हरिराम पाण्डेय
सरकार की निगाह में देशवासियों का लगता है कोई वजूद ही नहीं है। सरकार देशवासियों के स्वास्थ्य को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है, खास कर गांवों में रहने वाली आबादी को तो वह तरजीह ही नहीं देती। वैसे मुंह से कहने के लिये हमारे मंत्री चाहे जो कहें पर इस बार के बजट में स्वास्थ्य के लिये प्रावधान को देखकर ऐसा नहीं लगता। सरकार ने सेंट्रली एअर कंडीशंड अस्पतालों जिसमें उससे ज्याद बेड्स हैं, पर सेवा कर लगा दिया। जबकि उसमें महामारियों या छूत की बीमारियों की रोकथाम का कोई प्रावधान नहीं है। यही नहीं गांवों में तड़पते- बिलखते करोड़ों लोगों को प्रारंभिक चिकित्सा सुविधा भी मयस्सर नहीं है। यद्यपि भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है लेकिन अब यह जनसंख्या वृद्धि की तुलना में पिछड़ता जा रहा है। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 प्र.श. की वृद्धि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66 प्र.श.। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1 प्र.श. बढ़ी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
स्वास्थ्य सुविधा के उपर्युक्त आंकड़े राष्ट्रीय औसत के हैं। ग्रामीण स्तर पर देखें तो इसमें अत्यधिक कमी आएगी। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72प्र.श. जनसंख्या निवास करती है, वहां कुल बेड का 19 भाग तथा चिकित्साकर्मियों का 14 भाग ही पाया जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62 प्र.श. विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 प्र.श. प्रयोगशाला सहायकों और 20 प्र.श. फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं, दूसरे, बेहतर कार्यदशा की कमी और सीमित अवसरों के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवत्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और वे निजी क्षेत्र की सेवा लेने के लिए बाध्य होते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68प्र.श. देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं।
1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। निजी स्वास्थ्य सेवा इतनी महंगी होती है कि 70 प्र.श. देशवासी उसे वहन करने में सक्षम नहीं होते। यद्यपि सरकार ने विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन केवल 12 प्र.श. देशवासी ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं।
Tuesday, March 8, 2011
गांव तो सरकार के लिये कुछ हैं ही नहीं!
Posted by pandeyhariram at 8:54 AM
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