हरिराम पाण्डेय
ठंडक ने आहिस्ता से मौसम का गाल चूमा और मौसम के रगों में गर्मी दौड़ गयी... लोगों ने कहा वसंत आ गया। होली आ गयी।...और आज सचमुच होली है।
लेकिन कहां ... कल शाम पड़ोस की एक महिला ने बताया कि सड़कों पर रौनक नहीं है। उसकी भूरी पारदर्शी आंखों में विषाद बैठा साफ दिख रहा था। ...वसंत आया, तो गया कहां?
आधी रात को एक पड़ïोसी के पिंजरे में कैद कोयल देर तक चीखती रही। शायद वसंत को टेर रही थी।
सचमुच वह तो खो गया है, सीमेंट और कंकरीट के जंगल में। अब प्रकृति के रंग भी बदलने लगे हैं। लोग तो और भी तेजी से बदलने लगे हैं।
हेमंत के पियरा पत्ते एक एक कर झर चले हैं, जीर्ण वसन विहाय प्रकृति नया परिधान धारण कर रही है, वह ललछर नन्हा मुन्हा किसलय और वह चिकनी रेशमी कोंपलें जैसे मेरे अपने पोते और पोती।
और अब छोटे छोटे पीले फूलों की बहार है। हवा का एक शरीर झोंका उन्हें छेड़ जाता है, सरसों की पतली कमर हजार हजार बल खा गयी, लाजवंती तन्वंगी छुईमुई हो चली, वासंती छवि सबकी आंखों में अंजन बन जाती है। सामने एक स्वर्ण द्वीप जगमगा रहा है। सोने के ताल में लहरिया वर्तुल थिरक रही है। सारा का सारा पलाश वन दहक उठा है। एक मशाल जुलूस सा यह पलाश वन। झारखंड में बीते बचपन में जो मील - मील के लंबे पलाश वन देखा था वह आंखों के सामने थिरक उठा।
फूलों का मौसम अर्थात अहर्निश अगरु, धूप, गंध चर्चित प्रार्थना का मौसम। शायद ऐसे ही मौसम में विदुर के घर कृष्ण आए े होंगे। यह दृष्टि कहां से आये। यह दृष्टि... यह संवेदनशीलता जिसे हमारा क्षण क्षण पर्व बन जाए और संपूर्ण जीवन एक उत्सव, एक समारोह हो जाए। प्रतिकूल कठिनतम परिस्थितियों में भी जीवन की इस उत्सव धर्मिता को निस्तेज न होने देना ही कदाचित वास्तविक पुरुषार्थ है। जब हम हंसते हैं तो वह हंसी वास्तव में परमात्मा द्वारा प्रदत्त प्रसन्नता की हमारी ओर से एक कृतज्ञतापूर्ण स्वीकृति होती है। विख्यात जैन मुनि प्रसन्न सागर ने एक दिन बातों ही बातों में कहा था कि 'हम केवल कृतज्ञ होना सीख सकें तो हमें किसी प्रार्थना या उपासना की आवश्यकता नहीं होगी। कृतज्ञता स्वयं में सर्वोत्तम प्रार्थना और उपासना है।Ó लेकिन आज मानव समुदाय त्रस्त है। स्वयं उसके भीतर अभावों ,लोकैषणा और एक अदद चुपड़ी वासना का अनवरत होलिका दहन हो रहा है और उसमें इंसान की ईमानदारी, निष्ठा, आस्था, श्रद्धा, स्वाभिमान का प्रह्लाद नित्यप्रति भस्म होता जा रहा है। नृसिंह के प्रकट होने में तो अभी विलंब है। कौन है जो इस होलिका दहन से आदमी भीतर के प्रह्लाद को बचाएगा। त्राण बाहर खोजना स्वयं में एक नादानी है । त्राण तो अपने भीतर है उसे टेरना होगा। इस टेरने और हेरने के क्रम में स्वयं में एक टेर हो जाना होगा। हेरते-हरते हेरा जाना होगा।
दरअसल यह वसंत तो कंदर्प का सखा है यह होली का पर्व स्वयं में मदनोत्सव है। महाशिव की समाधि भंग करने जब काम गया था तब उसका सखा वसंत भी उसके साथ ही था। परंतु शिव के तीसरे नेत्र को बचा न सका। भगवान शंकर का कोप भी विधाता के इस नटखट बेटे के लिये वरदान हो गया। वह अनंग अशरीरी होकर और भी व्यापक हो गया ऐसे में कामस्तवन की गुनगुनाहट सुन पड़ती है।
कुसुम लिपि में लिखे आमुख
मूल जिससे निसृत हर सुख
अपरिचित तुमसे सभी दुख
अनवरत गतिशील सक्रिय
कब हुए श्लथ
अहे मन्मथ
विधाता का यह बेटा निहायत नटखट सिद्ध हुआ। सबसे पहले इसने विधाता को ही अपने पंच साधक का लक्ष्य बनाया फिर क्या था ब्रह्मा आत्मज सरस्वती पर आसक्त हो गये। धर्म के देवता यम और सहोदरा यमी को परस्पर कामगत आकर्षण से दग्ध कर दिया था इस मीन केतु ने। यही नहीं क्यूपिड के रूप में इसने यूनानी पुराण में कौन से अनर्थ नहीं कराए।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहते हैं अधोगत काम विधाता और यम जैसे अनर्थ कराता है, बलात्कार और हत्याएं करवाता है और कामोन्नयन संस्कृति को राधा-कृष्ण उमा-महेश, कालिदास , टैगोर और गेटे आदि देता है। होली के रंग में सराबोर लथपथ अबीर गुलाल के बादलों में विजेता के डैनों पर उड़ते हुए मन को जब यह हल्की हल्की आंच देता है तो पोर पोर अनिर्वचनीय आनंद का आतिथेय होता है।
... और तब कहते हैं कि वसंत खो गया है। वसंत पूरी मादकता के साथ लहकता रहता है। ये सारे तथ्य बताते हैं कि वसंत है, यहीं कहीं है, हमारे भीतर है, हम सबके भीतर है, बस, जरा-सा दुबक गया है और हमारी आंखों से ओझल हो गया है। अगर हम अपने भीतर इस वसंत को ढूंढ़े, तो उसे देखते ही आप अनायास ही कह उठेंगे- हां यही है वसंत, जिसे मैं और आप न जाने कब से ढूंढ़ रहे थे। वसंत वहीं है। वसंत कहीं नहीं खोया है। अभी भी वही रौनक है मैडम पड़ोसन! ... आधी रात को कोयल की कूक? वह तो वसंत में कैद की पीड़ïा है।
Friday, March 18, 2011
वसंत खोया नहीं है
Posted by pandeyhariram at 1:06 AM
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