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Sunday, March 27, 2011

हड्डियों से बन रहा है 'देसी घी कोलकाता में



महानगर की लेबोरेटरी में परीक्षण की कोई व्यवस्था नहीं
हरिराम पाण्डेय
कोलकाता: आदिकाल से घी का प्रयोग हमारे संस्कारों और अध्यामिकता में रचा बसा हुआ है। हिंदुओं का कोई भी धार्मिक कृत्य घी के बगैर पूरा नहीं होता। लेकिन यदि घी नकली हो और वह भी मवेशियों के हड्डिïयों और उनके मांस में मौजूद वसा (फैट) से बना हो तो लोगों के मन और भावना पर क्या असर पड़ेगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। इन दिनों शहर में देशी घी के नाम पर बिकनेवाले घी का बहुत बड़ा भाग नकली है।
कैसे बनता है नकली घी:
वैसे तो कोलकाता की जरूरत के अनुरूप घी की आपूर्ति कभी नहीं रही लेकिन पहले उस जरूरत को वनस्पति से पूरा किया जाता था। अब मांग और बढ़ गयी है तथा वनस्पति के अलावा जो जरूरत होती है वह नकली घी से पूरी होती है। कोलकाता में लगभग 20 टन घी की रोजाना खपत होती है। यदि 250 रुपये प्रति किलो की दर से नकली घी बिके तो शहर में 15 करोड़ रुपये मासिक और लगभग 180 करोड़ï रूपये वार्षिक का बाजार है। यह किसी की नीयत को बिगाड़ देने के लिये काफी है।
सूत्रों के मुताबिक स्थानीय कसाई घरों से हड्डिïयां और मांस विक्रताओं से मांस के वसा, जिसे चालू भाषा में तेल कहते हैं, एकत्र कर उन्हें अलग-अलग पीसा जाता है और फिर अलग - अलग ही 20 प्रतिशत ऐसेटिक एसिड और 10 प्रतिशत हाइड्रोक्लोरिक एसिड के मिश्रण में उबाला जाता है। और फिर उसमें एसेंस मिला कर पैक कर दिया जाता है। यह स्वाद और सुगंध में देसी घी की तरह होता है। मजे की बात है कि इसे किसी भी स्थानीय लेबोरेटरी में पकड़ा नहीं जा सकता है। क्योंकि कोलकाता या नयी दिल्ली में जितने भी लैब हैं वहां इसका रासायनिक परीक्षण नहीं होता है।
कैसे होता है परीक्षण :
घी का रासायनिक संघटन और हड्डिïयों को गलाने से बने पेस्ट का रासायनिक संघटन लगभग एक होता है। घी की रासायनिक संरचना होती है ष्ट॥३(ष्ट॥२)२ष्टह्रह्र॥ जबकि हड्डिïयों के पेस्ट की संरचना होती है ष्ट॥३ष्ट॥२ष्ट॥२ष्टह्रह्र॥ घी की जांच के लिये तीन तरीके उपयोग में लाये जाते हैं, वे हैं रिचर्ट- मिसेल वैल्यू, पोलेंस्क वैल्यू और बटेरो रिफ्रैक्टोमीटर इंडेक्स। लेकिन जिन भैंसों को बिनौले खिलाये जाते हैं उनके दूध से बने घी के मॉल्यूक्यूलर स्ट्रक्चर और इस नकली घी के मॉल्यूक्यूलर स्ट्रक्चर बिल्कुल समान होते हैं। देश में मिलावट की जांच की बाइबिल मानी जाने वाली पुस्तक 'हैंडबुक ऑव फूड एडल्टरेशन एंड ऑथेंसिटी-पुष्पा कुलकर्णी, रेखा सिंघल और दीनानाथ रेगेÓ में मिलावट की जांच की कई विधियां बतायी गयीं हैं। लेकिन इससे भी हड्डिïयों से बने घी को पकड़ पाना संभव नहीं है।
एक और विधि है 'अल्ट्रावायलेट स्पेक्ट्रोमीटरÓ से परीक्षण। इसमें नकली घी का रंग नीला दिखता है और असली घी का रंग हल्का हरा। लेकिन दुर्भाग्यवश जिन पशुओं को बिनौला खिलाया जाता है उनके दूध से बने घी का रंग भी नीला ही दिखता है। यानी पशुओं की हड्डïी से बने घी को पकड़ पाना लगभग असंभव है।
वैसे नकली घी साधारण तापमान पर पिघला रहता है और असली घी जम जाता है। असली घी लगभग 30 डिग्री से. पर जम जाता है। जबकि नकली घी को जमने के लिये 23-24 डिग्री से. की जरूरत होती है।
नकली घी का अर्थशास्त्र :
सारे खर्चों के बाद एक लीटर नकली घी के उत्पादन में लगभग 40-45 रुपये लगते हैं और विक्रेताओं को वह 120 रुपये प्रति लीटर की दर से बेचा जाता है। जो व्यापारी इस घी को बेचते हैं उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि वे क्या बेच रहे हैं। क्योंकि सभी जानते हैं कि देसी घी को बनाने में लगभग 260 से 270 रुपये खर्च पड़ते हें। कोई उत्पादक उसे उतनी कम कीमत में बाजार में उतार ही नहीं सकता। इसके सबसे बड़े खरीदार हैं थोक उपयोगकर्ता। छोटे -छोटे पैकेटों में इसे दुकानों से और जहां इसकी भारी मात्रा में खपत होती है वहां इसे सीधे सप्लाई के माध्यम से बेचा जाता है।
प्रशासन और आम उपभोक्ताओं की आंखों में धूल झोंकने के लिये इसका कारेबार बड़े पोशीदा ढंग से चलता है ताकि किसी को संदेह ना हो सके। इसके तीन चरण हैं, पहला- हड्डिïयों को एकत्र कर उन्हें उबालने का, दूसरा उसके पैकेजिंग का और तीसरा विपणन का। पैकेजिंग भी दो टुकड़ों में होती है। कई ब्रांडेड कम्पनियों के डब्बे और कार्टून छाप कर अलग रखे जाते हैं और उन्हें पैक अलग किया जाता है। हड्डिïयों को पीसने और उबालने का काम वहीं होता है जहां कसाई घर हैं और पैकिंग का काम बड़ाबाजार से हावड़ा तक फैला हुआ है। खरीदते समय यह सावधानी जरूरी है कि मान्यता प्राप्त ब्रांड(एगमार्क) और मान्यता प्राप्त दुकान(अप्रूव्ड शॉप) से ही घी खरीदें। खरीदें ओैर साख वाले ब्रांड का घी खरीदें। फिर भी यदि घी में संदेह हो तो जिस पा्रांड का ााी हो उस की कम्पनी में शिकायत करें तथा सरकारी स्वास्थ्य विभाग में भी शिकायत करें।

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