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Saturday, April 9, 2011

अन्ना का अनशन : आसार आशाजनक नही


हरिराम पाण्डेय
अन्ना हजारे के अनशन से देश में उम्मीदें जाग गयी हैं और लोग सवाल पूछ रहे हैं कि क्या सचमुच ऐसा कोई विधेयक बनेगा, नहीं बना तो क्या होगा, यदि अन्ना के अनशन ने लोगों में क्रांति की ज्वाला भड़का दी तो क्या यहां भी मिस्र, अरब और लीबिया की तरह आंदोलन होंगे? माहौल पूरा है। थोड़ा दिल्ली के जंतर मंतर पर, थोड़ा इधर-उधर के शहरों में और सबसे ज्यादा टेलीविजन के स्क्रीनों पर। अखबारों ने भी माहौल बनाने की पूरी कोशिश की है। लेकिन, जो काम इस अभियान के शुभचिंतकों को करना चाहिये वह ढंग से होता नहीं दिख रहा। मुहिम का शोर तो बहुत हो रहा है, लेकिन इसे ज्यादा मजबूत, ज्यादा कारगर, ज्यादा तर्कसंगत बनाने की कोशिश कम से कम सार्वजनिक मंचों पर अपवादस्वरूप ही दिख रही है। चूंकि अन्ना हजारे का कोई निजी स्वार्थ नहीं है और सार्वजनिक कल्याण के भाव से सबके हित को देखते हुए उन्होंने यह अनशन शुरू किया है, इसलिए निश्चित तौर पर खुद अन्ना भी ऐसी किसी कोशिश का समर्थन ही करेंगे। परंतु, यही बात उनके उन उत्साही समर्थकों के बारे में नहीं कही जा सकती, जो इस मुहिम का शोर मचाते हुए इसके लिए जीने-मरने का खोखला एलान करने को ही सफलता की गारंटी समझ बैठे हैं। बहुत संभव है कि ऐसी किसी कोशिश को ये उत्साही समर्थक मुहिम के विरोध के रूप में लें और ऐसा करने वालों को विरोधी खेमे का करार दें। यही कारण है कि जो लोग अन्ना हजारे के आमरण अनशन के समर्थन में निकल रहे हैं उनकी संख्या अभी हजारों में भी नहीं पहुंची है। हमारी आबादी के नये आंकड़े अभी-अभी आए हैं। एक अरब 21 करोड़ यानी लगभग सवा अरब। इस सवा अरब लोगों में से अभी कुछ हजार लोग भी जंतर मंतर या इंडिया गेट पर इक_े नहीं हो रहे हैं। मिस्र की आबादी से तुलना करके देखें, वहां की कुल आबादी है आठ करोड़ से भी कम। यानी अपने आंध्र प्रदेश की आबादी से भी कम। लेकिन वहाँ तहरीर चौक पर एकबारगी लाखों-लाखों लोग इक_े होते रहे। उन्हें वहां इक_ा करने के लिए किसी नेता की जरूरत नहीं पड़ी। वे खुद वहां आये क्योंकि उन्हें लगा कि परिवर्तन उनकी अपनी जरूरत है। भारत की जनता के लिए अन्ना को आमरण अनशन पर बैठना पड़ा है। फिर भी इक_े हो रहे हैं कुछ सौ लोग। दिल्ली में ही एक करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं और जितने लोग इक_े हो रहे हैं वो तो बहुत ज्यादा नहीं हैं, तो क्या अभी लोगों को भ्रष्टाचार अपना मुद्दा नहीं लगता? इसका भी एक पुख्ता कारण है। यह हमारा सामाजिक कारण है। हमारी धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था में कभी इस तरह की कोई आचार संहिता ही नहीं रही जहां भ्रष्टïाचार को गलत बताया गया हो। जब तक इंसान अपने विवेक से यह फैसला नहीं लेता कि क्या सही है और क्या गलत, तब तक यह सब रुक भी नहीं सकता। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किया गया भ्रष्टïाचार हमारी आदतों में आ गया है। हम जब तक इसे आदत के रूप में न देखकर भ्रष्टïाचार के रूप में देखेंगे तब तक इससे बाहर नहीं निकल सकते।
जिस देश में अधिसंख्य जनता सहमत है कि देश में भ्रष्टाचार असहनीय सीमा तक जा पहुँचा है। सब कह रहे हैं कि नौकरशाहों से लेकर राजनेता तक और यहाँ तक न्यायाधीश तक भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। हर कोई हामी भर रहा है कि इन राजनेताओं को देश की चिंता नहीं।
भ्रष्टाचार के आंकड़ों में अब इतने शून्य लगने लगे हैं कि उतनी राशि का सपना भी इस देश के आम आदमी को नहीं आता। उस देश में जनता इंतजार कर रही है कि इससे निपटने की पहल कोई और करेगा। अन्ना ने एक लहर जरूर पैदा की है। भारत का उच्च वर्ग तो वैसे भी घर से नहीं निकलता। ज़्यादातर वह वोट भी नहीं देता। गरीब तबका इतना गरीब है कि वह अपनी रोजी- रोटी का जुगाड़ एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ सकता। बचा मध्य वर्ग। भारत का सबसे बड़ा वर्ग। और वह धीरे-धीरे इतना तटस्थ हो गया है कि डर लगने लगा है। सरकार के रवैये से दिख रहा है कि वह देर-सबेर, थोड़ा जोड़-घटाकर लोकपाल विधेयक तैयार करने में अन्ना हजारे की मांग स्वीकार कर लेगी।
जिस दिन अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो जाएगा पता नहीं इन सवा अरब बेचारों का क्या होगा। क्योंकि डर है कि यह अभियान अपनी भीतरी कमजोरियों से ही नाकामयाब न हो जाय। क्योंकि इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत अगर अन्ना की निष्पक्ष और ईमानदार छवि है तो इसकी सबसे बड़ी कमजोरी इसका अराजनीतिक चरित्र है। ध्यान दें कि राजनीति का मतलब किसी खास दल से जुड़ाव ही नहीं है। अगर यह आंदोलन मौजूदा सभी राजनीतिक दलों को खारिज करता है और खुद को उन सबसे अलग रखता है तो यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन, अगर यह राजनीति मात्र को अपने एजेंडे से बाहर रखता है तो इसका मतलब यह जाने-अनजाने खुद को और लोगों को भुलावे में रख रहा है। यही इस आंदोलन का सबसे कमजोर पक्ष है और इसी वजह से इसका असफल हो जाना लगभग तय है।

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