हरिराम पाण्डेय
जो लोग अपनी गलती नहीं मानते और उसे सुधारने के लिये प्रस्तुत नहीं रहते वे अक्सर उत्साहहीन और नैतिक तौर पर निर्बल हुआ करते हैं। यह कितना दुखद है कि हमारे प्रधानमंत्री जी ने जिस तरह राज्य सभा में स्वीकार किया कि पी जे थॉमस की नियुक्ति निर्णय की भूल थी। श्री सिंह ने राज्य सभा में कहा कि वे थॉमस के खिलाफ चल रहे मामलों से अनभिज्ञ थे , यही नहीं उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में तत्कालीन राज्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के मत्थे दोष मढ़ दिया कि उन्होंने यह जानकारी नहीं दी थी। जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार घिरने लगी, ऐसे में सहयोगियों को बदनाम करना कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा ही नजर आता है। देश का इतिहास गवाह है कि भ्रष्टाचार से निपटना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि सरकार कितनी पार्टियों से मिलकर बनी है, यह तो सरकार चलाने वालों की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर होता है। अबतक शायद ही किसी ने ऐसी इच्छाशक्ति दिखाई है। लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस मामले में औरों से अलग नजर नहीं आ रहे हैं। सी वी सी की नियुक्ति में प्रधानमंत्री का तर्क बेवजह है। इसके लिये वे सीधे जिम्मेदार हैं। उनका यह कहना कि यह निर्णय की गलती थी एकदम बेमानी है। प्रधानमंत्री के बारे में लोगों का यह कहना है कि वे बेहद नम्र और सुलझे हुए इंसान हैं , बिल्कुल सही नहीं है। प्रधानमंत्री जी के 'बिहेवियर पैटर्नÓ को देख कर ऐसा नहीं लगता। उससे तो लगता है कि वे जिद्दी इंसान हैं। सीवीसी की नियुक्ति का मसला देखें या भारत अमरीका परमाणु समझौते की बात हो या बढ़ते बाजार भाव का सब जगह उनकी छवि एक जिद्दी इंसान की रही है। यही नहीं प्रधानमंत्री अगर यह स्वीकार करते कि उनके आसपास ऐसे लोग हैं जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, शायद उनकी इस बेबाकी से आम जनता में ये भरोसा पैदा होता कि हमारे नेता में दम है। राजनीतिक परिस्थितियों से जूझ रहे अपने नेता पर लोगों का भरोसा हमेशा के लिए खरा बैठता और शायद हम एक नये भारत के निर्माण की नींव रखते। लेकिन मनमोहन सिंह ने ये हिम्मत भी नहीं दिखायी। दिखाते भी कैसे, आखिरकार पार्टी और दस जनपथ के बीच, खुद उनका क्या कद है। सत्ता चलाने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिये, एक पार्टी और उसके तमाम तंत्र की जरूरत होती है। एक नेता की जरूरत होती है, जो कम से कम हमारे प्रधानमंत्री खुद को नहीं मानते। तो फिर क्या गलत कहा मनमोहन सिंह ने, बतौर इंसान वो भी तो हमारी तरह ही हैं, कमजोर और मजबूर। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की आहुति दे दी होती, तो शायद कांग्रेस का कद ऊपर उठ गया होता, लेकिन सरकार बचाने के लिए भ्रष्टाचारियों को पनाह देने की करतूत कांग्रेस को महंगी पड़ सकती है। फिर भले ही पार्टी मनमोहन सिंह जैसी साफ-सुथरी छवि वाले नेता को आगे क्यों न कर रही हो। हां ये हमारे देश और हम सबों का दुर्भाग्य जरूर है कि हमें एक अदद नेता नहीं मिला। अब अगले चुनाव तक हमें इसी तरह कमजोर बने रहना होगा।
Wednesday, March 9, 2011
आखिर ऐसी गलती क्यों हुई?
Posted by pandeyhariram at 3:19 AM
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