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Thursday, March 31, 2011

द्वंद्व वाममोर्चा और बदलाव के बीच है


हरिराम पाण्डेय
विगत एक सदी से समाजशास्त्रीय तौर पर बंगाल में दो धाराएं चलती आ रही हैं। पहली गोपाल कृष्ण गोखले की उस उक्ति वाली 'जो बंगाल आज सोचता है वह पूरा देश कल सोचता हैÓ तर्ज पर भद्रलोग का बंगाल और दूसरी धारा 'जंगल बुकÓ लगातार बतियाते रहने और चोलबे ना का उद्घोष करने वाले उत्पाती लोग वाला बंगाल। देश में शायद कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां यहां की तरह दो विपरीत सामाजिक धारायें प्रवहमान हैं। रवींद्र नाथ टैगौर और सत्यजीत राय की बंगाली सभ्यता की विरासत के जवाब में सियासत में आकंठ डूबा उत्पाती बंगाली समाज। विगत साढ़े तीन दशक से बंगाल के समाज पर वामपंथ का कब्जा हो गया। इसका कारण था कि आक्रोशित किसान की हंसिया या हथौड़ा उठाये विशाल पोस्टर वाले 'संघर्षशील मानुषÓ की छवि आम बंगाली को विमुग्ध करती है और सामाजिक गरीबी को गौरवशाली बनाती है। इस भावुकता ने जहां बंगाल में वामपंथ की नींव को पुख्ता कर दिया उसी बिंदु से बंगाल का विकास भी नकारात्मक दिशा में बढऩे लगा। अब तक जो भी चुनाव हुए उनमें जितने घोषणापत्र जारी हुए उन्हें जनता ने तरजीह नहीं दी, क्योंकि वह भावुकता से आत्ममुग्ध थी। बंगाल की प्रगति दिनों दिन घटती गयी। तृणमूल कांग्रेस के घोषणापत्र में उल्लिखित आंकड़ों के मुताबिक 1975-76 में बंगाल के सकल घरेलू उत्पादन का 19 प्रतिशत भाग यहां के उद्योगों का था जो 2008-09 को घट कर 7.4 हो गया। इसी तरह देश के कुल कल- कारखानों का 7.6 प्रतिशत भाग बंगाल में था जो 2008-2009 में सिर्फ 4 प्रतिशत रह गया। यही नहीं पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन के एक दशक के बाद भी यहां के उत्पादन उद्योग में रोजगार का हिस्सा लगभग 19 प्रतिशत था जो 2008-09 में घट कर 5 प्रतिशत हो गया। हालांकि उस घोषणापत्र में यह नहीं उल्लिखित है कि यहां के कर्मचारियों को बंद , हड़ताल और नो वर्क के कारण मानव दिवस के नुकसान में बंगाल सबसे आगे है, लेकिन यह जरूर कहा गया है कि उत्पादकता की दौड़ में बंगाल पिछड़ गया है। बंगाल के पिछडऩे की कहानी 1967 से आरंभ होती है। इसके बाद से देश का आर्थिक विकास हुआ है जबकि बंगाल में बड़ा गतिरोध आ गया। बंगाल जहां 1960 तक महाराष्टï्र के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य था वहीं अब वह कई राज्यों से पीछे आ गया। वामपंथ का दावा है कि उसका ग्रामांचलों में भारी समर्थन है। बेशक इसका और कारण भूमिसुधार तथा बर्गादार कानून है। लेकिन इस कदम से ग्रामीण जनता को जो ताकत मिली उस पर माकपा का नियंत्रण था। माओ तथा स्टालिन का गुणगान करने वाले कम्युनिस्टों का मानना है कि 'आमजन की सारी गतिविधियों का उत्प्रेरण सियासत हैÓ और इसे ही ध्यान में रख कर उसने समाज का राजनीतीकरण आरंभ कर दिया। नतीजा यह हुआ कि शासन से सम्बद्ध जितने स्कंध हैं सबको राजनीति के लाल रंग में रंग डाला। साढ़े तीन दशकों तक वाम दलों ने समाज को इस बेतरतीबी से टुकड़ों में तकसीम कर दिया। सीपीएम को वोट नहीं देने वाले विजातीय घोषित कर दिये गये। हालात यह थे कि खुलकर अपने को माकपा विरोधी कहना जोखिम का काम बन गया। माकपा को मुगालता था कि पुलिस के बल पर वह बंगाली समुदाय की आकांक्षाओं को नियंत्रित कर लेगी और बंगाल की जनता को स्थायी रूप से दोयम दर्जे का बना कर रख देगी। लेकिन खुशकिस्मती से जब देश का सर्वांगीण आर्थिक विकास होने लगा तो बंगाल की जनता को महसूस होने लगा कि वे सचमुच पिछड़ गये। अपने को सर्वोच्च तथा बौद्धिक मानने वाले बंगाली समुदाय को यह स्वीकार करना कि वे सचमुच पिछड़ गये हैं एक बड़ा मानसिक परिवर्तन है। दरअसल यह विधानसभा चुनाव वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के बीच नहीं है। यह चुनाव दरअसल वामपंथ और उस बंगाली समुदाय के बीच है जो अब वाम दलों के पीछे नहीं चलना चाहता। 1967 के पूर्व बंगाल एक आदर्श स्थान था और उम्मीद करें कि 2011 के बाद बंगाल एक बेहतर जगह होगी।

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