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Thursday, April 14, 2011

समाधान का शार्टकट हमारी सबसे बड़ी कमजोरी


हरिराम पाण्डेय
किसी क्रांति की राह में अकादमिक पंडिताई के रोड़े अटकाना उद्देशिक गद्दारी कही जा सकती है। अपने देश में जब भी कोई बहस होती है तो लोग सबसे पहले समस्या के हल की मांग करते हैं। एक तरह से यह एक दम जायज भी है। अतएव हमें यह देखना है कि समस्या के चक्रव्यूह से हमें क्या- क्या हासिल हो सकता है। समस्या जितनी गंभीर होगी उसके हल की व्याकुलता उतनी ज्यादा होगी। लेकिन हम समाधान की पड़ताल में क्या देख रहे हैं? कई बार ऐसा होता है कि जिसे हम समाधान समझते हैं वह हमें अंधी गली के आखिरी सिरे पर ले जाकर छोड़ देता है। इसलिये जरूरी है कि उन पगडंडियों को न अपनाएं जिन्हें हम शार्टकट समझ कर समाधान के संधान के लिये अपनाते हैं। इसका सबसे पहला शार्टकट है जिसे हम आम तौर पर अपनाते हैं, वह है कि समस्या का एक ही केंद्र है और समाधान का आधार वह केंद्र ही है। उदाहरण के लिये भ्रष्टïाचार मिटाने के लिये जन लोकपाल के गठन से ही 90 प्रतिशत समस्याओं का समाधान हो जायेगा। दूसरी बात है कि समाधान हमेशा कारण से सम्बद्ध होना चाहिये ना कि लक्षण से। मौजूदा स्थिति में जितने भी उपाय हैं या जो कानून हैं वे सब भ्रष्टïाचार विरोधी हैं ना कि भ्रष्टïाचार निरोधी। यह गौर करने वाली बात है कि एक अच्छा कानून भ्रष्टïाचार को शत- प्रतिशत खत्म करने की गारंटी नहीं दे सकता पर एक गलत कानून इसके प्रसार की पूरी गारंटी है। कई बार समाधान प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष होते हैं मसलन , किसी जरूरत की वस्तु को दुर्लभ बना कर मूल्य नियंत्रण कानून कठोर करना समस्या का हल नहीं हो सकता जबकि उस वस्तु को अत्यंत सुलभ बना देने से ही मूल्य नियंत्रण हो जायेगा फिर कानून की जरूरत ही नहीं है। किसी भी प्रभावशाली समाधान के लिए मानवीय गरिमा को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये। कई बार देखा गया है कि भ्रष्टïाचार मिटाने के उपाय उसे तो दूर नहीं करते जबकि स्थान और समय को बदल देते हैं। यहां तक कि चीन में भ्रष्टïाचार के लिये मृत्युदंड का प्रावधान है पर वहां भी भ्रष्टïाचार की प्रवृत्ति का समूल नाश नहीं किया जा सका है। आदतें अभी भी कायम हैं, प्रवृतियां कायम हैं। समाधान हमेशा बाहर से नहीं गढ़े जाते बल्कि उनका अंतरस्स्फुटन भी होता है। भ्रष्टïाचार सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन से आसानी से दूर हो सकता है। अत: किसी भी समाधान की सफलता के लिये जरूरी है कि हमें उन दशाओं की पूरी जानकारी हो जिसके तहत वह समाधान कामयाब हो सकता है। कई समाधान केवल इसलिये फलीभूत नहीं होते कि उनके लिये उपयुक्त दशा वहां मौजूद है ही नहीं। किसी समाधान के बारे में हम सवाल पूछना ही भूल जाते हैं। हम यह नहीं समझते कि सुप्रीम कोर्ट के एक जज के लिये जो जरूरी है वह मीडिया या किसी पुलिस अधिकारी के लिये या प्रधानमंत्री के लिये जरूरी नहीं है। हमारे यहां समाधान की मांग के दौरान हम चाहते हैं कि कुछ होता हुआ दिखे, हम उपायों को प्राथमिकता नहीं देते। समाधान के कई पहलू ऐसे हैं जो लोगों को हैरान कर देते हैं। क्योंकि हम उपायों को लागू करने पर दबाव नहीं देते। हमें समाधान के दौरान समस्या के विभिन्न स्वरूपों पर ध्यान देना होगा। हमारे देश में लोग भ्रष्टïाचार के विभिन्न स्वरूपों पर ध्यान नहीं देते बल्कि उसके समाधान के लिये नारे लगाने लगते हैं। इसके स्वरूप विभिन्न हो सकते हैं इसलिये उसके समाधान भी अलग- अलग हो सकते हैं। इसके अलावा भ्रष्टïाचार सामाजिक मूल्यों के कारण भी पनपता है। शासन अक्सर सामाजिक मूल्यों का वाहक होता है और ऐसे में जाने अनजाने भ्रष्टïाचार को समाज में पनपने का मौका मिलता है। किसी भी लोकतंत्र में भ्रष्टïाचार केवल पैसों तक सीमित नहीं होता बल्कि वह कई गूढ़ अर्थों में भी सामने आता है। यहां तक कि हम अपना काम करने या करवाने के लिये किन साधनों का इस्तेमाल करते हैं। इसका मतलब यह नहीं होता कि कुछ हो नहीं सकता। कुछ लोग हैं जो उम्मीद का आंचल नहीं छोड़ते। उनके लिए यह दुनिया अटपटी जरूर है लेकिन उनके संदेहों और संकटों का निराकरण भी शायद इसी दुनिया में है। अगर हम सतयुग से इक्कीसवीं सदी के कलयुग तक आ पहुंचे हैं और अभी तक हमारा अस्तित्व और वर्चस्व बरकरार है तो इसका एक मात्र सीधा अर्थ यही होता है कि अभी सारी उम्मीदें खत्म नहीं हुई हैं। सिर्फ उन उम्मीदों तक पहुंचना है और इसमें सदाचार का ताबीज शायद कुछ मदद कर सके। वैसे ताबीजों और तमगों के भरोसे जंग नहीं जीती जाती और करने वाले भूदान और गोदान में भी घपला करते हैं लेकिन सब कुछ बुरा हो रहा है इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अच्छा होने की कल्पना से भी हम अपने आपको दूर कर लें।

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