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Tuesday, December 21, 2010

ओस्लो में चीन की खाली कुर्सी और शांति का मसीहा


इतिहास बताता है कि ईसा के बाद गांधी एकमात्र ऐसे इंसान थे जिन्होंने न केवल अहिंसा को कारगर हथियार बनाया, बल्कि अहिंसा को राजनीति का तंत्र बनाकर सत्ता के समीकरणों में कार्य और कारण पदों के दर्शन को नया तर्क दिया।
ऐसे में इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित चीन के बंदी असंतुष्ट ल्यू श्याओपो को उनकी अनुपस्थिति में यह पुरस्कार प्रदान किए जाने के बाद उस व्यक्ति के बारे में सोचना उचित होगा, जिसे कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला।

वह व्यक्ति और कोई नहीं, महात्मा गांधी हैं। नोबेल ग्रहण करने से रोक दिए जाने के बावजूद ल्यू और इसकी सूची से ही हटा दिए जाने के बावजूद गांधीजी के महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता। जब एटनबरो की फिल्म गांधी ने ऑस्कर जीते थे, तब फिल्म के पोस्टरों पर लिखा गया था कि..गांधी के विचारों ने दुनिया को हमेशा के लिए बदल डाला।... लेकिन क्या सचमुच ऐसा हुआ?

गांधी-प्रेरित ग्लोबल परिवर्तन में मुख्य भूमिका अमरीका के सिविल-राइट्स लीडर मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) ने निभायी। अमरीका के दक्षिणी हिस्सों में नस्ली भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष का नेतृत्व करते हुए किंग ने भारत के बाहर अहिंसा का किसी और व्यक्ति की तुलना में कहीं ज्यादा कारगर ढंग से इस्तेमाल किया। उनके यादगार शब्द थे- नफरत से नफरत फैलती है, हिंसा से हिंसा फैलती है, हमें घृणा की ताकतों का मुकाबला आत्मा की शक्ति से करना चाहिए। किंग ने बाद में यह घोषणा की,...'अहिंसक प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका हमारे आंदोलन का पथ-प्रदर्शक बन चुका है। क्राइस्ट ने भावना और प्रेरणा प्रदान की, गांधी ने तरीका सिखाया।..

पिछले महीने बराक ओबामा ने भारत की संसद से कहा था कि यदि गांधी न होते तो आज वे यहां अमरीका के राष्ट्रपति के रूप में नहीं खड़े होते। गांधीवाद ने अमरीका को हमेशा के लिए बदलने में मदद की, लेकिन इसकी सफलता के अन्य उदाहरण खोजना मुश्किल है। भारत की आजादी ने उत्तर-औपनिवेशिक युग की शुरुआत जरूर की, लेकिन अधिकांश देशों ने खूनी संघर्ष के बाद ही साम्राज्य की बेडिय़ों से मुक्ति पायी। इसके बाद कुछ कौमें दोबारा हमलावर फौजों के जूतों तले दब गयीं। उन्हें उनकी जमीनों से महरूम कर दिया गया या इतना आतंकित कर दिया गया कि लोग अपने घर छोड़ कर भाग गये। अहिंसा ने उनके लिए कोई समाधान पेश नहीं किया।
सच पूछा जाए तो अहिंसा उन विरोधियों के खिलाफ ही कारगर होती है, जिन्हें अपनी नैतिक सत्ता गंवाने का डर हो। यानी ऐसी सरकारें जो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय जनमत का ख्याल रखती हों और जिन्हें हार मानने के लिए बाध्य किया जा सके। गांधी के अपने समय में ही अहिंसा यहूदियों का कत्लेआम नहीं रोक सकती थी।
गांधी यह कहते हुए बहुत ही अयथार्थवादी लग सकते हैं...निर्दोष का स्वैच्छिक बलिदान निर्मम क्रूरता का सबसे शक्तिशाली जवाब है।.. ..सविनय अवज्ञा आंदोलन.. में शामिल होने वालों को ईमानदार और संयमित होना चाहिए। अपने विरोध में उन्हें कभी भी उग्र नहीं होना चाहिए, इसके पीछे कोई दुर्भावना या घृणा नहीं होनी चाहिए। नागरिक अवज्ञा पीड़ा को चुपचाप सहने के लिए एक तैयारी है। इसमें कोई उत्तेजना नहीं होनी चाहिए।..दमनकारी सरकारों के तहत कष्ट भोग रही दुनिया के अनेक लोगों के लिए इस तरह का उपदेश साधु-संत बनने के किसी नुस्खे जैसा है। चुपचाप सहना एक नैतिक सिद्धांत के तौर पर अच्छा है लेकिन सार्थक परिवर्तन लाने के लिए इसका इस्तेमाल सिर्फ गांधीजी ही कर सकते थे।

दुःखद सच्चाई यह है कि संगठित हिंसा की ताकत हमेशा अहिंसा से अधिक होती है। मुंबई के आतंकी हमलों ने दर्शाया है, भारत आज सीमापार आतंकवाद के जिस खतरे का सामना कर रहा है, उसका जवाब महात्मा सिर्फ उपवास के रूप में देते और इसका आतंकवाद को बढ़ावा देने वालों पर कोई असर नहीं पड़ता।
अपने अंतरराष्ट्रीयतावाद के संदर्भ में महात्मा ने जो आदर्श विचार रखे हैं, उन्हें बहुत कम लोग खारिज कर सकते हैं लेकिन उनके निधन के बाद गुजरे दशकों ने इस बात की पुष्टि की है कि युद्ध और हिंसा से बचा नहीं जा सकता। गांधीजी के निधन के बाद से युद्धों और बागी गतिविधियों में करीब 2 करोड़ जानें गयी हैं। अनेक देशों में, जिनमें भारत भी शामिल है, सरकारें सैनिक उद्देश्यों पर जितना खर्च कर रही हैं, वह शिक्षा और हेल्थ केयर को मिलाकर होने वाले खर्च से भी कहीं ज्यादा है। दरअसल, नैतिक सत्ता के बगैर गांधीवाद, सर्वहारा के बगैर मार्क्सवाद जैसा है।
दुनिया में गांधी के तरीके आजमाने वालों में ऐसे लोग बहुत कम हैं, जो उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी या नैतिक कद की बराबरी कर सकते हैं। इसके बावजूद गांधी के विचारों की मौलिकता और उनके जीवन का उदाहरण आज भी दुनिया भर में लोगों को प्रेरित करता है। ल्यू श्याओपो भी शायद इस बात से इत्तफाक करेंगे।

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