हरिराम पाण्डेय
ममता बनर्जी कांग्रेस से सीटों के गठबंधन के बाद पश्चिम बंगाल में विपक्ष की सबसे बड़ी नेता के रूप में उभर कर आयी हैं। हालांकि उन्होंने कांग्रेस की हैसियत इस राज्य में जूनियर पार्टनर की बना दी पर उसे साथ में रखा है, क्योंकि संभवत: उन्हें इसमें दो लाभ नजर आये हैं, पहला कि वामपंथ के विरोधी वोट बटेंगे नहीं और दूसरा कि उनकी पार्टी राष्टï्रीय स्तर की पार्टी से जुड़ी रहेगी। राष्टï्रीय स्तर की पार्टी से जुड़ा रहना उनकी एक तरह से मजबूरी भी है क्योंकि इसका सम्बंध पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन के इतिहास से है। 1977 में जब सी पी एम का गठबंधन सत्ता में आया तो उसने लोगों में एक उम्मीद जगायी। खास कर आजादी के बाद साम्प्रदायिक दंश से पीडि़त बंगाली समुदाय को इससे मुक्ति की आशा और आर्थिक विकास के लिये ऑपरेशन बर्गा तथा बटाईदार को जमीन का हक देकर उसे खेतिहर मजदूर से खेतिहर बनाने का सुनहरा सपना दिखाया उसने। पर जल्दी ही उसने बंगाल के समाज की आवाज को दबा दिया और स्कूलों में नाम लिखाने से नौकरी पाने तक हर मामले पर सियासत हावी हो गयी। इससे उद्योग और व्यापार को भारी हानि पहुंची और अर्थ व्यवस्था पंगु होने लगी। पेशेवर लोग राज्य से बाहर जाने लगे तथा पूंजी का निर्गम शुरू हो गया। बाद में सीपीएम को जब होश आया तो स्थिति नियंत्रण से बाहर जा चुकी थी। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य ने बुधवार को स्वीकार किया कि असफलताओं के लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं। इन हालात ने ममता जी के लिये अवसर प्रदान किये। ममता जी ने बड़े ही व्यूहबद्ध तरीके से अपना काम शुरू किया। पहले उन्होंने वामपंथ के कथित अत्याचारपूर्ण शासन के खिलाफ कोलकाता की सड़कों पर बुद्धिजीवियों को उतार दिया। इसके बाद स्थानीय निकायों के चुनावों के माध्यम से उन्होंने वाममोर्चे के किले में सेंध लगा दी। आज ममता बनर्जी ऐसी स्थिति में पहुंच गयी हैं जहां वह वाममोर्च के लिये स्पष्टï चुनौती हैं। हो सकता है इस विधानसभा चुनाव में वे वाम मोर्चा को उखाड़ फेंकने में भी कामयाब हो जाएं। लेकिन वाममोर्चा ने जो सपने यहां मतदाताओं को दिखाये थे उनकी भयानक स्मृति अब यहां के लोगों को सपने देखने से डराती है। लोगों के भय भ्रांति को दूर करने के इरादे से ममता जी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र को उपादान बनाया। इसलिये ममता जी ने जो घोषणा पत्र जारी किया वह केवल वायदों का पुलिंदा नहीं है। वायदे तो राजनीतिक दल चुनावों में करते ही हैं पर वह घोषणा पत्र वायदों से इसलिये अलग है कि उसमें हर काम को पूरा करने की एक अवधि तय कर दी गयी है और यह भी कहा गया है कि यदि तयशुदा समय में वायदे नहीं पूरे किये गये तो इसके लिये पार्टी जवाबदेह होगी। वायदों को एक समय के फ्रेम में बांध देना और असफलता के लिये पार्टी को जवाबदेह बनाना इसे अलग स्वरूप प्रदान करता है। यहां यह ध्यान देने वाला तथ्य है कि बुद्धदेव भट्टïाचार्य ने जन आकांक्षाओं को नहीं पूरा करने के लिये खुद को दोषी बताया है। उन्होंने पार्टी को इसके लिये उत्तरदायी नहीं कहा है। यानी ममता जी ने इसके लिये संयुक्त जिम्मेदारी का सिद्धांत अपनाते हुए पूरी पार्टी पर उंगली उठाने का हक मतदाताओं को दिया है। समय सीमा इस घोषणा पत्र को एक ठोस स्वरूप प्रदान करता है। क्योंकि अन्य पार्टियां जब अपने वायदों को पूरे नहीं कर पातीं तो वे बड़ी बेशर्मी से कह देती हैं कि हमें अभी बहुत कुछ करना है, बड़ी लम्बी दूरी तय करनी है। लेकिन ममता जी ऐसा नहीं कह सकतीं क्योंकि यह लक्ष्य भी उन्होंने खुद ही चुना है। जैसा कि आमतौर पर होता है, इस घोषणापत्र की शुरुआत भी वाममोर्चे की असफलता से होती है पर वहीं खत्म नहीं हो जाती है और केवल वायदों का पिटारा नहीं बनी रह जाती। इससे लगता है कि उनके पास सोचने वाले और नीतियों को गढऩे वाले रचनात्मक लोग भी हैं। इसमें शासन, अर्थव्यवस्था और शिक्षा में सुधार का लक्ष्य तय किया गया है। बदलाव की हवा चल चुकी है और लोग बदलाव का स्वागत करने और बदलाव को स्वरूप देने को तैयार हैं तथा ममता जी उस बदलाव को सकारात्मक बनाने के लिये तैयार हैं। उधर कांग्रेस का साथ बंगाल के लोगों को यह संदेश भी दे रहा है कि एक ऐसी पार्टी उनके लिये प्रस्तुत है जो केंद्र में उसके साथ काम करती है। चूंकि केंद्र सरकार संसद को जवाबदेह होती है और ममता जी केंद्र सरकार के साथ हैं और उन्होंने राज्य में जवाबदेही खुद तय की है। अतएव बंगाल की जनता के प्रति उनकी दोहरी जवाबदेही बनती है। यहां की जनता को सबसे बड़ा भय सुरक्षा का है। उनकी इस जिम्मेदारी की स्वीकृति को यहां हिंसा पर अंकुश लगाये जाने की आश्वस्ति भी माना जा सकता है। इस प्रवृत्ति से जनता को अपनी अपेक्षाओं को पूरा होने का आश्वासन भी मिलता है।
Friday, March 25, 2011
बदलेगा बंगाल अब?
Posted by pandeyhariram at 1:30 AM
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