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Tuesday, April 12, 2011

सन्मार्ग : 65 साल का लम्बा सफर



हरिराम पाण्डेय
आज रामनवमी है यानी भगवान श्रीराम का जन्मदिन। भगवान श्रीराम के जन्मदिन को केन्द्रित कर आजके ही दिन 'सन्मार्गÓ की स्थापना की गयी थी। उद्देश्य था भारतीय संस्कृति के सुपथ पर लोगों को चलने के लिये प्रेरित करना- 'सन्मार्ग एव सर्वत्र पूज्यते नापथ: क्वचितÓ। आज सन्मार्ग का स्थापना दिवस है और जरूरी है कि हम अतीत में झांकें तथा इस तथ्य की पड़ताल करें कि हमने लक्ष्यों को कितनी हद तक प्राप्त कर लिया है और उस समय के किये गये हमारे फैसले कितने अधूरे हैं। आज के बदलते समय में हमें इस बात की भी चिंता है कि आरंभिक काल में हमने जो फैसले लिये क्या वे सही और तर्क संगत थे। क्या आज की रोशनी में हम उन्हें बदल कर एक नयी दिशा निर्धारित कर सकते हैं? हमें यह देखना ज्यादा जरूरी नहीं कि हम अपने कर्म में कितने कामयाब हो सके बल्कि यह जरूरी है कि वे कर्म कितने सच और सही थे। सन्मार्ग उस वक्त शुरू हुआ जब समाज आंदोलन के उत्कर्ष पर था और लक्ष्य था हर क्षेत्र में स्वाधीनता। सन्मार्ग को स्थापित करने वाले मनीषियों ने तय किया कि हमारा लक्ष्य होगा चिंतन, कर्म और व्यवस्था को उन्हीं जातीय मर्यादाओं से जोडऩा जो दो सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन काल में भ्रष्टï और दूषित हो चुकी थीं। हमारे स्वतंत्र कर्म और चिंतन को जिन वर्जनाओं ने दो सौ वर्षों तक अवरुद्ध कर रखा था उन वर्जनाओं को भंग करने के लिये एक सांस्कृतिक वातावरण तैयार करना। लेकिन आजादी के बाद हमारी अध्यात्मिक अवस्था और व्यावहारिक कार्य प्रणाली को हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्था और शिक्षण प्रणाली ने दूषित कर दिया। यह स्वयं में एक भयावह दुर्घटना थी। आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि हम इस दुर्घटना के कारण फैली देशव्यापी निराशा का विश्लेषण करें, एक निर्मम आत्मविश्लेषण कर लें। इसकी शुरुआत एक सपाट प्रश्न से की जा सकती है कि क्या एक भारतीय होने के नाते हमारे भीतर अपने देश से कोई लगाव बाकी रह गया है? बार- बार सोचने पर एक ही उत्तर मिलता है- नहीं। क्योंकि अब तक हम यह साहस नहीं जुटा पाये कि पश्चिमी बौद्धिक दासता से मुक्त होकर सोच- समझ के अपने औजार विकसित कर सकें और युवा पीढ़ी को अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मनीषा के अनुरूप दीक्षित कर सकें। देश के प्रति लगाव की यह सार्वभौमिक उपस्थिति हमारे स्वतंत्रता संग्राम को एक नैतिक आयाम देती थी। आज उसका अभाव हो गया है। उस अभाव को ढंकने के लिये हम आत्म प्रदर्शन और आडम्बर का रास्ता अपनाते हैं। आज हमारा देश एक तरफ प्रकृति के विनाश और दूसरे छोर पर स्मृतियों के बीच झूल रहा है। इन दोनों को बचाना हमारे जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है। सन्मार्ग को आरंभ करने वाले मनीषियों ने यही लक्ष्य तय किया था। सन्मार्ग आज भी उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रतिज्ञाबद्ध है। अब सवाल उठता है कि हमने वह लक्ष्य कहां तक पूरा किया? यहां यह स्पष्टï कर देना उचित होगा कि यह प्रतिज्ञा केवल व्यापक सभ्यता बोध के भीतर ही पूरी हो सकती है। भारत की भौगोलिक एकता केवल ऐसे परम्पराबोध में ही अर्थवान हो सकी है, जहां अनेक संस्कृतियां और धर्म-सम्प्रदाय सदियों से एक दूसरे से प्रेरणा पाते रहे हैं। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी राष्टï्रीय अस्मिता दूसरों के विनाश से नहीं अपनी सभ्यता के विविध चरित्र से बनी है। हमसे अभागा कौन होगा जो आधुनिकता की रौ में भारतीय सभ्यता की इस अनमोल निधि को नष्टï कर दे रहे हैं। हमारी कोशिश है कि इस निधि को बचाने के लिये लोगों के भीतर एक जज्बा कायम कर दें। हम यह गर्व से कह सकते हैं कि देश के अपने दस लाख पाठकों के भीतर सभ्यताबोध की इस ज्योति को जगाने में हम बहुत हद तक कामयाब रहे हैं और इस सफलता की व्यापकता में प्रसार हो रहा है। 65 वर्ष पूर्व जब सन्मार्ग ने यह सफर शुरू किया था तो हालात ऐसे नहीं थे। पर हमारे मनीषियों ने ऐसा नहीं कहा कि 'जदि तोमार डाक सुने केउ ना आसे तबे एकला चोलो रे।Ó उन्हें तो भरोसा था 'नमोऽस्तु रामाय सलक्ष्मणाय देव्यै च तस्यै जनकात्मजायै नमोऽस्तुरुद्रेंद्रयमानिलेभ्यो नमोऽस्तुचंद्रार्कमरुद्गणेभ्य:Ó जैसे मंत्र पर। यह मंत्र किसी को पुकारने के लिये नहीं अकेले लक्ष्य संधान के लिये निकल पडऩे की प्रेरणा देता है। क्योंकि यहां लक्ष्य एक साधन है, साध्य नहीं। उस साधन की उपलब्धि के बाद साध्य तो स्वमेव सध जायेगा। ... और वे इस सफर पर निकल पड़े।
'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर
लोग आते ही गये औ कारवां बनता गयाÓ
65 वर्ष के मील पत्थर पर जब हम खड़े होकर पथ का विहंगावलोकन करते हैं तो चप्पे-चप्पे पर हमारे सुधी पाठकों, विज्ञापनदाताओं और हितैषियों की मौजूदगी दिखायी पड़ती है। हम आज भी उनके आभारी हैं।

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