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Saturday, December 11, 2010

लाख भ्रष्ट हैं फिर भी उम्मीद बाकी है


भारत में भ्रष्टाचार किस हद तक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के भ्रष्ट लोगों ने 462 अरब डॉलर की राशि स्विस बैंकों में जमा कर रखी है। भ्रष्टाचार का अध्ययन करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन.. ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल.. के हालिया अध्ययन के अनुसार..'देश में भ्रष्टाचार की स्थिति कितनी भयावह है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन- यापन करने वालों को 11 चुनिंदा बुनियादी सेवाएं हासिल करने के लिये एक वर्ष में 900 करोड़ रुपये की रिश्वत देनी पड़ती है।..देश के लिये यह वर्ष भी भ्रष्टाचार और घोटालों का रहा है, जिनमें 2-जी स्पेक्ट्रम, आवंटन घोटाला, राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार और आदर्श आवासीय सोसायटी घोटाले प्रमुख हैं।
9 दिसम्बर को राष्ट्रसंघ के भ्रष्टाचाररोधी दिवस के अवसर पर मीडिया में भारत को परम भ्रष्टाचारी देश के रूप में पेंट करने की कोशिश की गयी है।

पूर्व सतर्कता अधिकारी एन विट्ठल के अनुसार यहां पैदा होने के साथ ही रिश्वत का खेल शुरू हो जाता है। एक आम आदमी को जीवन में मोटे तौर पर बहुत छोटे-छोटे कामों के लिए भी 70 हजार रुपए तक घूस रूप में देने पड़ते हैं। इस सूची के अलावा हर दिन पता नहीं कितने कामों के लिए..चाय-पानी.. देनी पड़ती होगी, क्योंकि रिश्वतखोर तो पग-पग पर कमाई के रास्ते निकाल लेते हैं।
लेकिन यह कोई नयी बात नहीं है। विख्यात इतिहासकार इरफान हबीब लिखते हैं कि औरंगजेब के दरबारी किला खान ने किस तरह रिश्वत लेकर कुछ ही दिनों में 12 लाख रुपये इकठ्ठे कर लिये थे। यही नहीं अकबर महान के दरबारी अबुल फजल का जीवन कितना विलासितापूर्ण रहा इसका उल्लेख कई जगह है। इतिहासकार बी बी मिश्र के अनुसार भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के डूबने का मुख्य कारण अफसरों की रिश्वतखोरी ही था। लेकिन आज अपने देश में फैले भ्रष्टाचार को औपनिवेशिक युग की विरासत कहना उचित नहीं है क्योंकि यह एक चलताऊ किस्म का समाधान या निदान कहा जायेगा। इसका मुख्य कारण बाहरी अर्थव्यवस्था तथा भारतीय आम आदमी के मानस की बुनावट (साइकोलॉजिकल मर्फालजी) से प्रभावित एक राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास का जटिल समीकरण है।

ऐसा भी लगता है कि हम ज्यादातर नेताओं या लोकतांत्रिक पदों पर बैठे भ्रष्ट लोगों को लेकर ही हल्ला करते हैं। जबकि वे तो पांच साल के लिए इस सिस्टम का हिस्सा बनते हैं। इसको ऐसे समझें कि एक इमारत है जिसका नाम है ब्यूरोक्रसी जिसमें थोड़े-थोड़े दिनों के लिए जनता प्रतिनिधि ठहरने आते हैं। हालांकि इनके पास ताकत होती है, लेकिन जिस इमारत में वह रहते हैं, लाख खराब सही, उसको गिरा पाने की हिम्मत शायद कोई नहीं जुटा पाता। सिर्फ इमारत में रहने वालों को निशाना बनाने के बजाय यह भी सोचना चाहिए कि इमारत में ऐसी क्या कमी है कि इसमें घुसते ही लोग अच्छे से अच्छे तंदुरुस्त (ईमानदार) लोग बीमार (करप्ट) हो जाते हैं?
छोटी सी बात लंबी होती जा रही है लेकिन बात निकली है तो खत्म किया जाना लाजिमी है। तमाम लोग यह मानते या कहते हैं कि करप्शन का कुछ हो नहीं सकता, सब चीजें ऐसे ही रहनी हैं, कुछ नहीं होना-बदलना है तो बहती गंगा में हाथ धोइए और मस्त रहिए। लेकिन पूरी तस्वीर निराशाजनक नहीं है। ए राजा को पद छोडऩा पड़ा, छापे पड़े, कलमाडी भी हटाये गये। आदर्श सोसायटी कांड में तो एक मुख्यमंत्री ही बलि चढ़ गये। जिस देश ने करप्शन को स्वीकार कर लिया है, वहां यह बात बड़ी है। इसे एक अच्छी शुरुआत कहना ज्यादा सही रहेगा। हो सकता है आने वाले दिनों में करप्शन के लिए टॉलरेंस और घटे तथा वाकई चीजें बदल जाएं। सुप्रीम कोर्ट शायद इसलिए ही ज्यादा ऐक्टिव है, क्योंकि उसकी अपनी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। कड़ी-कड़ी मिलकर ही जंजीर बनती है। इस तरह की हजारों अलग-अलग कोशिशें, आवाजें साथ मिलेंगी तो कल को चीजें बदल भी सकती हैं। हो सकता है कि इसमें पांच साल लगें या फिर पचास, हो सकता है शुरुआत आप करें और इसे अंजाम तक कोई और पहुंचाए लेकिन चीजें बदलनी हैं क्योंकि बदलाव ही दुनिया का नियम है।

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