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Wednesday, March 2, 2011

चीन का बढ़ता खतरा



हरिराम पाण्डेय
खबर है कि अधिकृत कश्मीर में चीन ने अपनी गतिविधियां फिर से शुरू कर दी हैं। चीन पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में अपने मजदूरों के लिए एक कालोनी का निर्माण कर रहा है। भारतीय विदेश मंत्रालय के आकलन के मुताबिक पीओके और गिलगिट-बालटिस्तान में करीब 17 परियोजनाओं पर चीन के हजारों मजदूर काम कर रहे हैं। इसमें करीब 14 प्रोजेक्ट तो पीओके में ही चल रहे हैं। भारत सरकार को मिली जानकारी के अनुसार पाकिस्तान में करीब 122 चीनी कंपनियां सक्रिय हैं। इनमें से ज्यादातर पीओके और गिलगिट-बालटिस्तान में भी अलग-अलग प्रोजेक्ट के तहत काम कर रही हैं। चीन की यह 'हरकतÓ ऐसे समय पर सामने आयी है जब हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगले महीने बीजिंग के दौरे पर जाने वाले हैं। मनमोहन सिंह ब्राजील, रूस, भारत और चीन (ब्रिक) देशों के गुट में दक्षिण अफ्रीका का स्वागत करने के सिलसिले में होने वाली बैठक में हिस्सा लेने चीन जा रहे हैं। उम्मीद है कि पीएम की इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच संबंधों में मधुरता आएगी। वैसे चीन की हालिया दो-चार बड़ी हरकतों पर अगर बारीकी से विचार करें तो स्पष्टï होगा कि हमारा पड़ोसी नया कुछ भी नहीं कर रहा। नई बात बस यह है कि इसकी शिद्दत को हमने अब जाकर हमने महसूस किया है। भारत और चीन के बेहद जटिल संबंधों को थोड़ी और गहराई से देखें तो पता चलता है कि जब भी वह भारत के अन्य बड़े शक्तिशाली देशों से संबंधों को गहरा होते देखता है तो वह भारत पर अपना कूटनीतिक और रणनीतिक दबाव बढ़ाना शुरू कर देता है। दुनिया के बड़े देशों को यह दिखाने की कोशिश करता है कि भारत उसके सामने बहुत मामूली देश है। मसलन जब से भारत ने अमरीका के साथ संबंधों पर बहुत ज्यादा ध्यान देना शुरू किया तो दूसरे बड़े मुल्कों से कुछ दूरी बन गयी। चीन को दोनों बातें नागवार लगीं। एक तो भारत की अमरीका से नजदीकी और दूसरा भारत उसकी अनदेखी कर अमरीका से पींगें बढ़ाएं, ये दोनों सूरतें चीन को अपने हितों के माफिक नहीं लगतीं, इसलिए उसके ताजा कदम इसी नीति का हिस्सा हैं। हमारी सारी सीमाओं पर तनाव बनाए रखना उसकी इसी रणनीति का हिस्सा है। चीन ऐसा इसलिए भी कर रहा है कि आर्थिक, सामरिक और राजनयिक रूप से हम उससे बहुत पीछे छूट गए हैं। भारत उससे पीछे ही बना रहे, इसके लिए वह हमें अपने पड़ोसियों के जरिये भी घेर रहा है। पाकिस्तान के साथ उसने सांठगांठ की हद तक घनिष्ठ संबंध बना रखे हैं। पाकिस्तान के आणविक हथियारों में चीन का योगदान खुद पाकिस्तान के योगदान से ज्यादा है। उसकी शक्ति संतुलित एकांगिक और सुनियोजित है, जबकि हमने अपने देश के भीतर जो राजनीतिक प्रणाली विकसित की है, उससे हम कमजोर और विभाजित हुए हैं। इसी के चलते साहसिक कदम उठा पाने में हम असमर्थ रहते हैं।
वैसे भी आजकल विश्व में बात-बात पर युद्ध की भाषा नहीं बोली जा सकती। बड़े-बड़े देश भी अपनी बात मनवाने के लिए बातचीत करते हैं और कई दौर की बातचीत और राजनयिक दबावों से अनुचित लाभ भी प्राप्त कर लेते हैं। हमारा देश इस मामले में काफी भावुक मुल्क है। उदाहरण के लिए 1962 के चीनी आक्रमण के बाद हमने प्रस्ताव पारित किया कि जब तक चीन हमारे भू-भाग को वापस नहीं देता, तब तक उससे कोई बातचीत ही नहीं होगी। हालांकि बाद में हमें विवश होकर उससे बातचीत शुरू करना पड़ी। इससे यह सिद्ध होता है कि संबंध कितने ही खराब क्यों न हों, पर संवाद चलते रहना चाहिए और संबंध विच्छेद नहीं होना चाहिए। अगर हम चीन को उसी की भाषा में जवाब देना चाहते हैं तो हमें यह जान लेना होगा कि उसकी दुखती रग तिब्बत है और जिस दिन हम तिब्बत के मसले को लेकर चीन को घेरना शुरू कर देंगे, उस पर दबाव बनने लगेगा। जब हम उसे कटघरे में लाना शुरू करेंगे तो वह निश्चित रूप से बचाव की मुद्रा में आ जाएगा। दुर्भाग्य से अभी हम ऐसा नहीं कर रहे हैं। अगर नेपाल और तिब्बत की नीति को हम थोड़ा स्पष्ट शब्दों में दुनिया के सामने रखेंगे, तो चीन अपनी हेकड़ी दिखाना बंद करेगा।

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