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Tuesday, December 14, 2010

सब कुछ बिकता है


अभी नीरा राडिया टेप कांड का मसला बेहद गर्म था और उसमें कई बड़े और आदर्श के रूप में विख्यात पत्रकार दलाली करते सुने गये। अभी यह चल ही रहा था कि रविवार की रात एक बहस में कुछ प्रबुद्ध वक्ताओं ने कहा कि राज्यसभा बाजार बन गयी है, उसे बंद कर दिया जाय। इसके कुछ दिन पहले प्रश्न के लिये पैसा दिये और लिये जाने की चर्चा भी सुनी-देखी गयी थी। कितना गिनाया जाय। देख कर ऐसा लगता है कि इस देश में हर चीज बिकाऊ है।
निश्चित रूप से ये शब्द काफी कड़े हैं और सामान्य स्थिति में इन शब्दों से परहेज किया जाना चाहिये, लेकिन जहां प्रजा की रक्षा और उसे सुशासन देने के लिए सरकार में भेजे गए लोग भ्रष्टाचार छिपाने में व्यस्त हों तथा कलम के सिपाही सरकार से लेकर न्यायपालिका और प्रशासन तक किसी भी क्षेत्र के गलत आचरण पर निर्मम प्रहार करने के लिए तैनात हों, यदि वे खुद दलाली करते पाए जाएं तो बचाव का मार्ग क्या होगा?

अंग्रेजी के दो वरिष्ठ पत्रकारों के टेलीफोनिक संवाद के बारे में जो जानकारियां मिली हैं, वह चौंकाने वाली हैं। राजनीतिक नेताओं से अपने रसूख के लिये विख्यात नीरा राडिया से इन संपादकों की फोन पर जो बातचीत के टैप सामने आये हैं, उनका निष्कर्ष यह निकलता है कि संसद में कौन बोलेगा? किस विषय पर बोलेगा? केन्द्र में मंत्री कौन बनेगा ? कौन पत्रकार अपने स्तंभ में किस विषय को किस तरीके से उठाएगा ? यह सब पूंजीपति, उनके दलाल, नेताओं के मित्र, पत्रकार, संपादक तय करते हैं।
लोकतंत्र का इससे अधिक शर्मनाक पतन और क्या हो सकता है ? वे लोग जो चौथे स्तंभ के आधार कहे जाते हैं सत्ता की दलाली के घृणित कर्म में आकंठ डूबे हुए दिखते हैं। जो वरिष्ठ पत्रकार सत्ता की दलाली में लिप्त पाये गये हैं क्या उनको मिले अलंकरण भी वापस नहीं लिए जाने चाहिए?
वर्तमान समय में पत्रकारिता भयानक कुहासे से गुजर रही है। बाजार, विज्ञापन, अधिक पैसा कमाने की लालसा के कारण संपादक खत्म किए जाते हैं और उनकी जगह मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं। पेड न्यूज के बाद राजनेताओं से नेटवर्किंग करते हुए संसद और मंत्रिमंडल को कॉरपोरेट जगत नियंत्रित करने लगता है। गलत काम कहीं भी हो बख्शा नहीं जाना चाहिए। कर्नाटक के मुद्दे पर भी कांग्रेस कुछ तर्क दे रही है। उन तमाम संदेहों की जांच होनी चाहिए पर येदियुरप्पा को थैलीशाहों तथा पेड न्यूज का शिकार भी नहीं बनने देना चाहिए।
आज का भारत अफ्रीका के किसी ऐसे नवजात और भ्रष्ट समाज का दर्शन कराता है जहां किसी भी क्षेत्र में ईमानदारी बची ही न हो। हाल ही के कुछ ताजा उदाहरण देखें- साठ से सत्तर हजार करोड़ रुपये के घोटाले का दायरा रखने वाला कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों से लेकर दिल्ली सरकार तक पर शक की सुई घूम रही है। 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाला सी.ए.जी की रपट के अनुसार एक लाख इकहत्तर हजार करोड़ रुपये के दायरे में है। मुम्बई के आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले ने तो कारगिल शहीदों की स्मृति तक को अपमानित कर दिया। इन सबकी जांच के लिए जब समूचा विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच बिठाने की मांग करता है तो सरकार वहां से ध्यान हटाने की कोशिश करती है।


वास्तव में किसी भी प्रकार की मांग को लेकर संसद की कार्यवाही बाधित करना संसदीय परंपरा और संसदीय कामकाज के दायित्व का उल्लंघन है लेकिन जब देश राजनेताओं पर भयंकर अविश्वास के अभूतपूर्व दौर से गुजर रहा हो तो जांच की उचित प्रक्रिया को लागू करने के लिए सरकार पर दबाव डालने का और कोई तरीका भी शेष नहीं रहता। सरकारी पक्ष तो भ्रष्टाचार के मामले पर विपक्षी नेताओं को बोलने तक का समय नहीं देता। वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी ने संसदीय लेखा समिति द्वारा जांच कराए जाने का प्रस्ताव रखा लेकिन विपक्ष ने इसे स्वीकार नहीं किया। संसदीय जांच समिति के दायरे में पत्रकारों द्वारा नीरा राडिया से बातचीत का विषय भी आ सकता ताकि पता चले कि बड़े-बड़े संपादक और मीडिया घराने सत्ता के समीकरण किस चतुराई से बिठाते हैं।

हम अपने लोकतंत्र की शान में गौरव गान करते हैं जो उचित ही है।
लेकिन यह कैसा लोकतंत्र है जो एक ओर तो 9 से 10 प्रतिशत विकास दर की ऊंचाई छूता है दूसरी ओर 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं। एक ओर चुनाव सुधारों तथा राजनीतिक शुचिता पर सेमिनार होते हैं दूसरी ओर जनता का धन लूटकर स्विस बैंकों में सत्तर लाख करोड़ काला धन जमा करने वाले भारतीय नेता और उद्योगपति होते हैं। जो संसद उन लोगों को संरक्षण देने वालों को बचाए, जो देश की मिट्टी के साथ विश्वासघात करते हुए संविधान और जनता का मजाक उड़ाते हैं वे संसद निरर्थक और नाकामयाब ही कही जाएगी।

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