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Tuesday, March 1, 2011

गद्दाफी की अकड़ कायम



हरिराम पाण्डेय
लीबिया के शासक कर्नल मुअम्मर गद्दाफी पर गद्दी छोडऩे के लिये सारी दुनिया से दबाव पड़ रहे हैं पर वे हैं कि अकड़े हुये हैं, किसी की बात सुनने को तैयार नहीं। उनकी इस अकड़ का विश्लेषण करने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रख लेना चाहिये। सबसे पहली बात कि अमरीकी मीडिया जिसे क्रांति या जन आंदोलन कह रही है जैसा कि मिस्र में हुआ था, लीबिया में वैसा नहीं है। यह कबीलों की जंग है जो एक दूसरे को अपना मुखालिफ मानते हैं और अपना वर्चस्व कायम करने के लिये लड़ रहे हैं। यही नहीं मिस्र में युवकों ने होस्नी मुबारक के खिलाफ हथियार उठाये थे। इन नौजवानों को अपने अतीत या सत्ता के अतीत से कोई लेना देना नहीं था, लेकिन गद्दाफी के विरुद्ध नौजवान बहुत कम या यों कहें छिटफुट जगहों पर ही लड़ हैं। गद्दाफी के खिलाफ जंग का नेतृत्व करने वाले बूढ़े राजनीतिज्ञ, पूर्व अफसर जो हाल तक उसी दमनकारी सत्ता के अंग थे और वहां हटाये जाने के बाद गुस्से में हैं तथा उनका साथ दे रहे हैं कबीलों के सरदार। इन्हें लीबिया के समाज में वह आदर नही हासिल है जो मिस्र के आंदोलनकारियों को हासिल था। मिस्र में होस्नी मुबारक के पास केवल दो तरह की फौजी ताकत थी, पहली वहां की दंगा विरोधी पुलिस और दूसरी मिस्र की सेना। दंगा विरोधी पुलिस की साख पहले ही खत्म हो गयी थी और सेना आंदोलनकारियों के खिलाफ हथियार उठाने को तैयार नहीं थी। जबकि गद्दाफी ने बहुस्तरीय बलों का गठन किया है। अगर एक ने बगावत की तो उसकी जगह दूसरी खड़ी हो जायेगी। सन 1969 में अनवर सादात के बाद जब मुबारक सत्ता में आये तो उन्होंने पश्चिमी जगत से खासकर अमरीका से इस्रराइल से बड़े मधुर सम्बंध बना लिये। इसी सम्बन्ध के कारण अमरीकी तथा इस्रराइली जासूसों ने मुबारक की फौज तथा जासूसी संगठनों में पैठ बना ली और उनके नख - दंत कुंद कर दिये। इसलिये जब पश्चिमी ताकतों को लगा कि अब मुबारक को हटाया जाना चाहिये तो उन्होंने आंदोलनकारियों का साथ देना शुरू कर दिया और मिस्र की सेना को बेअसर कर दिया। जबकि गद्दाफी जबसे गद्दीनशीन हुये तबसे ही वे अमरीका तथा इस्रराइल को अपना दुश्मन नम्बर एक मानते रहे तथा बलों का गठन भी इसी तर्ज पर किया। यही कारण है कि अमरीका तथा इस्रराइल को यह मालूम नहीं है कि वहां कैसे घुसपैठ की जाय। यही नहीं, उन्हें लीबिया में एक आदमी आज तक नहीं मिल पाया जिसकी सत्ता के भीतरी परकोटे के उस पार पहुंच हो। गद्दाफी को गद्दी से हटाने के दो ही तरीके हैं पहला कि वहां फौज में बगावत हो जाय और वह विरोधियों के साथ सड़कों पर उतर आये जो संभव नहीं है। दूसरा है कि विरोधी आंदोलनकारियों को अमरीका और इस्रराइल ट्रेंड करे तथा हथियार दे, ताकि पूर्वी लीबिया में जैसे बेंगाजी को जैसे उन्होंने मुक्त कराया उसी तरह त्रिपोली को भी मुक्त करा सकें, लेकिन त्रिपोली से बेंगाजी की दूरी काफी है और बीच में उन कबीलों का वर्चस्व है जो गद्दाफी के लिये मरने मारने को तैयार हैं। इसलिये अगर इस क्षेत्र को उड़ान वर्जित क्षेत्र घोषित कर आंदोलनकारियों को अमरीका हवाई ढाल भी मुहय्या कराता है तब भी यह संभव नहीं लगता है। इन सारी स्थितियों को देखते हुये यह तय है कि गद्दाफी होस्नी मुबारक नहीं हैं कि दुम दबा कर निकल भागें वे सद्दाम हुसैन साबित हो सकते हैं कि जब तक जान रहेगी अकड़ कायम रहेगी और निकट भविष्य में हालात उनकी मौत की ओर इशारा नहीं करते।

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