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Friday, December 17, 2010

भ्रष्टाचार के सवाल पर


कई प्रबुद्ध पाठकों और सहयोगियों का मानना है कि करप्शन से अब लोग ऊब चुके हैं। फिर भी उनका मानना है कि इसे दूर करने के उपायों पर लिखा जाना चाहिये। जहां तक करप्शन का सवाल है तो यह हर व्यक्ति के लिए बड़ा मुद्दा है और ऐसा पहले कभी नहीं हुआ और अब हमें करप्शन के खिलाफ और ताकत से आगे आना चाहिए। देश को घुन की तरह खा रहा भ्रष्टाचार, यही वह समय है, जब कोशिश की जाए तो करप्शन के खिलाफ असरदार कानून बनाया जा सकता है क्योंकि इस वक्त कोई राजनीतिक दल, जनता के गुस्से के डर से, इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। भ्रष्टाचारी भी तो यही चाहते हैं कि लोग करप्शन की बातों के प्रति उदासीन हो जाएं और सब कुछ भुला दें तो वे देश को लूटने के अपने धंधे में दोबारा लग जाएं।
पिछले कुछ दिनों से टी वी चैनलों और अखबार की बातचीत में भ्रष्टाचार मुख्य विषय रहा है और इस पर भी चर्चा होती रही है कि एंटी करप्शन एजेंसियां कितनी कारगर हैं ? वहां यह बात भी हुई कि क्या सीबीआई को इतनी आजादी है कि वह ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण पर कार्रवाई कर सके? या फिर क्या सीवीसी के पास भ्रष्टाचार से लडऩे की ताकत है? एक और चर्चा हुई कि करप्शन कंट्रोल में मीडिया की भूमिका क्या है। अलग-अलग क्षेत्रों के नामी लोगों के विचारों से हजारों पन्ने भरे जा सकते हैं लेकिन, सबसे कारगर विचार है प्रस्तावित एंटी करप्शन, शिकायतों के हल और गवाहों की सुरक्षा के लिए प्रस्तावित विधेयक। जो लोग करप्शन और कानून के बारे में जानकारी रखते हैं उन्हें मालूम होगा कि सरकारें इसे लोकपाल का नाम देती आयी है।

लेकिन यहां शक लगता है कि जिन लोगों ने यह विधेयक बनाया है, वे भी आखिरकार इसी कनफ्यूजन को बरकरार रखना चाहते होंगे। मौजूदा विधेयक में लोकपाल के पास केवल सलाह देने की क्षमता होगी जबकि व्यावहारिक तो यह है कि अगर लोकपाल को वाकई प्रभावी बनाना है तो उसके पास खुद जांच की शुरुआत करने और मुकदमा चलाने की ताकत होनी चाहिए, बगैर किसी की इजाजत लिए। विधेयक में लोकपाल को जानबूझकर दंतहीन और निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की गयी है।
यह बात एकदम सही है कि इस तरह की ज्यादातर एजेंसियां जिनके पास केवल संस्तुति करने का अधिकार होता है -चाहे सीवीसी हो या सीएजी या फिर ट्राई- वे प्रभावहीन होती हैं।
इसके अलावा लोकपाल के सदस्यों की रिटायरमेंट उम्र, अधिकारों, चयन, पारदर्शिता और जवाबदेही पर भी विचार जरूरी है। यह बात भी जरूरी है कि देश का नुकसान करने वाले भ्रष्टाचारियों से इसकी भरपाई कैसे की जाए। लेकिन प्रस्तावित विधेयक में इस विषय पर भी कुछ नहीं है। क्या किसी को मुख्यमंत्री या मंत्री के पद से हटा देना काफी है? नहीं, इससे घोटाले या घपले में गया धन वापस नहीं आएगा
जिस तरह से देश के सबसे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां की जाती हैं, उन पर अक्सर उंगलियां उठती रही हैं। आमतौर पर यह महसूस किया गया है कि अगर सब नहीं तो भी कई नियुक्तियों के पीछे योग्यता के बजाय और कई कारक होते हैं। इसके पीछे उस आदमी की व्यवस्था के साथ काम करने की क्षमता, उसके राजनीतिक संबंध, सत्ता के साथ नजदीकी और कई बार उस कुर्सी को खरीदने की क्षमता भी हो सकती है।
जब सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर की शुरुआत में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की नियुक्ति पर सरकार की खिंचाई की थी तो उस पर अटॉर्नी जनरल ने ब्लैकमेल करने के लहजे में प्रतिक्रिया दी थी। सुप्रीम कोर्ट खुद इससे जूझ रही है कि आम जनता को उन कसौटियों को जानने दिया जाए या नहीं, जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्तियां की गयी हैं और उनके ट्रांसफर किए गए हैं। केंद्र्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेशों में कहा था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है।
कल्पना कीजिए, अगर ज्यादा से ज्यादा लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के बारे में रुचि लें और एक सही प्रक्रिया के तहत छानबीन करें तो उसके नतीजे कुछ और होंगे। अगर इसी तरह की पब्लिक स्क्रूटिनी अहम संवैधानिक पदों पर होनेवाली नियुक्तियों के बारे में भी की जाए, तो इसका नतीजा कितना सुखद होगा।

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