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Saturday, December 11, 2010

यू पी में भी सुलग रही है बदलाव की अंगीठी


बसपा सुप्रीमो मायावती भी सड़क के उसी उतार की ओर बढ़ रही हैं, जिस तरफ चलते हुए लालू यादव व राबड़ी देवी का पराभव हुआ था। उनकी गलत रणनीति का ही परिणाम है कि उनके दोस्तों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और दुश्मनों की लिस्ट लंबी। विरोधी दलों के नेताओं को तो वह मौके-बेमौके फटकार लगाती ही रहती हैं, मीडिया से भी उनकी कम ही बनती है। यही वजह है कि कई बार सरकार की नेकनीयती की जानकारी भी जनता को नहीं हो पाती। अब तो उन्हें संवैधानिक संगठनों में भी खोट नजर आने लगी है।
जानकार कहते हैं कि बसपा सुप्रीमो को यह बात कभी रास नहीं आती कि उनके कामकाज के तरीके में कोई दूसरा हस्तक्षेप करे। जो ऐसा करता है, उसे वह अपना बैरी मान लेती हैं। जो समाज मायावती के सिद्धांतों से उद्वेलित हुआ था वहां उसके विरोध की चिनगारी अब शोला बन चुकी है।

बिहार में आ गये बदलाव को सबने देखा। असल में बदलाव का हीरो कोई एक नेता नहीं, राज्य की जनता है, जिसमें तरक्की की ललक जाग उठी है। यह तरक्की का एक सिलसिला है, जो इतिहास के चक्के की तरह चलता ही चलता है - खासतौर से लोकतंत्र में।
जब लोकतंत्र काम करना शुरू करता है, तो शुरुआती विंदु बहुत छोटे प्रतीकात्मक बदलावों में होता है। पहली बार वोट का बराबर हक मिलना और उसे लागू कर पाने में कामयाब हो जाना ही सबसे बड़ी बात हो जाती है। इस पैमाने पर खरा उतरने में ही भारत को कई दशक लग गये। उस दौरान एक-एक कर वे लोग सियासत और उसके जरिए सशक्तीकरण का हिस्सा बनते हैं, जिनकी कभी कोई आवाज ही नहीं रही। उस दौर में ठोस अर्थ व्यवस्था उतना मायने नहीं रखती, जितना सोशियॉलजी या सियासत। मसलन इंदिरा गांधी के लिए गरीबी हटाना उतना जरूरी नहीं था, जितना..गरीबी हटाओ.. का नारा लगाकर अपनी प्रजा में मेहरबानी का अहसास पैदा करना।
भारत में लोकतंत्र के भीतर सोशल इंजीनियरिंग का यह सिलसिला बेहद लंबा चला। कहना चाहिए कि अब 55-60 साल बाद यह पूरा होता दिख रहा है। दुनिया में कहीं इसकी मिसाल नहीं मिलती, क्योंकि कोई भी दूसरा देश इतना बड़ा, इतना बेढब और इतना गैर-बराबरी वाला नहीं है।
जब यह सिलसिला एक हद पर पहुंच जाता है, जैसा कि अब हो रहा है, पूरे देश में तमाम पिछड़े लोग खुलकर वोट दे रहे हैं, उनके दम या नाम पर सरकारें बन रही हैं, जाति सबसे चलताऊ मुद्दा है और जाति में से हीनता का पुराना अहसास खत्म होने लगा है, तो जाति की सियासत अपनी चमक खोने लगी है। हर फारमूला अपनी..एक्सपाइरी डेट.. साथ लेकर चलता है। जब सामाजिक लक्ष्य हासिल हो जाते हैं, तो लोग सियासत के दूसरे मतलब पर सोचने लगते हैं, जिसका नाम राजकाज है। वे पूछते हैं - आपने हमें क्या दिया? आप हमें क्या देने वाले हैं? वे महज नारों से शांत नहीं होते। वे ठोस जमीनी बदलाव देखना चाहते हैं। वे सपने देखने लगते हैं। अपनी तरक्की को लेकर एक दलित युवक भी उतना ही जिद्दी होगा, जितना एक सवर्ण युवक।
बिहार में यह जिद सियासत में झलक रही है, लेकिन बड़ा सवाल यह कि ऐसा उत्तर प्रदेश में अब तक क्यों नहीं हुआ, जो कई पैमानों पर बिहार से विकसित राज्य है और जहां यह कुदरती बदलाव पहले हो जाना चाहिए था? यूपी में कम-से-कम एक बार बदलाव के लिए सियासत की चालों को तरक्की की भूख के साथ साजिश रचनी होगी। बदकिस्मती से यह कहना मुश्किल है कि आगे ऐसा हो जाएगा। बिहार को संयोग से नीतीश मिल गये, यूपी को कौन मिलेगा?
लेकिन आखिरकार सब कुछ पब्लिक की मर्जी और उस सपने की ताकत से तय होना है, जिसके लिए हर चीज को बदलना पड़ रहा है। जब पूरा देश, पूरी दुनिया, हर रवायत, हर ताकत ने उसके सामने सिर झुकाया है तो यूपी और उसकी सियासत क्या चीज है? नामुमकिन साबित हो जाएं तो उम्मीदें पालने में क्या हर्ज है? इस बार यू पी में बदलाव की बारी है।

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