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Friday, April 22, 2011

अमीर हो रहे हैं भारत के गरीब


हरिराम पाण्डेय
विश्व के 124 देशों की खुशहाली का पता लगाने के वास्ते लिये कराये गए एक सर्वेक्षण में भारत को 71 वां स्थान मिला हैं जहां केवल 17 प्रतिशत लोग ही अपने को सम्पन्न मानते हैं। गैलअप नाम की एक अमरीकी संस्था ओर से खुशहाली का पता लगाने के लिए किये सर्वेक्षणों को जोड़कर आये परिणामों के अनुसार 64 प्रतिशत भारतीय मानते हैं कि वे 'संघर्षरतÓ हैं जबकि 19 प्रतिशत मानते हैं कि वे 'कष्टÓ में हैं। दूसरी तरफ देश में गरीबी का अनुपात 2009-10 में घटकर 32 प्रतिशत पर आ गया है। योजना आयोग के शुरुआती अध्ययन में यह आंकड़ा सामने आया है। पांच साल पहले गरीबी का अनुपात 37.2 प्रतिशत था। यह अनुमान तेंदुलकर समिति द्वारा गरीबों का आंकड़ा निकालने के लिए सुझाये गए फार्मूले पर आधारित है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने बुधवार को कहा, ''2009-10 के आंकड़ों में गरीबी घटकर 2004-05 के 37.2 प्रतिशत से 32 फीसदी पर आ गई है। ÓÓ सरकारी आंकड़ों को ही यदि सही मान लें तो हमारे देश में लगभग 68 प्रीतशत लोग गरीब हैं। ये आंकड़े भी कम निराशाजनक नहीं हैं। देश के गरीब 20 रुपये रोजाना से कम पर गुजारा कर रहे हैं। पर सवाल यह है कि कौन सा आंकड़ा ज्यादा भरोसेमंद है और किस हद तक। कुछ महीने पहले एक अन्य रिपोर्ट में एन. सी. सक्सेना ने देश में गरीबों का आंकड़ा 50 फीसदी बताया था। इस मामले में विश्व बैंक के पास भी एक आंकड़ा है, जिसने देश में गरीबों की संख्या 42 फीसदी बताई गई है। निश्चित तौर पर ये सभी अनुमान उन पर आधारित हैं कि आप गरीबी रेखा के लिए कौन सा मानदंड अपनाते हैं। वर्तमान में सरकारी विधि में गरीबी रेखा के लिए खर्च को मानक बनाया है, इस बारे में तेंदुलकर का कहना है कि यह काफी कम था क्योंकि इसमें शिक्षा व स्वास्थ्य खर्च को शामिल नहीं किया गया था और इस वजह से उन्होंने इस लागत को इसमें जोड़ा है।
उन्होंने यह भी महसूस किया कि शहरी व ग्रामीण उपभोग के बीच अंतर वाला नियम पुराना पड़ गया है, लिहाजा उन्होंने दोनों जगह के लोगों के लिए एक सा उपभोग नियम इस्तेमाल करने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने निश्चित तौर पर अलग-अलग कीमतों को लिया ताकि वह लागत के अंतर पर प्रतिबिंबित हो सके।
उन्होंने गरीबी रेखा की बाबत 483.6 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च पेश किया - 446.7 रुपये ग्रामीण इलाकों के लिए और 578.8 शहरी इलाकों के लिए - और इसी से गरीबी का उनका अनुमान सरकारी अनुमान 27.5 फीसदी के मुकाबले 37.2 फीसदी सुनिश्चित हुआ। विश्व बैंक का गरीबी रेखा खर्च का मानक तेंदुलकर के मुकाबले मामूली रूप से ज्यादा है और सक्सेना का मानक विश्व बैंक के मुकाबले ज्यादा है। खर्च के आंकड़़ों से अलग सक्सेना ने ग्रामीण इलाकों के लिए 700 रुपये की आय और शहरी इलाकों के लिए 1000 रुपये की आय को गरीबी के अनुमान के लिए आधार बनाया। ऐसे में गरीबी की रेखा जितनी ऊंची होगी देश में गरीबों की संख्या भी उतनी ही ज्यादा होगी। गरीबी रेखा के सही मानक के लिए रॉकेट साइंटिस्ट की जरूरत महसूस नहीं हुई है, लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है। निश्चित तौर पर यह वहीं है जहां तेंदुलकर का आंकड़ा बिना किसी बाधा के सामने आया है और वह सरकारी 27.5 फीसदी के आंकड़ों के करीब है, जिसे वह बदलना चाहते हैं।यह सर्वे भी बताता है कि गरीबी के आंकड़े काफी ऊंचे हैं। एनसीएईआर के 2004-05 के आंकड़ों के मुताबिक, 30.5 फीसदी भारतीय - 35 फीसदी ग्रामीण भारत में और 19 फीसदी शहरी भारत में - के खर्च तेंदुलकर द्वारा पेश आंकड़ों से कम थे। महत्वपूर्ण रूप से यह तेंदुलकर के 37.2 फीसदी के आंकड़ों से कम है, ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इनके पास किन चीजों का मालिकाना हक है।
ग्रामीण भारत के 13 घरों में से एक घर में दोपहिया वाहन है - शहरी इलाकों में यह बढ़कर पांच घरों में एक हो जाता है। ग्रामीण भारत में चार घरों में से एक में सीलिंग फैन है जबकि शहरी इलाकों में यह संख्या 10 में 7 की है।
ग्रामीण भारत में 20 घरों में से एक के पास रंगीन टेलीविजन है जबकि शहरी इलाकों में हर चार घरों में से एक में है (ब्लैक ऐंड व्हाइट के मामले में यह संख्या कई गुना बढ़ जाती है) - इसका मतलब यह हुआ कि वे ऐसे घरों में रहते हैं जहां बिजली की सुविधा है। दूसरे शब्दों में, ऐसे आंकड़े उस नजरिए पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं कि ये घर गरीबी रेखा के नीचे हैं।

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