हरिराम पाण्डेय
तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस पार्टी में पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में सीटों के लिये समझौते पर बातचीत का एक और दौर बिना किसी नतीजे पर पहुंचे समाप्त हो गया। ये हालात विधान सभा चुनाव के रंग - ढंग का भी बयान करते हैं। इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की प्राथमिकता है वाम मोर्चा को सत्ता से हटाना पर वह कांग्रेस को भी हाशिये पर लाकर उसे केवल बंगाल में नाम भर की पार्टी बना देना चाहती है। दोनों दलों में 294 सीट की विधानसभा में 95 सीटों पर वार्ता शुरू हुई ममता जी ने आधी आधी सीटों देने की मंशा जतायी। वह इस गठबंधन की बड़ी पार्टी बनी रहना चाहती हैं। इन दोनों के बीच किसी संख्या पर यदि समझौता हो जाता तो लगता कि गठबंधन कायम है। पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस का कहना है कि 2006 में इसने तृणमूल से ज्यादा सीटें जीती थीं इसलिये वह ज्यादा सीटों की हकदार है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मानस भुइयां जूनियर पार्टनर नहीं बने रहना चाहते हैं। ममता जी का तर्क है कि पश्चिम बंगाल में भूमि आंदोलनों के कारण पिछले तीन वर्षों में जमीनी हकीकत काफी बदल चुकी है। इसलिये जो मिल रहा है वह ले लें वर्ना रास्ता देखिये। अब ऐसी स्थिति में कांग्रेस के पास बात करने के लिये बचा ही क्या रहा। ममता जी यह नहीं समझतीं कि उनकी पार्टी मूलत: क्षेत्रीय है। अपने देश में क्षेत्रीय पार्टियां तीन तरह की हैं। पहली द्रमुक और असम गण परिषद की तरह, जो किसी आंदोलन के कारण गठित हुईं। दूसरी तरह की पार्टी है मिजो नेशनल फ्रंट की तरह जो किसी अलगाववादी भाव का नतीजा हैं। तीसरी तरह की पार्टी है कांग्रेस से टूट कर बनने वाली। जैसे तृणमूल कांग्रेस और एन सी पी इत्यादि। अब किसी आंदोलन या अलगाववादी भाव के कारण उत्पन्न पार्टियोंं का मूल आधार कांग्रेस विरोधी होता है और वे इक्का- दुक्का उदाहरण को छोड़ कर शायद ही देश की सबसे बड़ी जनाधार वाली पार्टी से समझौता या सीटों का तालमेल करती हैं। जबकि कांग्रेस से अलग होकर बनी पार्टियां मौका मिलते ही अक्सर तालमेल कर लेती हैं। लेकिन यहां कुछ दूसरी ही बात महसूस हो रही है। राष्टï्रीय और प्रांतीय स्तर पर सत्ता के लिये तालमेल जरूरी है। जबकि तृणमूल चाहती है कि कांग्रेस राज्य में ना मालूम सी पार्टी बनी रहे। यही कारण है कि जब भी थोड़ा मनमुटाव होता है तृणमूल दूसरे गठबंधनों में शामिल हो जाती है और जैसे मौका अनुकूल देखती है तो तुरत कांग्रेस की ओर हाथ बढ़ा देती है। इसके कई स्थानीय कारण भी हैं जैसे मुस्लिम वोट बैक पर कब्जा करना इत्यादि। ममता जी ने इसीलिये यह रणनीति अपनायी है कि किसी भी सूरत में बड़ी पार्टी को बड़ा पार्टनर न बनने दिया जाय अथवा गठबंधन में उसका वर्चस्व न बढऩे दिया जाय। वैसे पश्चिम बंगाल में कांग्रेस में बगावत आम है। लेकिन पार्टी से टूट कर ममता जी ने जो किया वह कोई नहीं कर सका है। विगत 12 वर्षों में उन्होंने राज्य में कांग्रेस को लघु से लघुतर दल बना दिया। अब वह सीटों के बंटवारे वाले मसले पर कांग्रेस को ऐसे दल में बदलना चाहती हैं जो अपने वजूद के लिये तृणमूल पर निर्भर रहे ताकि उसकी विधायी गतिविधियां एकदम सीमित हो जाएं। भारतीय गणतंत्र चुनाव और विधायी गतिविधियों से सक्रिय होता है। चुनाव को सियासी दल ज्यादा तरजीह देते हैं क्योंकि बहुमत मिलते ही कोई दल अपने साथ के दलों की हैसियत को मिटाने में लग जाता है। चुनाव दरअसल दोस्तों और दुश्मनों में आपसी प्रतियोगिताओं को त्वरित करते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता जी के निशाने पर वाम मोर्चा है पर उन्होंने कांग्रेस पर से नजरें नहीं हटायी हैं। यह गठबंधन बंगाल में कांग्रेस के पराभव का कारण बनेगा।
Wednesday, March 16, 2011
साथी कैसे- कैसे
Posted by pandeyhariram at 8:17 PM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment