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Tuesday, December 21, 2010

पाकिस्तान में शांति


विकीलिक्स के खुलासे के बाद अमरीकी विदेश विभाग की रपटों की विश्वसनीयता कितनी रह गयी है यह तो समीक्षा और परीक्षा का विषय है पर अमरीकी विदेश मंत्रालय ने अफगानिस्तान-पाकिस्तान को लेकर जारी अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा है कि पाकिस्तानी सुरक्षा ढांचा वहां के आतंकी ठिकानों पर दबाव बनाने में कुछ हद तक कामयाब हो रहा है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पाकिस्तान ने इधर भारत से सटी अपनी पश्चिमी सीमा पर सैनिकों की तादाद घटायी है, जबकि अमरीकी दबाव के बावजूद उन्हें उत्तरी वजीरिस्तान भेजने के लिए वह तैयार नहीं हुआ है। हालांकि विकीलीक्स पर उजागर हुए दस्तावेजों ने उसके कुछ शीर्ष नेताओं की छवि पाकिस्तान के सामरिक हितों तक की अनदेखी कर देने वाले अमरीका के चमचों जैसी बना दी है। करीब छह महीने लगातार कभी फौज, पुलिस और खुफिया ठिकानों पर, कभी मस्जिदों और खानकाहों में तो कभी शिया धार्मिक जुलूसों पर आतंकवादी हमलों की झड़ी लगी रहने के बाद इधर कुछ दिनों से पाकिस्तान में शांति देखने को मिल रही है। आतंकी हमले देश के समूचे इतिहास में आयी सबसे जबर्दस्त बाढ़ के समय भी जारी रहे, लिहाजा हमले रुकने की कोई प्राकृतिक वजह तो हो नहीं सकती।

हो सकता है यह किसी आने वाले तूफान का संकेत है, या फिर इसे अमरीकी रिपोर्ट में वर्णित दबाव का नतीजा माना जाना चाहिए। पाकिस्तान की शांति का एक सिरा फिलहाल वहां की बैरकों में फौजियों की भारी मौजूदगी से भी जोड़ा जा सकता है। लेकिन क्या इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि अभी एक-दो महीने पहले तक पाकिस्तान के टूट-बिखर जाने या वहां धर्मांध आतंकवादियों का राज कायम हो जाने की जो आशंका जतायी जा रही थी, वह अब पूरी तरह समाप्त हो गयी है? विस्फोटों में कमी के बावजूद पाकिस्तान के सियासी हालात कोई अच्छा संकेत नहीं देते। पीपीपी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार के कुछ सहयोगियों के पाला बदल लेने से उसके कभी भी अल्पमत में आ जाने की आशंका बनी हुई है। कबाइली इलाकों में जारी ड्रोन हमलों से अमरीका पाकिस्तानी मध्यवर्ग की नजर में दिनोंदिन पहले से भी ज्यादा बड़ा खलनायक बनता जा रहा है। पाकिस्तानी लोकतंत्र के लिए यह सब अपशकुनों की श्रृंखला जैसी है।

अतीत में वहां लोकतांत्रिक ढांचे के कमजोर पडऩे का अर्थ यह लिया जाता था कि मौका देखकर सेना निर्वाचित सरकार को हटा देगी और खुद सत्ता संभाल लेगी। लेकिन अभी पाकिस्तानी जनमानस में सेना, अमरीका और लोकतांत्रिक पार्टियां, सभी एक पलड़े पर हैं, जबकि दूसरे पलड़े पर इस्लामी हुकूमत और इंटरनेशनल जिहाद का नारा देने वाली ताकतें लदी हुई हैं।
आधुनिक शासन प्रणाली और लोकतांत्रिक आदर्शों में यकीन रखने वाला पाकिस्तान का शिक्षित शहराती मध्यवर्ग अभी तक अपनी ताकत पश्चिमी और जब-तब भारतीय उदाहरणों से हासिल करता रहा है, लेकिन प्रेरणा के ये दोनों स्रोत फिलहाल उसके लिए बंद हैं। अमरीका के लिए अफगानिस्तान जीवन-मरण का प्रश्न बना हुआ है जबकि भारत मुंबई की चोट से अब तक नहीं उबर पाया है। पाकिस्तान की लोकतांत्रिक जमीन के लिए यह दोतरफा सूखा जानलेवा साबित हो सकता है।

आतंकवाद को खाद-पानी मुहैया करा रहे पाकिस्तानी ढांचे पर निशाना साधते हुए यह याद रखना जरूरी है कि वहां तार्किक और धर्मनिरपेक्ष सोच को जिंदा रखने की जिम्मेदारी भी भारत और अमरीका जैसे लोकतांत्रिक समाजों की ही है।
वैसे अमरीका में इस बात को लेकर मतभेद है कि क्या पाकिस्तान को भारत के बराबर तरजीह देनी चाहिए या नहीं। अमरीकी प्रशासन के एक धड़े का मानना है कि पाकिस्तान को भारत के ही बराबर आंका जाना चाहिए क्योंकि आतंक के खिलाफ अमरीका की लड़ाई में पाकिस्तान उसका अहम सहयोगी है। लेकिन दूसरे धड़े का मानना है कि अमरीका को भारत के साथ अपने रिश्ते को पाकिस्तान से अलग रखकर देखना चाहिए। कई अमरीकी रणनीतिकार मानते हैं कि लगातार विकास कर रहा भारत दक्षिण एशिया के दायरे से बाहर आकर पूर्वी एशियाई देशों की कतार में खड़ा हो गया है। उनका मानना है भारत की तुलना नाकाम साबित हो रहे पाकिस्तान से करना अमरीका और भारत के रिश्ते पर असर डाल सकता है।

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