हरिराम पाण्डेय
बीसवीं सदी में ढेर सारे बदलाव हुए। इनमें सदियों से भारतीय समाज में चल रहे जाति- पांति के भेद भाव और छुआ छूत वगैरह प्रमुख थे। बीसवीं सदी में ये सब समाप्त होने शुरू हुए और सबको बराबरी का दर्जा हासिल हुआ, मताधिकार, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी मिली। यह सही है कि अभी बहुत कुछ होना बाकी है। फिर भी जो कुछ मिला वह सब हमारी लम्बी लोकतांत्रिक जंग का परिणाम है। लोकतंत्र के लिये जंग जारी रहनी जरूरी है। कोई भी क्रांति ठहरती नहीं है। वह एक 'डायनामिक स्टेट ऑफ सिचुएशन हैÓ, उसका विकास होगा या वह प्रतिगामी ताकतों के कब्जे में जाकर मिट जायेगी। आज हमारे लोकतांत्रिक आंदोलन के प्रतिगामी ताकतों के हाथों में आ जाने का खतरा बढ़ गया है क्योंकि देश का मु_ïी भर अमीर और उच्च वर्ग का पूरी आबादी पर वर्चस्व होता जाा रहा है। दूसरे शब्दों में कहें कि वे लोकतंत्र को एक ऐसे तंत्र में बदलने की कोशिश में लगे हैं जो उसकी काया को दीन हीन और निर्बल बना दे। दरअसल इसकी शुरुआत इमरजेंसी के समय ही हो गयी थी और तत्कालीन व्यवस्था ने ऐसा करने का प्रयास भी किया था, पर उस समय सफलता नहीं मिली। राजग शासन काल में भी प्रयास हुए पर अदालतों के बीच में आने से कोई विशेष कामयाबी नहीं मिल सकी। लोकतंत्र को नख- दंत हीन बनाने के सभी प्रयास स्पष्टïत: दिखते हैं पर पर व्यवस्था के विरोध के भय से अक्सर चुप्पी बनी रहती है। इस दिशा में दूसरा हथकंडा होता है साम्प्रदायिक ताकतों को मजबूत बनाना। एक तरह से यह प्रक्रिया कुत्ते को जंजीर से बांध कर रखने जैसी है। जब चाहा किसी पर ललकार दिया। तीसरा हथकंडा है खूबसूरत और आकर्षित करने वाले नारों के जरिये मतभेंद पैदा करना और उसे बढऩे देना जिसके कारण नव उदारवाद को प्रवेश मिल सके। जैसे मुक्त बाजार के साथ नव उदारवाद का संयोग होगा तत्काल ही व्यवस्था कठपुतली बन कर रह जाती है। नीतियां उन्हीं के अनुरूप गढ़ी जाती हैं नहीं तो पूंजी के विस्थापन का खतरा रहता है। अगर किसी ने इसका विरोध किया तो उस पर देश की आर्थिक प्रगति में रोड़ा अटकाने का प्रयास करने और देश को आर्थिक महाशक्ति बनने से रोकने की कोशिश करने जैसी तोहमतें मढ़ दी जाती हैं। उसे देश विरोधी करार दिया जाता है तथा कॉरपोरेट मीडिया उसके पीछे पड़ जाता है। वह कॉरपोरेट क्षेत्र के हितों को राष्टï्र का हित बताने में जमीन आसमान के कुलाबें मिला देता है। इसका चौथा हथकंडा होता है धार्मिकता को भड़काना तथा पूर्व आधुनिक काल की सामाजिक संस्थाओं को मजबूत होने देना, खाप पंचायत का उदाहरण हमारे सामने है। वैसे धार्मिकता बुरी चीज नहीं है लेकिन इसका व्यक्तिगत होना जरूरी है। इसके सार्वजनिक या संघबद्ध होने से लोकतांत्रिक संस्थाओं का अराजनीतिकरण हो जाता है जिसके फलस्वरूॅप सामाजिक सौहार्द में दूषण पैदा हो जाता है। वामपंथ इन सबका विरोधी होता है और वह एक मात्र ऐसा संगठन होता है जो सतत राजनीतिकरण करते हुए लोकतंत्र की मशाल को जलाये रखता है। देश में वामपंथ के विरोध का अर्थ है लोकतांत्रिक आंदोलन को खत्म करने का प्रयास। पश्चिम बंगाल में ही वामपंथ के विरोध की बयार बह रही है और इसके लिये नंदीग्राम तथा सिंगुर के उदाहरण दिये जा रहे हैं। बेशक इस मामले में वामपंथी सरकार ने गलतियां कीं हैं पर क्या कोई यह कह सकता है कि उसने इस दौरान भी आम जन के लोकतांत्रिक मूल्यों या संस्थाओं को कुंद करने की कभी भी कोशिश की? संभवत: नहीं।
Friday, March 18, 2011
वामपंथ जरूरी है जम्हूरियत के लिये
Posted by pandeyhariram at 1:03 AM
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