सन्मार्ग कार्यालय में कल एक पत्र आया जिसमें सुधी पाठक ने बड़ी पीड़ा के साथ विभिन्न घोटालों का जिक्र करते हुए सवाल उठाया था -क्या सब चोर हैं? हमारे देश के बहुतेरे लोग ईमानदार और मेहनती हैं। मुश्किल हालात होने के बावजूद वे कड़ी मेहनत करते हैं और अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं। जीडीपी की विकास दर और शेयर बाजार की उछाल से उनके संघर्ष में बहुत अंतर नहीं पड़ता। उनमें से बहुतों के लिए जिंदगी की डगर बड़ी कठिन है। फिर भी वे हमारे सामने साहस, गरिमा और भरोसे की अद्भुत मिसाल हैं लेकिन वे निराश होते हैं सत्ता में बैठे कुलीनों से।
देश के दस फीसदी उन लोगों से, जिन्होंने लूट की कमाई हथिया ली है। हर जगह इन्हीं डकैतों और लुटेरे सामंतों का दबदबा है और उनका नेटवर्क इतना मजबूत है कि बाकी नब्बे फीसदी लोगों के लिए इस चक्रव्यूह को भेद पाना तकरीबन नामुमकिन है। ये लोग हमारे आसपास ही हैं। ये हर जगह मौजूद हैं। ये ही दस फीसदी लोग सियासत के फैसले लेते हैं, नीतियां बनाते हैं और इनमें से किसी पर आंच आने पर एक-दूसरे को बचाते भी हैं। संरक्षण के सामंती ठिकानों में जिस तरह सभी के हित एक-दूसरे से जुड़े होते हैं, ठीक उसी तरह इन लोगों का भी एक-दूसरे से गठजोड़ है।
जहां कोई गठजोड़ नहीं होता, वहां उनकी मदद करने के लिए पर्याप्त मात्रा में बिचौलिए और दलाल इर्द-गिर्द होते हैं। इसीलिए तो पार्टियां बदल जाती हैं, नेता बदल जाते हैं, वोट देने के तौर-तरीके और दस्तूर बदल जाते हैं, लेकिन भ्रष्टों के गठबंधन को कोई भी तोड़ नहीं पाता। संसद में भले ही वे एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहें, लेकिन वे सभी मौसेरे भाई हैं। रंगे हाथों धर लिए जाने के बावजूद वे बच निकलते हैं। उन्हें कभी सजा नहीं सुनाई जाती। बात घूम फिर कर वहीं आती है कि - क्या सब चोर हैं? यह गजब की बात है और यही बात टर्निंग पॉइंट भी साबित हो सकती है क्योंकि जब अंधेरा बढ़ता है तभी रोशनी की जरूरत महसूस होती है। अगर पापी पवित्र बनना चाहे तो इसे अच्छा ही कहा जाएगा न?
कई लोग यह बात पहले भी कह चुके हैं कि हो सकता है बहुत से लोग इसलिए भी भ्रष्ट हैं क्योंकि उनके पास इसके अलावा कोई ऑप्शन नहीं है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। आप लाख चाहें कि बिना घूस दिए, बिना सिफारिश किए, बिना जुगाड़ के, सही तरीके से आपके काम हो जाएं लेकिन आपके चाहने से क्या होता है? आपको सिस्टम की चक्की में पिसना ही पड़ेगा, आपकी मजबूरी है इस करप्शन में हाथ बंटाने की। फिर, आप भी वही करते हैं जो सब करते हैं लेकिन यह आधी बात है। अपनी तरफ से और अपनी सामर्थ्य के हिसाब से खुद का ईमानदार होना जरूरी है बजाय यह कहने के कि सब बेईमान हैं इसलिए मेरे पास तो कोई और रास्ता ही नहीं है। यह बात आज भी सही है कि हम बदलेंगे तो जग बदलेगा।
बिहार में तो सिस्टम इतना सड़ चुका था कि लोगों को लगता था कि वह लाइलाज है। फिर अचानक क्या हो गया? पिरामिड के सबसे नीचे वाले भी बदलाव चाहते थे और पिरामिड के सबसे ऊपर नीतीश कुमार भी चीजों को बदलना चाहते थे। बस, बदल गया बिहार। नेता वही, बाबू वही, जनता भी वही, लेकिन फिर भी सब बदल गया, एक झटके में। अब मीडिया में एक्सपर्ट लोग कह रहे थे कि पूरे देश को बिहार मॉडल अपनाना चाहिए यानी वोट दें ईमानदार को ताकि सुशासन आए। यह भी लगता है कि हम ज्यादातर नेताओं या लोकतांत्रिक पदों पर बैठे भ्रष्ट लोगों को लेकर ही हल्ला करते हैं जबकि वे तो पांच साल के लिए इस सिस्टम का हिस्सा बनते हैं।
इसको ऐसे समझें कि एक इमारत है जिसका नाम है ब्यूरोक्रेसी जिसमें थोड़े-थोड़े दिनों के लिए जनता के प्रतिनिधि ठहरने आते हैं। हालांकि इनके पास ताकत होती है, लेकिन जिस इमारत में वह रहते हैं, लाख खराब सही, उसको गिरा पाने की हिम्मत शायद कोई नहीं जुटा पाता। सिर्फ इमारत में रहने वालों को निशाना बनाने के बजाय यह भी सोचना चाहिए कि इमारत में ऐसी क्या कमी है जो इसमें घुसते ही लोग अच्छे से अच्छे तंदरुस्त (ईमानदार) लोग बीमार (करप्ट) हो जाते हैं?
तमाम लोग यह मानते कहते हैं कि करप्शन का कुछ हो नहीं सकता, सब चीजें ऐसे ही रहनी हैं, कुछ नहीं होना लेकिन याद रखें गांधीजी ने हमारे लिए लड़ाई लड़ी और जान दे दी। सुभाषचंद्र बोस और बाकी नेताओं ने भी यही किया। ऐसे में हम चंद लोगों के हाथ में सारी ताकत कैसे सौंप दें और उनसे यह कैसे कह दें कि देश को चाहे जैसे चलाये। हम इस अहसास के साथ क्यों जीते रहें कि सब चोर हैं!
Friday, December 3, 2010
क्या सब चोर हैं?
Posted by pandeyhariram at 1:45 AM
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