हरिराम पाण्डेय
80 के दशक में एक गाने ने हजारों के दिल को छूकर वो तार, उन भावनाओं को उकेरा था, जिसे लोग महसूस तो किया करते थे, लेकिन बयान करने के लिए या तो उनके पास शब्द नहीं थे या फिर हिम्मत. इस गाने के साथ हर वो व्यक्ति अपने आपको जोड़कर देखा करता था, जो किसी छोटे शहर से एक बड़े शहर या मेट्रो में अपने आपको खोते हुए देख रहा था.
असहाय, निरीह आखों से अपने अस्तित्व को एक महानगर में लीन होते देखना और कुछ न कर पाने की बेबसी– एक महानगर में व्यवस्था के नाम पर अपनों से कटना और उसे सही ठहराने के लिए खुद को भुलाते रहना. हां, वो एक ऐसा दौर था, जब दुनिया के साथ-साथ भारतीय महानगरों में रहने वाले लोग भी बदल रहे थे. इससे पहले कि बात आगे बढ़ाएं, पहले जरा उस गाने के मुखड़े को पढ़ लीजिए.
‘सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है. इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यूं है.. दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे, आईना हमें देख के हैरान-सा क्यूं है. सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है.’
पिछले 25 सालों में इस गाने की शाश्वतता में कोई बदलाव नहीं आया. हां, जो बदलाव आया है, वो ये कि अब इसके भाव सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं हैं. अब छोटे शहरों में बसने वाले लोग भी इस गाने के मर्म को बखूबी महसूस करने लगे हैं और अपनी जिंदगी को बेरंग होता देखकर शायद ही कुछ कर पाने की स्थिति में हैं.
फौरी तौर पर हम इसे समाज के बदलते चहरे, भारतीय संस्कारों के खत्म होने की मिसाल, परिवारों के टूटने की प्रक्रिया, 'एकला चलो रे' की हमारी चाहत, न्यूक्लियर परिवार का चलन, कंज्यूमर कल्चर का प्रचलन और न जाने क्या-क्या कहकर, कन्नी कटा ले सकते हैं. कुछ लोग, खासकर मनोवैज्ञानिक, इस अकेलेपन के एहसास को या फिर इससे ग्रस्त व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर भी मान सकते हैं.
लेकिन क्या यही सच है. क्या यही वो वजहें हैं, जिनके चलते नोएडा में दो बहनों ने 6 महीनों से अपने-आपको पूरी दुनिया से काटे रखा था. खाना बंद कर दिया था. कंकाल बनकर मौत का इंतजार कर रही इन दोनों बहनों को टीवी पर देखकर क्या आप वाकई में मानते हैं कि अपनी इस हालत के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं. क्या ये दोनों बहनें मानसिक रूप से इतनी कमजोर हो चुकी थीं कि मौत ही इनके लिए एकमात्र रास्ता बचा था. क्या आप मानते हैं कि इंजीनियरिंग और अकाउंटिंग की पढ़ाई कर चुकी दोनों बहनों में जिंदगी जीने का कोई जज्बा बचा ही नहीं था. महज माता-पिता की मृत्यु और भाई से नाता टूट जाने की वजह से इन्होंने अपने-आपको मिटाना बेहतर समझा.
नहीं. ये कतई सच नहीं हो सकता.
कम से कम एक बात तो दावे से कही जा सकती है- अपने-आपको तिल-तिलकर, रोज मरते देखने के लिए जिस हिम्मत की जरूरत होती है, वो किसी मानसिक रूप से कमजोर या विकृत व्यक्ति में नहीं हो सकती. सामान्य जिंदगी जीने की आदी इन दो बहनों में, जीने की चाह पुरजोर रही होगी. इनकी भी तमन्ना होगी कि इनका अपना एक घर हो, पति हो, बच्चे हों, सास-ससुर हों, भरा-पूरा परिवार हो, नौकरी हो, दोस्त हो, रिश्तेदार हों– वो सबकुछ, जो हर कोई अपनी जिंदगी में चाहता है, लेकिन कहीं न कहीं कोई खता रह गई होगी. और फिर शुरू हुआ होगा जिंदगी में खालीपन का वो सिलसिला, जिसमें ये दोनों अपने-आपको इस कदर खोती चली गईं कि इन्होंने अपने-आपको ही मिटाने की ठानी. और यही वो बात है, जिसपर हम सबों को गौर करने की जरूरत है.
हमें ये सोचना चाहिए कि आखिर हमारे आसपास जो लोग हैं, जो हमारे करीबी दोस्त हैं, जो हमारे सखा-संबंधी हैं, वो क्या अपने-आपमें इतना घुलते जा रहे हैं कि उनकी तरफ ध्यान देने के लिए हमारे पास वक्त ही नहीं है. हम सब अपने काम में और अपनी पारिवारिक उलझनों में क्या इतने मसरूफ हैं कि किसी और के लिए वक्त निकालना हमारे लिए एक बहुत बड़ी बात हो गयी है. हम अपने दफ्तरों के तनाव को परिवार पर हावी कर लेते हैं. फिर परिवार के दबाव से खुद को बचाने के लिए बाजार का रास्ता ढूंढ लेते हैं. टीवी चलाकर पूरा परिवार टकटकी लगाए अपनी-अपनी दुनिया में खोया रहता है. अगर उससे फुरसत मिले, तो कंप्यूटर या आईपॉड पर हम लगे रहते हैं. और अगर ये तमाम चीजे नहीं कर रहे होते, तो हम सो रहे होते हैं.
अरे भाई, जब हमारे पास ही अपने-आपसे फुरसत नहीं, तो फिर हम किसी और के लिए कहां वक्त निकाल सकते हैं. हम खुद ही अकेले रहना चाहते है और जब अपने अकेलेपन से उकताहट होती है, तब हम अपने आसपास नजर डालते है. अपने परिवार को, अपने दोस्तों को, अपने रिश्तों को तोड़ने के लिए जितने हम खुद जिम्मेदार हैं, उतने वो लोग नहीं, जो हमारे आसपास हैं.
जरा याद कीजिए, पिछली बार कब हमसे किसी ने अपनी मां, पिता, पत्नी, बेटे या बेटी के साथ बैठकर बेतरती की गप मारी थी. कब हममें से किसी ने ये जानने की कोशिश की थी कि वो बहन, जो अपने घर में अपने पारिवारिक उलझनों के बीच राखी की डोर हमें बांधती है, उसका घर कैसे चल रहा है. वो भाई, जिसकी बीवी काम के सिलसिले में किसी दूसरे शहर कुछ दिनों के लिए गई है, उसके बच्चे कैसे घर पर अपना काम कर रहे हैं. फोन पर ही बेटे की आवाज सुनकर दिनभर खुशी से गाने गुनगुनाने वाली मां से कब हममें से किसी ने ये पूछा कि पैरों के जोड़ का दर्द ज्यादा तो नहीं. हम ये सब नहीं पूछते. हां, हम ये जरूर कहते हैं कि आज के जमाने में परिवार बचा नहीं है.
अगर नोएडा की दोनों बहनों से उनके भाई ने हर दिन बातें की होतीं, पूछा होता कि तुम ठीक तो हो– कुछ दिनों के लिए बंगलुरु आ जाओ– 6 महीनों में एक बार भी वक्त निकालकर उनसे मिलने नोएडा वो भाई अगर आ पाया होता, तो क्या वो इसी तरह मौत की टकटकी लगाए रहतीं. अगर उन दोनों बहनों की दोस्तों में से किसी ने भी उनसे बातें की होतीं, उनकी मानसिक स्थिति को समझने कि कोशिश की होती, तो क्या इन दोनों ने खाना-पीना, इस तरह छोड़ा होता. अगर आसपास रहने वाले उनके किसी भी संबंधी ने उनकी पीड़ा, उनके दर्द को समझने की कोशिश की होती, तो क्या आज उनमें से एक की जान गई होती. नहीं, शायद ऐसा नहीं होता.
इस हादसे को सिर्फ एक नाम दिया जा सकता है– हम सबों की खुदगर्जी.
एक बार ही सही, इन दोनों बहनों के दिमाग को अगर हम पढ़ने की कोशिश करें, तो क्या कुछ नहीं बीता होगा इन पर. सबसे पहले दुनिया से खुद को काटना. हर तरह के मनोरंजन से खुद को महरूम करना. हर रिश्ते से अपने-आपको अलग करना. अपनी हर चाहत को सिरे से कुचल डालना. ख्वाहिशों का खून करना. तन्हाई की चादर इस कदर ओढ़ना कि उससे पार कुछ न आ पाये. फिर इस सदमे को अपने भीतर एक जख्म की तरह पालना कि माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके जीवन में कुछ नहीं बचा. उसके बाद अपने-आपको इतना मजबूत करना कि अब तिल-तिलकर मरना ही उनकी नियति है. भूख से कुलबुलाती आंतों के दर्द को दिमाग की एकजुटता से मिटा देना. कमजोर पड़ती पसलियों और कांपते हाथों की थरथराहट को इरादे की एकाग्रता से नजरअंदाज करना. और फिर कंकाल बनकर अपने बिगड़ते चेहरे पर मौत की झुर्रियों को धीरे-धीरे गहराते देखना. महज लिखना भर मुश्किल है, इन बहनों ने जो झेला होगा, उसे महसूस कर पाना, शायद हममें से किसी के लिए भी नामुमकिन है.
और इस बेतरती जिंदगी और बेवजह मौत के लिए जिम्मेदार हैं हम– हम जो इतने खुदगर्ज हो चुके हैं कि हमारे पास किसी के लिए भी वक्त ही नहीं है.
आज 80 के दशक के उस गाने का मुखड़ा होना चाहिए... ‘सीने में जलन आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है. इस शहर में हर शख़्स इतना खुदगर्ज क्यूं है.’
Friday, April 29, 2011
भीड़ तो है, लेकिन हम तन्हा क्यों हैं?
Posted by pandeyhariram at 3:38 AM
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