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Friday, December 17, 2010

न्यायपालिका में परिवर्तन जरूरी


पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से न्यायिक क्षेत्र में पनप रहे कदाचार व अन्य अनियमितताओं की खबरें आती रही हैं, उसने एक बार फिर से इस चर्चा को गर्म कर दिया है कि क्या अब समय आ गया है जब पूरी न्याय प्रणाली में परिवर्तन किया जाए ।
अभी सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट के कुछ जजों को ध्यान में रखकर की गयी इस टिप्पणी की स्याही सूखी भी नहीं थी कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में कुछ सड़ गया लगता है, कि अब भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन के एक बयान को दो न्यायाधीशों के बयान झूठा साबित कर रहे हैं। जस्टिस बालकृष्णन ने कहा था कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि केंद्र सरकार के किस मंत्री का नाम लेकर मद्रास हाई कोर्ट में आर के चन्द्रमोहन नामक वकील ने न्यायमूर्ति आर. रघुपति पर एक आपराधिक मुकदमे में दबाव डालने की कोशिश की थी।

उस दौरान न्यायमूर्ति एच एल गोखले मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, जो अब सुप्रीम कोर्ट में आ गए हैं। उन्होंने एक बयान देकर साफ कर दिया है कि उन्होंने जस्टिस आर. रघुपति का पत्र अपने पत्र के साथ न्यायमूर्ति बालकृष्णन को भेजा था और उस पत्र के दूसरे पैरे में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा का नाम साफ लिखा था। यही नहीं, ए राजा द्वारा जज पर दबाव डाले जाने का यह मामला वैसे भी चर्चा में आ गया था और कई सांसदों ने प्रधानमंत्री को इस संबंध में जो ज्ञापन सौंपा था, उस पर भी मद्रास हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गोखले की टिप्पणी के लिए न्यायमूर्ति बालकृष्णन ने उन्हें पत्र लिखा था। न्यायमूर्ति बालकृष्णन इस तकनीकी नुस्खे की शरण लेते हुए दिखायी पड़ते हैं कि जस्टिस गोखले ने इस संबंध में जो अपनी रिपोर्ट भेजी थी, उसमें किसी मंत्री के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं था और वे एक जज द्वारा मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लिखे गए पत्र के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकते थे।
न्यायमूर्ति बालकृष्णन की यह दलील शायद ही किसी के गले उतरे क्योंकि पत्राचार में यदि प्रत्यक्ष तौर पर जस्टिस गोखले ने ए. राजा का नाम न भी लिखा हो, तो भी प्रकारांतर से न्यायमूर्ति रघुपति के नत्थी किये गये पत्र में तो वह नाम था ही। इसलिए देश में गलत हो या सही, धारणा तो बनी ही है कि न्यायमूर्ति बालकृष्णन यूपीए सरकार को बचा रहे थे। बालकृष्णन रिटायर होने के बाद अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बन गये हैं। मुख्य न्यायाधीश का पद इतना महत्वपूर्ण होता है कि वही राष्ट्रपति को शपथ दिलाता है। एक बार राष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद कोई भी व्यक्ति लाभ का पद ग्रहण नहीं करता। तब सवाल यह है कि मुख्य न्यायाधीश के लिए ही यह सुविधा क्यों हो? वैसे भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति में सरकार की भूमिका ही निर्णायक होती है। जाहिर है कोई भी सरकार चाहेगी कि उसका आदमी ही ऐसे पद पर बैठे और उसके लिए संकट खड़े न करे। इस पृष्ठभूमि में बालकृष्णन के लिए जरूरी है कि वे अपनी स्थिति स्पष्ट करें और अगर उनसे चूक हुई है तो अपने वर्तमान पद से हट जाएं।
पिछले एक दशक से न्यायपालिका की भूमिका में जिस तरह का बदलाव आया और एक स्वनिहित शक्ति का संचार उसमें आया स्वाभाविक रूप से उसमें समाज में व्याप्त वे सभी दुर्गुण आ गये जो अन्य सार्वजनिक संस्थाओं में आ जाते हैं। किंतु इस बात की गंभीरता को भलीभांति परखते हुए इसके उपचार में कई प्रयास भी शुरू हो गये थे । जजेज जवाबदेही विधेयक का मसौदा, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आदि का मसौदा इन्हीं प्रयासों का हिस्सा था। ये सरकारों की अकर्मठता है या आलस्य या फिर कि कोई छुपी हुई मंशा कि अब तक इस दिशा में कोई भी कार्य नहीं हो पाया है। न्यायिक प्रक्रिया की खामी की जहां तक बात है तो सबसे पहले और सबसे अधिक जो बात उठती है वो न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया जिसमें भाई- भतीजावाद का आरोप लगता रहता है। एक ही स्थान पर नियुक्त रहने के कारण इस अंदेशे को बल भी मिल जाता है। इन्हीं सबके कारण न्यायिक क्षेत्र में परिवर्तन और वह भी आमूल चूल परिवर्तन किए जाने के स्वर उठने लगे हैं।

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