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Wednesday, April 20, 2011

मां बाप और सुख दुख

हरिराम पाण्डेय
जिंदगी मां के आँचल की गांठों जैसी है। गांठें खुलती जाती हैं। किसी में से दु:ख और किसी में से सुख निकलता है।
हम अपने दु:ख में और सुख में खोए रहते हैं। न तो मां का आँचल याद रहता है और न ही उन गांठों को खोलकर मां का वो चवन्नी अठन्नी देना।
याद नहीं रहती तो वो मां की थपकियां। चोट लगने पर मां की आंखों से झर झर बहते आंसू। कॉलेज से या काम पर से लौटने पर बिना पूछे वही बनाना जो पसंद हो। जाते समय पराठे, चूड़ा, नमकीन और न जाने कितने पैकटोंं में अपनी यादें निचोड़ कर डाल देना।
याद रहता है तो बस बूढ़े मां बाप का चिड़चिड़ाना। उनकी दवाईयों के बिल, उनकी बिमारी, उनकी झिड़कियां और हर बात पर उनकी बेजा सी लगने वाली सलाह।
आखिरी बार याद नहीं कब मां को फोन किया था। काम पर था तो यह कहते हुए काट दिया था कि बिजी हूं बाद में करता हूं। वह इंतजार करती रह गयी और थक कर सो गयी मोबाइल के स्क्रीन को देखते देखते। उसे पैसे चाहिए थे। पैसे थे भी, बैंक से निकालने की फुर्सत नहीं थी।
भूल गया था दसेक साल पहले हर चौथी तारीख को पापा नियम से पैसे दे देते थे। शायद ही कभी कहना पड़ा हो मां पैसे नहीं मिले।
शादी हो गई । बच्चे हो गए। नई गाड़ी और नया फ्लैट लेने की चिंता है। बॉस को खुश करना है। दोस्तों को पार्टी देनी है। बीवी को छुट्टियों पर गोवा लेकर जाना है।
मां बाप वैष्णो देवी जाने के लिए कई बार कह चुके हैं लेकिन फुर्सत कहां है। काम बहाना है। समय है लेकिन कौन मां के साथ सर खपाए। बोर कर देती है नसीहत दे देकर।
पापा इतने सवाल करते हैं कि पूछो मत। कौन इतने जवाब दे। सुबह देर से सो कर उठना मुहाल हो जाता है। अपने घर में ही छुपते रहो।
न जाने हमने कितने सवाल पूछे होंगे मां-बाप से, अभी बिटिया हमेशा सवाल पूछती रहती है दादा- दादी से लेकिन शायद ही कभी डांट भरा जवाब मिला हो।
लेकिन हमारे पास उन्हें देने के लिए कुछ नहीं है। हमारे बटुओं में सिर्फ झूठ है। गुस्सा है...अवसाद है... अपना बनावटी चिड़चिडापन है। उनकी गांठों में आज भी सुख है दु:ख है और हम खोलने जाएं तो हमारे लिए आशीर्वाद के अलावा और कुछ नहीं।
अगले दिनों में मदर्स डे है....साल में एक बार मदर्स डे के नाम पर ही एक बार मां के आंचल की गांठें खोलने की जरुरत सभी को होनी चाहिए।

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