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Thursday, April 14, 2011

हवा निकल रही है अण्णा के आंदोलन की


हरिराम पाण्डेय
कई बार ऐसा होता है कि वर्जनाहीन सद्गुण लोकतंत्र को गुमराह कर देते हैं। अण्णा हजारे का आंदोलन इसी कड़वी सच्चाई का नमूना है। भ्रष्टïाचार के खिलाफ आंदोलन ने लोगों को बहुत ज्यादा विस्मित कर रहे थे। इस मामले में राजनीतिक नेताओं की जिद तो जनता के धैर्य को वजन किया करती है।
लोकपाल बिल को मजबूत बनाने और उसे तैयार करने के लिए बनायी गयी समिति में जनता के नुमाइंदे शामिल करने के लिए केंद्र को अनशन के जरिए मजबूर करने वाले हजारे से इन दिनों हर पार्टी और विचारधारा के लोग उम्मीद लगाये बैठे हैं। जो काम राजनीतिक पार्टियों को खुद करना चाहिए, उसके लिए ये पार्टियां 72 साल के अण्णा हजारे से गुजारिश कर रही हैं। लेकिन गुजरात में ग्राम्य विकास के लिए मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करना हजारे के सहयोगियों और समर्थकों को नागवार गुजर रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, संदीप पांडेय और कविता श्रीवास्तव ने एक साझा बयान जारी कर हजारे द्वारा मोदी की तारीफ किए जाने की आलोचना की है। बयान में कहा गया है कि यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और मंजूर करने लायक नहीं है। यह बयान नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम) नाम के संगठन की ओर से जारी किया गया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के निशाने पर आए अण्णा हजारे ने एक ताजा बयान में कहा है कि उनका राजनीति से कोई लेना- देना नहीं और वे इस मामले में कोई पार्टी नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि उनका अभियान सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ है। हजारे ने एक विज्ञप्ति जारी कर यह सफाई दी है।
लेकिन अण्णा की सफाई गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ताओं के गले उतरती नहीं दिख रही है। जन लोकपाल बिल पर अण्णा के समर्थन में अनशन पर बैठने वाली मल्लिका साराभाई ने भी मोदी की तारीफ करने पर हजारे की आलोचना की है।
हालांकि अण्णा की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम अभी समाप्त नहीं हुई है, इसका सिर्फ एक चरण समाप्त हुआ है। मगर, जिस चरण को सौ फीसदी कामयाब बताया और बड़े पैमाने पर माना जा रहा है, वह दरअसल कितना कामयाब है, इसके संकेत अभी से मिलने शुरू हो गए हैं। यहां मतलब बाबा रामदेव के उस आरोप से नहीं है जिससे वह पीछे हट चुके हैं। हालांकि एक समिति में बाप- बेटे को शामिल किए जाने संबंधी उस आरोप को उनके बाद बीजेपी ने उठा लिया है। लेकिन, फिर भी उसे तूल देने का खास मतलब नहीं है। असल समस्या है कि मौजूदा सरकार के वरिष्ठ मंत्री अब उस धारणा को बदलने की कोशिश में जुटे हैं जिसके मुताबिक सरकार ने अण्णा और उनकी सिविल सोसाइटी को जरूरत से ज्यादा भाव दे दिया है। यह राय प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र के अंदर बैठे उन लोगों की है जो इस तंत्र को चला रहे हैं। मंत्रियों की ये अटपटी बातें दरअसल उस तंत्र को सफाई देने की मात्र कोशिश है जो उनसे जवाब तलब कर रहा है कि आपने तंत्र के बाहरी लोगों को फैसले करने का अधिकार कैसे दे दिया? अगर ध्यान दें तो साफ हो जाता है कि परदे के पीछे इसमें सभी दलों के लोग शामिल हैं। अण्णा ने समिति की बैठकों की विडियोग्राफी कराने की जो मांग की, उसे सभी दलों ने मिलकर ठुकरा दिया है। यही वह बिंदु है जहां अण्णा हजारे के इस आंदोलन की लाचारी साफ हो जाती है। सवाल किसी एक कानून का है ही नहीं। हालांकि तंत्र की मर्जी के बगैर कोई कानून बनवाना भी आसान नहीं, लेकिन जैसे-तैसे कानून बनवा भी लिया जाय तो उससे खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि उस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी तो इसी तंत्र को सौंपनी होगी। साफ है कि अगर आप स्थितियों को सचमुच बदलना चाहते हैं, उसे बेहतर बनाना चाहते हैं तो आज नहीं तो कल आपको मौजूदा तंत्र से टकराना ही होगा। इस मुख्य और बेहद कठिन लड़ाई से बचते हुए चोर दरवाजे से कोई सुधार करवा लेने और उस कथित सुधार के जरिए दुनिया बदल लेने का सोच बचपना नहीं तो और क्या है? अगर आज अण्णा के आंदोलन की ताकत नापनी है तो कल्पना करें कि देश की सभी लोकसभा सीटों पर अण्णा के लोगों को खड़ा कर दिया जाए तो क्या स्थिति रहेगी? पहला सवाल तो यही आएगा कि क्या उतने उम्मीदवार भी मिलेंगे अण्णा को? दूसरी बात खुद अण्णा मान चुके हैं कि अगर वह चुनाव लड़े तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी। यानी जिसे लोकतंत्र की सबसे अहम कसौटी माना जाता है, जिस कसौटी को हम देश चलाने की योग्यता का आधार मानते हैं वह ऐसी बेकार हो गयी है कि अपने समय के सबसे प्रामाणिक आंदोलन का सही मूल्यांकन नहीं कर सकती। उसे दो कौड़ी का बता देती है और जिन नेताओं को दो कौड़ी का होना चाहिए उन्हें देश चलाने के लायक बता देती है।
क्या इस सच्चाई को अनदेखा करके कोई आंदोलन आगे बढ़ सकता है? यह कहने से काम नहीं चलेगा कि अण्णा चुनाव सुधार की भी बात करते हैं, कि उन्होंने वोटिंग मशीन में इनमें से कोई नहीं का विकल्प देने की भी मांग की है। एक बार फिर, यह मांग वैसी ही उथली है जैसी कि जन लोकपाल बिल। सवाल वोटिंग मशीन के बटनों का नहीं है, उन ताकतों का है जो वोटरों को एक बोतल शराब पिलाकर या जाति और धर्म के इंजेक्शन लगाकर उनके वोट हथिया लेती हैं। इनसे टकराए बगैर सुधार के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। अम्बेडकर ने अनशन पर दिये गये अपने भाषण में कहा था कि 'ऐसे साधनों का उपयोग लोकतंत्र को अराजक बनाना है। Ó

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