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Tuesday, April 12, 2011

अण्णा जीते पर करेंगे क्या?



हरिराम पाण्डेय
अण्णा हजारे ने अनशन तोड़ दिया। सरकार झुक गयी और उनकी मांगों को मान लिया। कुछ लोगों ने इसे 1968 की पुनरावृत्ति बतायी किसी ने जेपी आंदोलन का आगाज कहा लेकिन जिन लोगों ने इन आंदोलन में जनता के गुस्से का ताप नहीं देखा उसे सुन- पढ़ कर महसूस किया उन्हें अण्णा हजारे के अनशन से हुआ आंदोलन एक खास किस्म की कैथारसिस की तरह लगा, एक ऐसी क्रांति की भांति या एक ऐसे तूफान की तरह लगा जो भ्रष्टïाचारी राजनीतिक वर्ग को उखाड़ कर ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता सौंप देगा जिन्हें आम आदमी की पीड़ा, उसकी मुश्किलें और उसकी भूख का अहसास है और उससे वे खुद को पीडि़त महसूस करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस आंदोलन में वह कौन सी ऊर्जा थी जिसने पूर्व सैनिकों, रिक्शा चलाने वालों के संगठनों, छात्रों, बुद्धिजीवियों और यहां तक कि कॉरपोरेट दुनिया के शहंशाहों को आपस में जोड़ दिया था। वह एक मनोस्थिति थी। सब के सब किसी ना किसी रूप में राजनीति के 'रावणोंÓ के हाथों में अपमानित महसूस कर रहे थे और अपनी बेचारगी को लेकर भारी गुस्से में थे। सरकार को घुटनों पर ला देना और लोकपाल विधेयक में संशोधन के लिये मंजूर कर देने से उन्हें संतोष मिला। यही वह संतोष वह ऊर्जा थी। यह आंदोलन भ्रष्टïाचार के खिलाफ एक जोरदार हस्तक्षेप था। इसमें कोई शक नहीं है कि अब तक भ्रष्टïाचार के खिलाफ जितने भी कानून बनाये गये सबमें कुछ ऐसे घुमावदार कूचे थे जहां से कोई भी अपराधी बच कर निकल आये, लेकिन इस आंदोलन ने अपनी मांगों के कारण अपने भीतर के अंगारों के पुंज को बिखरा दिया। आखिर समाज क्या है और एक दूसरे को खरी खोटी सुनाने का विशेषाधिकार क्या होता है। इन नेताओं के साथ बस एक ही सुविधा है कि वे जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्होंने एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में उन्हें चुना है। अगर हमारा लोकतंत्र सही नहीं है तो लोकऊर्जा का उपयोग उसे सही बनाने में किया जाना चाहिये, न कि इसे खारिज करने में और कुछ स्वयंभू स्वयंसेवकों की मदद से इसे बदलने में। एकबार अमर कथाकार उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि आज जॉन की जगह कल किसी गोविंद को इस कुर्सी पर बिठा दिया जाय तो क्या बदलेगा। अतएव सबसे पहले इंसान नहीं सत्ता के उन तंत्रों को बदलना होगा जिनके माध्यम से सत्ता चलती है। बेशक इस सरकार ने लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनिर्वाचित लोगों को सत्ता के उपादानों में शामिल किया और उन शामिल हुए लोगों को यह मुगालता हो गया कि वे निर्वाचित लोगों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं इस लोकतंत्र के लिये। लेकिन समस्त राजनीतिक वर्ग की इस तरह आम भत्र्सना जैसी कि हजारे ने अपने अनशन के दौरान की और ऐसे कार्य के लिये देश के जनमानस को तैयार किया, वह व्यर्थ और खतरनाक भी है। क्योंकि हमारे प्रतिनिधि ठीक वैसे ही हैं जैसा कि हमारा समाज है। दरअसल राजनीति का विरोध अक्सर राजनीति के लिये आड़ बन जाता है। एडमंड ब्रुक ने लिखा है कि 'सियासत और संसद के प्रति सिनिक भाव किसी को भी उन संस्थाओं के बारे में गलत सोचने का जरिया देता है जिन्हें लोग सम्मान करते आये हैं और खुद को एक आजाद इंसान समझनेवाले भावों से दूर होते जाते हैं।Ó जो लोग लम्बी राजनीतिक प्रक्रिया का चुटकियों में समाधान करते हैं दरअसल वे विकल्प का सत्यानाश कर देते हैं। वे यह महसूस कर सकते हैं कि हमारी ढेर सारी समस्याओं का समाधान अपनी लोकतांत्रिक समस्याओं को ज्यादा ताकतवर बनाने , उन्हें पारदर्शी बनाने और जवाबदेह बनाने में है ना कि उन्हें बदलने या उनके समानांतर एक नयी व्यवस्था को आरंभ करने में है।

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