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Tuesday, December 21, 2010

भ्रष्टाचार सबसे बड़ी समस्या पर कुछ निदान तो हो


इन दिनों ऐसा महसूस होता है कि भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता देश की सबसे बड़ी समस्या है। इनके खत्म होते ही देश की सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी।
कांग्रेस का 83 वां महाधिवेशन सोमवार को समाप्त हो गया। इस अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और अन्य नेताओं ने भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता पर सबसे तीखे वार किये। सोनिया गांधी ने विपक्ष पर सीधा हमला किया और टेलीकॉम घोटाले के चलते संसद न चलने देने पर उन्होंने अपनी नाराजगी प्रकट की। उन्होंने धार्मिक आतंकवाद को भी निशाना बनाया।
अधिवेशन के पहले से ही देश का राजनीतिक वातावरण काफी गरमा चुका है। राजा का टेलीकॉम घोटाला, पत्रकारों, नेताओं व उद्योगपतियों के साथ नीरा राडिया की टेलीफोन वार्ताओं के चुनिंदा टेप, बिहार चुनाव में कांग्रेस को मिली बड़ी हार और विकीलिक्स के खुलासों के चलते देश एक अजीब माहौल से गुजर रहा प्रतीत होता है।

कांग्रेस पार्टी का इस सबसे अछूता रहना कठिन है। इसी दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी विपक्ष के आक्रमण के दायरे में आए हैं। जनता ने उनकी..'मिस्टर क्लीन.. छवि पर प्रश्नचिह्न लगाना शुरू कर दिया है। इस पार्श्वभूमि में सोनिया गांधी द्वारा भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना बड़ी रणनीति का भाग दिखता है। उन्होंने इस संबंध में कर्नाटक का नाम लेकर भाजपा से पूछा कि कैसे भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दो मुंही बातें कर सकती है।
निश्चित ही कांग्रेस पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, उससे वे जनता का ध्यान दूसरी तरफ ले जाना चाहती हैं। गैलप इंटरनेशनल ने साल के प्रारंभ में देश में एक सर्वे किया था, जिसमें 54 फीसदी लोगों ने माना कि उन्होंने पिछले एक वर्ष में रिश्वत देकर अपना कार्य कराया। चाहे आप रिश्वत देने को किसी भी कारण से जायज ठहराएं, लेकिन यह भी उतना ही कटु सत्य है कि ऐसे प्रत्येक कार्य से देश के ही किसी अन्य नागरिक के न्यायपूर्ण अधिकारों की अनदेखी होती है। कल जब यही व्यक्ति हताश होकर रिश्वत देकर अपना कार्य कराता है तो हम व्यवस्था को कोसने लगते हैं। ट्रेन में बिना आरक्षण यात्रा करते समय टीटीई को पैसे देकर खाली बर्थ हथियाते समय कभी भी यह विचार हमारे मन में क्यों नहीं आता है कि जिस यात्री के पास प्रतीक्षा सूची का टिकट है, हम उसका हक मार रहे हैं?
ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि अनैतिक तरीके से ऊपर उठे लोगों के बीच एक अघोषित-सा गठजोड़ बन जाता है। समाज में गिरते नैतिक मूल्यों के बावजूद समाज के हर घटक में अच्छे लोगों की कमी नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे इन नेक लोगों पर नकारात्मकता हावी होती जाती है। तंत्र की उदासीनता ऐसे लोगों को निराशावाद की ओर धकेलती है। नतीजा यह होता है कि जो लोग समाज को प्रगति के रास्ते पर ले जाने में अहम भूमिका अदा कर सकते थे, वे आपसी चर्चाओं द्वारा ही मन की भड़ास निकालने को मजबूर हो जाते हैं। धीरे-धीरे उनकी यह धारणा मजबूत होती जाती है कि व्यवस्था में इतना घुन लग चुका है कि अब इसका कुछ भी भला नहीं हो सकता। माना कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं है, लेकिन क्या कभी कोई बड़ी चीज आसानी से हासिल हुई है?

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