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Friday, March 4, 2011

लाखों फूंके जाएंगे अरबों के घोटाले पर


हरिराम पाण्डेय
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संसदीय जांच समिति (जेपीसी)का गठन किया जा चुका है। इसमें ऐी कोई व्यवस्था नहीं ह कि जिस पर जुर्म साबित हो उससे समिति का खर्चा भी वसूला जायं यह समिति सरकारी खर्चे यानी महंगाई पीडि़त भारतीय जनता के टैक्स से चलेगी। यानी हमारा और आपका रुपया इसमें लगेगा। विडम्बना देखिये कि इस जांच में जनता की कोई भागीदारी नहीं है। अब हमारे लाखों रुपये खर्च कर इस घोटाले से पर्दा उठाने की कोशिश करेगी। अब चूंकि गरीबों का पैसा इसमें लग रहा ह तो हम भारत की जनता कुछ सवाल तो इस समिति से पूछ ही सकती है। सवाल है कि क्या इससे वह पाया जा सकेगा, जिसकी इससे उम्मीद की जा रही है? कुछ और खुलासे करने के बजाय, क्या वह असली मकसद को पा सकेंगे? क्या इस 'कीमतीÓ जेपीसी से कुछ और पाने की उम्मीद की सकती है? और सबसे अहम बात यह कि आखिर क्यों नहीं इसे पारदर्शी बनाते हुए इसमें पब्लिक की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए?
इससे पहले भी दो चर्चित घोटालों पर जेपीसी का गठन हो चुका है। एक 1990 में शेयर घोटाले में और दूसरी 2003-2004 में एक शीतल पेय में पेस्टिसाइड्स की जांच के लिए।
शेयर घोटाले पर गठित जेपीसी का हाल हम सभी जानते हैं। तब चेयरपर्सन ने कई गोपनीय तथ्य गैरजरूरी प्रेस ब्रीफिंग कर लीक कीं। यह अक्सर देखा गया कि मीडिया को एक खास मकसद से मसालेदार टिप्स दी गईं।
जेपीसी के बाद इस पर खूब हंगामा हुआ। स्टॉक मार्केट रेग्युलेटर मजबूत हुए, लेकिन इन सबके बावजूद कई बड़े स्टॉक मार्केट घोटाले हुए। जिसका खामियाजा आम आदमी और छोटे निवेशकों को भुगतना पड़ा।
फरवरी 2004 में शीतल पेय में कीटनाशी पर बनी जेपीसी ने अपनी जांच में सेंटर फॉर साइंस ऐंड इन्वाइरनमेंट की उस स्टडी की तस्दीक की जिसमें बताया गया था कि देश में बिक रहे शीतल पेय के टॉप 12 ब्रैंड्स में खतरनाक स्तर तक कीटनाशी मौजूद हैं। लेकिन हुआ क्या? मेरा मानना है कि जेपीसी की यह पूरी कवायद बस खानापूर्ति है। जेपीसी के अधिकतर सदस्यों के लिए यह सम्मानजनक काम भर है।
यह क्यों नहीं हो सकता जैसा कुछ ने सुझाया भी है कि इसमें पब्लिक की भागीदारी भी हो। आमतौर पर इसमें राजनीतिज्ञ ही शामिल रहते हैं। एक-दूसरे को संतुष्ट करने के उनके रवैये से पब्लिक के सामने बहुत कम चीजें सामने आ पाती हैं। हमें इसे क्यों स्वीकार करना चाहिए?
सब लोग े जानते हैं कि घोटाले क्यों होते हैं। इसके लिए इरादतन बनाई गई नीतियां और उनमें छोड़े गयी अंधी गलियां जिम्मेदार हैं। ये वीथियां तथ्यों से छेड़छाड़ करने, जुबानी ऑर्डर देने और विवेकाधीन अधिकारों के दुरुपयोग की ताकत देती हैं।
सवाल तो यह है कि जो लोग इस खेल के मास्टर हैं, वे इस गंदगी को दूर करने में दिलचस्पी दिखाएंगे? कभी नहीं। इन सब से बचने के लिए जरूरी है कि इसमें पब्लिक की भागीदारी भी हो। जांच में मिले तथ्य पब्लिक फोरम में रखें जाएं। इससे संचालन में कुछ दिक्कतें आ सकती हैं, इतने सारे विचारों और सुझावों को साथ रखना थोड़ा मुश्किल जरूर है, लेकिन यह असंभव नहीं है।
जब हम इसमें होंगे और जानेंगे कि आखिर ये घोटाले होते कैसे हैं, क्यों नहीं कमिटी को इसकी जांच के लिए थोड़ी और शक्ति देने और अंधी गलियों को बंद करने के तरीके सुझाने की सिफारिश कर सकते, जिससे इन घोटालों को जड़ से खत्म किया जा सके, या कम से कम तो किया ही जा सके। जनता के पैसे से चलने वाली कमिटी जनता फंड की लूट को भी क्यों नहीं बेनकाब करती? वह अपने आपको केवल एक घोटाले तक ही क्यों सीमित रखती है?
वैसे लगता नहीं है कि इस कमिटी से कुछ होगा या जांच में कोई खास बात निकल कर आयेगी या कोईै सुधार होगा। अलबत्ता इस फैसले का एक सकारात्मक पहलू यह है कि संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलेगी और बजट सत्र में व्यवधान नहीं पड़ेगा।

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