लाखों करोड़ रुपयों के घोटाले की जांच की मांग को लेकर इतना हंगामा हुआ कि देश के करोड़ों रुपये बर्बाद हो गये। संसद का शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जेपीसी से कराने के मुद्दे पर सरकार और विपक्ष के अडिय़ल रवैए के आगे संसदीय इतिहास में पहली बार एक पूरा सत्र बगैर किसी कामकाज के समाप्त हो गया। देश के आयकरदाताओं के 146 करोड़ यूँ ही खर्च हो गये।
2 जी स्पैक्ट्रम, कॉमनवेल्थ गेम्स और मुंबई के आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटालों की जेपीसी से जांच कराने की मांग पर विपक्ष अड़ा रहा और सरकार भी टस से मस नहीं हुई। इस कारण हंगामे के बीच ही कुछ वित्तीय कामकाज निपटाए जाने को छोड़कर 9 नवंबर से शुरू 24 दिन के शीतकालीन सत्र में और कोई कार्यवाही नहीं चली। लगभग ढाई दशक पहले बोफोर्स घोटाले के मुद्दे पर प्रश्नकाल को छोड़कर संसद की कार्यवाही लगभग 45 दिन ठप रही थी। लेकिन संसदीय इतिहास में यह पहला मौका है जब सरकार और विपक्ष के एक-दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप के चलते पूरा सत्र ही नारेबाजी और हंगामे की भेंट चढ़ गया। गतिरोध तोडऩे की कई कोशिशें हुईं, लेकिन नतीजा सिफर रहा।
विपक्ष अब गतिरोध को आगामी बजट सत्र में भी बनाए रखने के मूड में है। 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से कराने की मांग को लेकर गर्भगृह में जाकर नारे लगाना विपक्षी सदस्यों का रोज का ही काम रहा। भाजपा ने संसद नहीं चलने दी, जबकि उसने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का साहस नहीं दिखाया। आधुनिक भारत की इस तकलीफदेह घटना को लेकर किसी भी राजनेता के चेहरे पर न तो शोक है और न ही शर्म की कोई झलक।
संसद ठप करने की यह मिसाल पिछली सरकार के दौरान एक मंत्रालय की तीन साल पुरानी करतूत के विरोध में रची गई है, जिसमें सरकार को 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये तक के संभावित नुकसान का आंकड़ा सीएजी नाम के एक सरकारी विभाग ने ही सत्र शुरू होने से ठीक पहले पेश किया था। विपक्ष इस मामले में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) गठित करने को लेकर अड़ा है, जबकि सरकार का कहना है कि इसमें तीन जांच पहले से चल रही है और इसमें जेपीसी का एक नाम और जुड़ जाने से जांच की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला।
विपक्ष के मुताबिक पहले से चल रही जितनी भी जांच है वह दूध का दूध, पानी का पानी करने में कामयाब नहीं होंगी, क्योंकि सरकार उनके फैसलों को प्रभावित कर सकती है। सरकार की सफाई यह है कि इन तीनों में एक, लोक लेखा समिति या पीएसी का नेतृत्व बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी कर रहे हैं, दूसरी, यानी सीबीआई की जांच सीधे सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में चल रही है, और तीसरी जांच, यानी टेलीकॉम सौदों के ढांचे पर केंद्रित एक-सदस्यीय आयोग का काम सुप्रीम कोर्ट के एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश देख रहे हैं। ऐसे में इनके सरकारी असर में आने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इन दोनों पक्षों की अपनी-अपनी ताकत और कमजोरियां हैं, लेकिन इससे विपक्ष को संसद ठप करने का अधिकार कहां से मिल जाता है?
इस सत्र में छोटे कर्जधारकों, बुनकरों और बढ़ती रेल दुर्घटनाओं पर बात होनी थी। शहरों में महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही यौन हिंसा और तमाम सरकारी-गैर सरकारी योजनाओं में विस्थापित होने वालों की तकलीफ को चर्चा का विषय बनना था। क्या संसद ठप करने के पराक्रम से इन सारे मुद्दों की भरपाई हो जाएगी ? सरकार के हर कुकर्म पर उसे घेरना विपक्ष की जिम्मेदारी है, लेकिन देश की शीर्ष लोकतांत्रिक संस्था को कामकाजी बनाए रखने की जवाबदेही क्या सिर्फ सरकार की है?
इस सवाल पर समय रहते विचार नहीं किया गया और मौजूदा गतिरोध को अगले सत्र तक खींचा गया तो भ्रष्टाचार और अन्य अपराधों से पहले ही खोखला हो चला भारतीय लोकतंत्र अपने मर्मस्थल पर लग रही इस चोट को शायद बर्दाश्त न कर पाए।
Tuesday, December 14, 2010
करोड़ों रुपये बर्बाद हुये लाखों करोड़ के घोटाले के शोर में
Posted by pandeyhariram at 1:04 AM
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