बिहार में राजनीतिक आचरण का नया इतिहास लिखा गया। विधानसभा चुनाव में नीतीश, बीजेपी और उनके सहयोगियों ने 243में से 206 यानी लगभग 85 प्रतिशत सीटें जीत लीं। लेकिन शायद इससे भी ज्यादा चौंकाने वाला प्रदर्शन तो कांग्रेस का था। 2005 में कांग्रेस ने 51 सीटों से चुनाव लड़ा था और 9 पर जीत हासिल की थी। इस बार उसने सभी 243 सीटों से अपने उम्मीदवार खड़े किए और हाई प्रोफाइल प्रचार अभियान चलाया, लेकिन इसके बावजूद वह केवल 4 सीटें ही जीत पायी।
नीतीश की लहर, भाजपा के प्रति मतदाताओं का रुझान, लालू से नाराजगी, जातिगत समीकरण से ऊपर उठने की कोशिश करते बिहार के मतदाता और विकास के पक्ष में जनादेश। अगर इन सबके मद्देनजर बिहार के मतदान पर गौर करें तो माना जा सकता है कि बिहार एक क्रांति के दौर से गुजर रहा है। अलबत्ता वोटिंग के वास्तविक आंकड़ों पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। बिहार में नीतीश-भाजपा गठबंधन ने 39 फीसदी वोट हासिल किये यानि 2 करोड़ 90 लाख वोटों में से 1 करोड़ 10 लाख वोट (सरलता के लिए आंकड़ों को राउंड फिगर में कर दिया गया है)। इसकी तुलना उन लगभग 1 करोड़ लोगों या 34 फीसदी वोटों से करें, जो लोजपा, राजद या कांग्रेस के खाते में गये।
वोटिंग के आंकड़ों पर गौर करें तो नीतीश कुमार को मिला जनादेश उतना भव्य नजर नहीं आता। इसके क्या मायने हैं ? क्या नीतीश और भाजपा को बिहार में अपनी जीत का जश्न नहीं मनाना चाहिए ? क्या इसका यह मतलब है कि अविश्वसनीय चुनाव परिणाम महज एक विचित्र संयोग भर थे?
बहरहाल, इससे तो कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव में बिहार के मतदाताओं का झुकाव नीतीश और भाजपा के पक्ष में रहा और उन्होंने लालू और उनके तमाम भाई-बंधुओं के विरुद्ध वोट दिया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विजेता खुद को आरामदेह स्थिति में महसूस कर सकते हैं या आत्मसंतुष्ट हो सकते हैं। न ही इसका यह मतलब है कि पराजितों का सफाया हो गया है। वास्तव में वर्ष 2009 के आम चुनाव में भी अमूमन यही स्थिति थी। चुनाव में यूपीए को स्पष्ट विजेता बताया गया था, लेकिन वोटों के अनुपात के आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते थे। भारत में चुनाव इसी तरह होते हैं और कोई भी पार्टी अपनी स्थिति को हल्के में नहीं ले सकती। बिहार के चुनाव से दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस को सबक सीखने चाहिए और मतदाताओं को भी। जहां तक भाजपा का सवाल है (जो अब केन्द्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है), उसे आत्मसंतोष की स्थिति से बचना चाहिए। यह सच है कि हवा का रुख उनकी तरफ है, लेकिन यह अब भी कोई आंधी नहीं है।
कांग्रेस को सबक सीखने की जरूरत है कि उसे किस तरह के सहयोगियों के साथ नाता रखना है, क्योंकि बुरे सहयोगियों के न होने के बाद भी उनके बुरे प्रभाव देर तक बने रहते हैं। बिहार में कांग्रेस ने अकेले ही चुनाव लड़ा था, लेकिन मतदाता लालू-कांग्रेस गठजोड़ को भुला न सके। कांग्रेस के लिए इस बारे में विचार करना भी जरूरी है कि राहुल गांधी का किस तरह इस्तेमाल किया जाए। हालांकि बिहार का सबसे जरूरी सबक तो मतदाताओं के लिए है। इसका सीधा-सादा मतलब यह है कि चुनाव में जीत का आधार किसी पार्टी द्वारा किया गया प्रदर्शन ही होगा। यह स्थिति पहले ही कुछ राज्यों में देखी जा चुकी है। बिहार चुनाव के नतीजे रोमांचक थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनेता और मतदाता इनसे जल्द ही सबक लेंगे।
Saturday, December 11, 2010
बिहार से सीख
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