो हम बोलते हैं जिनमें हमारा संवाद होता है और दूसरा भाषा का तात्विक स्वरूप जो सतह के नीचे कायम रहता है लेकिन हमेशा सतह के ऊपर बोले गए शब्दों में प्रतिध्वनित होता है। भाषा के इसी आंतरिक स्वरूप और उसके व्यवहारिक चरित्र के बीच एक संबंध होता है जो हमेशा गतिशील रहता है। यह मानव समाज के विकास के साथ चलता है और उसका स्वरूप निर्मित करता है। जहां तक हिंदी का प्रश्न है वह ऐतिहासिक काल से बदलती हुई आज की स्वरूप तक पहुंची है और कह सकते हैं यह आगे बढ़ती हुई हमारे सामूहिक अनुभव और अस्मिता के रूप में ढल गई है।आज हिंदी के विकास की आवश्यकता इसलिए है कि वह हमारी सामूहिक अस्मिता का एक बिंब बन गयी है और वह बिंब हमारी स्मृतियों के साथ जुड़ा है। हमारे सपनों के साथ भी जुड़ा है। जब हम अपने विचारों को किसी दूसरी भाषा में व्यक्त करते हैं तो एक हद तक स्वयं हमारे विचार उस भाषा के प्रत्यय द्वारा अनुशासित होने लगते हैं । ऐसे में भाषा माध्यम नहीं रह जाती है वह शक्ति का साधन बन जाती है। हम उस भाषा में अपने विचार को व्यक्त कर सकते हैं लेकिन ठीक उसी रूप में जिसमें वह करवाना चाहती है। प्रश्न भाषा के प्रभुत्व के रूप में सामने आता है। क्योंकि दूसरी भाषा में हम कहना कुछ चाहते हैं लेकिन वह भाषा वही कहवाती है जो वह चाहती है। 19 वीं शताब्दी में राष्ट्रीय जनमानस को जिस राष्ट्रीय भावना ने आलोकित किया था उसमें हिंदी के रूपकात्मक बिंबों का महत्वपूर्ण योगदान था। आज जब भारत को कुछ भारतीय इतिहासकार ही महज एक संघ बताते हैं और भारत राष्ट्र को एक काल्पनिक उपज की संज्ञा देते हैं उस समय वे भारतीय भाषाई और सांस्कृतिक पीठ को बिल्कुल भुला देते हैं। स्वतंत्रता प्राप्त करने की भारत की लालसा केवल राजनीतिक उद्देश्यों से उत्प्रेरित नहीं थी उसके पीछे अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को सबके समक्ष लाने की आकांक्षा भी थी। यही आकांक्षा हमारी भाषा को स्वरूप देती थी। आज हम उसी भाषा के लिए बार-बार प्रयास करते हैं और यह बताते हुए गर्व महसूस होता है कि हम लगातार विकसित हो रहे हैं। विख्यात भाषाविद जीएन देवी के अनुसार आज हिंदी दुनिया की सबसे तेज बढ़ती हुई भाषा है और इसका विकास उत्तरोत्तर हो रहा है। हिंदी दिवस के रूप में हम उसी विकास को अपनी ऊर्जा प्रदान करते हैं और हमें पूरा यकीन है कि हम वह लक्ष्य हासिल करके रहेंगे जिसके लिए हमने संकल्प किया है।
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