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Tuesday, March 8, 2011

करोड़ों का सवाल


हरिराम पाण्डेय
अरब में लोकतंत्र के आंदोलन और उसके प्रति अमरीकी रुख को समन्वित रूप से देखने पर एक सवाल उठता है कि एक तरफ अमरीका या उसके शांति नोबेल पुरस्कार विजेता राष्टï्रपति बराक हुसैन ओबामा अरब की सरकारों को हटाने के लिये आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, क्योंकि वहां की सरकारें बेहद भ्रष्टï और अमानुषिक हैं, दूसरी तरफ उतनी ही भ्रष्टï और अमानुषिक पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान की सरकारों को वही अमरीका अरबों डालर की मदद दे रहा है। दरअसल खुद को अक्लमंद तथा विकसित सोच वाला समझने के दंभ में आतंकित अमरीका ने 9/11 के बाद मुस्लिम विश्व विचारों की जंग शुरू कर दी जैसा इसने शीत युद्ध के दौरान कम्युनिस्ट ब्लॉक किया था और सफलता पायी थी। वहां यह जंग इसलिये सफल हुई कि सत्ता का सरोकार इंसानी वजूद और हक से जुड़ा था। लेकिन मुस्लिम विश्व में इसके नाकामयाब होने के दो मुख्य कारण हैं- पहला कि यह पूरी जंग धार्मिक मान्यताओं के मुकाबिल थी और दूसरा कि इस काम के लिये अमरीका ने जिन देशों पर भरोसा किया था वे ही आतंकवाद के पैरोकार निकले। अमरीका को आशा थी कि वैचारिक युद्ध की बिगुल बज उठेगा तथा कट्टïरपंथ एव अलकायदा को इस्लाम के भीतर से ही चुनौतियां मिलने लगेंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि मुस्लिम देशों के भ्रष्टï शासकों को कट्टïरपंथ मुफीद आता है और वे उसकी हिफाजत करते हैं। अरब शासकों के पास लादेनवाद का विकल्प है ही नहीं। हार कर वहां की जनता ने यह कदम उठाया। यह कार्य उन लोगों ने लादेनवाद के विकल्प के रूप में नहीं किया है, बल्कि अपना मुकद्दर बदलने की ललक से किया है, इसीलिये अलकायदा की बोलती बंद है। यह बहुत बारीक तथ्य है और आज की जनता को इसे समझ लेना जरूरी है। अधिनायकवादी सत्ता का आधुनिक अलकायदाई जवाब और कुछ नहीं, बल्कि मध्ययुगीन खिलाफत पर आधुनिकता का मुलम्मा है, इसीलिये इसे ट्यूनिशिया से यमन तक चारों तरफ जनता ने आंदोलन की लगाम अपने हाथों में ले रखी है।
अप्रैल 6 युवा आंदोलन, इखवान-अल-मुसलमीन और अलबरदेई के समर्थक गुटों के इस नजरिए को ट्यूनीशिया में जनविद्र्रोह के हश्र को देखते हुए समझा जा सकता है, जहां राष्ट्रपति जाइन अबिदीन बेन अली के भागने के बाद उनकी तानाशाही का हिस्सा रहे लोग सत्ता तंत्र पर काबिज हो गए। अब मिस्र पर सारी दुनिया की निगाहें हैं। ट्यूनीशिया से उठी लहर मिस्र में उथल-पुथल पैदा करने के बाद अब बहरीन, यमन, जॉर्डन, अल्जीरिया से ईरान तक पहुंच चुकी है। पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के इन देशों में मुक्ति की जैसी चाहत का इजहार हो रहा है, वह अभूतपूर्व है, लेकिन इस नवजाग्रत चेतना का परिणाम क्या होगा, यह बड़ा प्रश्न है। इसका उत्तर शायद मिस्र से ही मिले। मिस्र में वास्तविक लोकतंत्र की नींव पड़ी तो इससे उस पूरे इलाके में एक नये युग का सूत्रपात हो सकता है।
हो सकता है कि आगे चलकर यह आंदोलन धार्मिक कट्टïरपंथियों के हाथों में पहुंच जाय, लेकिन अभी तो यह तय है कि लोग 21 सदी के लोकतंत्र की ललक से इसमें कूदे हैं न कि 7वीं सदी की व्यवस्था में सडऩे के लिये। इसलिये बाहरी मदद से अरब की दुनिया के आंदोलन में बहुत कुछ नहीं किया जा सकता है। उन्हें अपनी मदद खुद करनी होगी।

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