हरिराम पाण्डेय
पिछले हफ्ते लंदन के अखबार टाइम्स में प्रकाशित एक रपट के अनुसार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कियानी से से गुप्त वार्ता की थी और लगभग आठ महीने पहले प्रधानमंत्री ने एक गैर सरकारी दूत की नियुक्ति भी की थी इस काम के लिये। इस खबर को लेकर दोनों देशों में काफी सनसनी फैली थी। हालांकि भारत में सरकारी सूत्रों ने इस खबर को गलत और बेबुनियाद बताया था। किंतु इस खंडन पर बहुत से विश्लेषकों ने यकीन नहीं किया था। किंतु पूरी रपट को यदि ध्यान से पढ़ा जाय तो उसमें कई भ्रांतियां स्पष्टï होती हैं और इन भ्रांतियों के आधार पर दोषसिद्धि मुश्किल है। रपट में कहा गया है कि जनरल परवेज अशफाक कियानी और आई एस आई के महानिदेशक ले. जनरल अहमद शुजा पाशा ने पिछले हफ्ते काबुल का दौरा किया था और अफगान नेताओं से बातें की थीं। ऐसे मौके पर अक्सर अखबार काफी एतराज जाहिर करता है पर इस बार वह चुप था। अखबार ने इसे भारत - पाकिस्तान सुलह की अमरीकी कोशिश का नतीजा बताया है। कियानी और शुजा पाशा का यह काबुल दौरा कोई नयी बात नहीं है। पिछले साल इन लोगों ने कभी द्विपक्षीय वार्ता, कभी त्रिपक्षीय वार्ता , कभी अमरीकी कमांडरों से बातचीत और कभी खुफिया सूचनाओं के आदान- प्रदान के नाम पर कम से कम छ: बार काबुल का दौरा किया था। लेकिन यह दौरा पिछले दौरों से थोड़ा अलग था। इस बार वे दोनों राष्टï्रपति अहमद करजाई द्वारा गठित शांति परिषद की बैठक में भाग लेने गये थे। यह परिषद वार्ता के लिये तालिबानों को सहमत करने के लिये गठित की गयी है। अफगानिस्तान एक स्वतंत्र राष्टï्र है और यदि सरकारी आमंत्रण हो तो पाकिस्तान के नेता और अफसर वहां जिस उद्देश्य के लिये भी हो जाने के लिये आजाद हैं। भारत की आपत्ति का सवाल ही नहीं उठता। टाइम्स का यह कहना बेवजह है अथवा दूर की कौड़ी है। पाकिस्तान में जब भी फौजी हुकूमत रही है भारत ने वहां के फौजी अफसरों से खली अथवा गोपनीय वार्ताओं में कोई हिचक नहीं दिखायी है। भारत सरकार का जनरल जिया उल हक या परवेज मुशर्रफ से बहुत अच्छा सम्पर्क था। इसमें से कई बार सम्पर्क बिचौलियों के माध्यम से हुआ और कई बार सीधे। जनरल जया उल हक और राजीव गांधी में वार्ता के लिये जॉर्डन के युवराज ने मध्यस्थता की है। इस सम्पर्क के बाद ही रॉ के प्रमुख और आई एस आई के प्रमुख में बातचीत हुई थी। यह भी कहा जाता है कि जनरल मुशर्रफ के छोटे भाई ने वाजपेयी- मुशर्रफ वार्ता की राह प्रशस्त की थी। हालांकि भारत की यह नीति रही है कि जब वहां असैनिक सरकार रही है तो भारत ने पाकिस्तानी फौजी जनरलों से वार्ता नहीं की है। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान में असैनिक सरकार के रहते हुए कभी वहां के जनरलों से खुली या गोपनीय वार्ता नहीं की। हालांकि पाकिस्तान में कभी भी असैनिक सरकार बहुत ज्यादा शक्तिशाली नहीं रही। अब तो हालत और खराब है। अब ऐसी स्थिति में यह किसी ने नहीं बताया कि मनमोहन सिंह इस स्वस्थ नीति को क्यों छोड़ेंगे? हालांकि अमरीका ने यह कोशिश जरूर की है कि वहां के फौजी और खुफिया अफसरों तथा भारत के फौजी तथा खुफिया अफसरों में गोपनीय सम्पर्क हो सके। 26/11 की घटना की जांच के लिये अमरीका ने इस दिशा में प्रयास भी किया था और बहुत संभव है कि उसका वह प्रयास जारी भी हो। इसमें एक लाभ भी है जिसे राजनीतिक लाभ भी कहा जा सकता है कि ऐसे सम्पर्कों से आपसी सद्भाव बढ़ता है। इसलिये कोई हैरत नहीं है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत के किसी खुफिया अफसर या फौजी अफसर को इस तरह की वार्ता के लिये मंजूरी दी हो। अगर यह सही भी है तो इसमें गलत क्या है , इसका समर्थन किया जाना चाहिये। टाइम्स अखबार का नजरिया दोषपूर्ण है।
Friday, April 29, 2011
प्रधानमंत्री-कियानी वार्ताÓ का समर्थन होना चाहिये?
Posted by pandeyhariram at 3:53 AM
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