हरिराम पाण्डेय
परम पावन दलाई लामा ने अवकाश प्राप्त करने का मन बना लिया है। उन्होंने निर्वासित तिब्ब्त सरकार के राजनीतिक और प्रशासनिक प्रमुख का पद छोडऩे की इच्छा जाहिर कर दी। विगत 52 वर्षों से तिब्बत की आजादी की आकांक्षी जनता की आकांक्षओं का प्रतिनिधित्व करने वाले दलाई लामा की लम्बी आयु की कामना के साथ हमें अब इस बात के लिये मानसिक रूप से तैयार होना पड़ेगा। दलाई लामा 10 मार्च 1959 को ल्हासा से भारत आए थे। यह उनके भारत निर्वासन का 52वां वर्ष है। इस दिवस पर वे हर वर्ष एक संदेश देते हैं। इस बार के संदेश में आई उनकी इस घोषणा पर निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री सामदोंग रिनपोचे ने कहा कि परम पावन (दलाई लामा) के अनुरोध के बावजूद तिब्बती एवं निर्वासित सरकार बिना उनके अपना नेतृत्व स्वयं करने में सक्षम नहीं मानती। हालांकि आगे उन्होंने कहा कि तिब्बती सरकार को लोगों की आकांक्षाओं एवं परम पावन की चाहत को समायोजित करने के लिए नये रास्ते ढूंढने होंगे। रिनपोचे के इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि दलाई लामा की चाहत आसानी से पूरी होने वाली नहीं। लेकिन यदि वे नहीं रहते हैं तो उनके सपनों को कैसे पूरा किया जा सकता है, इस बारे में वार्ता उनके प्रति अनादर का भाव कतई नहीं माना जा सकता है। यह तो तय है कि उनके अवसान के बाद उनके वारिस की वैधता पर गंभीर सवाल उठाये जायेंगे। उनमें सबसे ज्यादा पूछा जायेगा कि उनका वारिस तिब्बतियों द्वारा चुना गया है और उनके द्वारा पूजनीय है अथवा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों की कठपुतली किसी समिति द्वारा चुना गया होगा। जैसा कि पंछेन लामा के बारे में हुआ। दोनों को लेकर काफी विवाद हुआ। एक का चुनाव तिब्बती परम्पराओं के मुताबिक तिब्बती सरदारों द्वारों किया गया था और दूसरे निर्र्वाचन में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी चाल चली थी। परम पावन के बाद अगले दलाई लामा को स्थापित होने के पूर्व तक खटकने वाला खालीपन रहेगा। जब तक अगले दलाई लामा तिब्बती परम्परा के अनुसार निर्वाचित होकर संस्कारित नहीं हो जाते तबतक यह खालीपन कायम रहेगा। इस अवधि में तिब्बत की निर्वासित सरकार के बुजुर्ग तथा सयाने लोगों का यह कर्तव्य होगा कि वे तिब्ब्ती जनता के हितों का ख्याल रखें और उनका मनोबल ऊंचा रखने की कोशिश करें। ऐसा न हो कि वारिस के सवाल पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी चीन और बाहर की तिब्बती जनता में अफवाहें फैलाकर भ्रम न पैदा कर दे। तिब्बत की जनता को सही दिशा दिखाने और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के षड्यंत्रों को विफल करने के लिये जरूरी है कि कोई ऐसा राजनीतिक नेता जिसे तिब्बत की जनता का आदर और विश्वास हासिल हो तथा परम पावन का भी विश्वास पात्र हो परम पावन के साथ रहे। उनके अवसान तक ऐसे किसी आदमी के चयन को रोके रखना अक्लमंदी नहीं होगी। परमपावन दो तरह के शिरस्त्राण धारण करते हैं, उनमें एक उनके धार्मिक प्रमुख होने का होता है तथा दूसरा शासन प्रमुख होने का होता है। धर्मप्रमुख का शिरस्त्राण वे अभी किसी को ना सौंपे और जब तक जीवित रहें उस हैसियत से काम करते रहें। जबकि वे अपना प्रशासनिक तथा राजनीतिक पद किसी ऐसे व्यक्ति को सौंप दें जो खुद उनका और तिब्बत की जनता का विश्वस्त हो। उस व्यक्ति के चयन पर वे स्वयं निगरानी रखें जिससे देश और विदेशों में बसे तिब्बतियों में भरोसे की कमी नहीं हो। पृथक राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिनिधि का चयन तिब्बती जनता और सरदारों द्वारा तुरत आरंभ कर देना चाहिये। गत 10 मार्च को दलाई लामा द्वारा दिये गये भाषण कि वे अब अपने राजनीतिक और प्रशासनिक अधिकार किसी दूसरे को सौंप देना चाहते हैं, पर तिब्बती जनता को ज्यादा भावुक नहीं होना चाहिये। उन्हें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिये और परम पावन का आशीर्वाद प्राप्त किसी योग्य राजनीतिक प्रतिनिधि के चयन की प्रक्रिया आरंभ कर देनी चाहिये।
Tuesday, March 15, 2011
Posted by pandeyhariram at 6:07 AM
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