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Wednesday, April 6, 2011

भारतीय संस्कृति की अस्मिता है विक्रम संवत


हरिराम पाण्डेय
आज विक्रम संवत का नववर्ष है। मौसम में ढोल थाप पर चइता लहराने के बाद आकाश में सफेदी बढ़ïने लगती है और उषा का आंचल सुनहरा हो जाता है। दिन चम्पई - गंधकी साफा बांधे निकल पड़ता है। शाम सुरमई हो जाती है, रात सिर पर सितारों से भरी थाल लेकर उतरती है। आसमान और जमीन के बीच वसंत रंगों की दुकान सजा बैठ जाता है। वसंत के इस आगमन का संदेश अपने गहरे अर्थों में हमें जीवन का दर्शन समझाता है। बस, इसी मोड़ पर एक साल और गुजरता है। वर्ष प्रतिपदा के साथ एक नया साल वसंत के मौसम में नीम पर आईं भूरी-लाल-हरी कोंपलों की तरह संभावनाओं की पिटारी लेकर हमारे घरों में आ धमकता है। जब वसंत अपने शबाब पर है तो फिर इतिहास और पुराण कैसे इस मधुमास से अलग हो सकते हैं। इसी संयोग के साथ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हम विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाते हैं। इस तिथि से पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों ही मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शत्पथ् ब्राह्मण में भी मिलते हैं। इसी दिन से चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती है। लोक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान राम का और फिर युधिष्ठिर का भी राज्यारोहण किया गया था। इतिहास बताता है कि इस दिन मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर ईसा से 58 वर्ष पूर्व विक्रम संवत का प्रवर्तन किया। इस दिन से प्रारंभ चैत्र नवरात्रि का समापन रामनवमी पर भगवान राम का जन्मदिन मनाकर किया जाता है। आखिर वसंत को नवजीवन के आरंभ के अतिरिक्त और किसी तरह से कैसे मनाया जा सकता है? हालांकि विक्रम संवत से पहले भी कई संवत प्रचलन में थे। 6676 ईसवी पूर्व से शुरू हुए प्राचीन सप्तर्षि संवत को हिंदुओं का सबसे प्राचीन संवत माना जाता है, जिसकी विधिवत शुरुआत 3076 ईसवी पूर्व हुई मानी जाती है। सप्तर्षि के बाद नंबर आता है कृष्ण के जन्म की तिथि से कृष्ण कैलेंडर का फिर कलियुग संवत का। कलियुग के प्रारंभ के साथ कलियुग संवत की 3102 ईसवी पूर्व में शुरुआत हुई थी। विक्रम संवत की शुरुआत को लेकर ,खासकर विक्रमादित्य को लेकर कई मतभेद हैं। कुछ विद्वान चंद्रगुप्त द्वितीय को विक्रमादित्य मानते हैं। लेकिन चंद्रगुप्त द्वितीय का काल 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व था। हालांकि इस तथ्य का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि किसी राजा विक्रमादित्य ने किसी शक राजा को पराजित किया था और विक्रम संवत की शुरुआत की थी। उधर इलाहाबाद में प्राप्त शिलालेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने शक क्षत्रप साम्राज्य के रुद्र सिंह तृतीय को पराजित किया था। हालांकि जैन साहित्यकार मेरुतुंगा ने विक्रमादित्य के अस्तित्व को स्वीकार किया है और विख्यात इतिहासकार आर. सी. मजुमदार ने इसका समर्थन भी किया है। यही नहीं चीनी फाह्यïान ने भी अपनी डायरी में एक राजा विक्रमादित्य का उल्लेख किया है। चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में ही नौ रत्न थे जिनमें कालिदास और वाराहमिहीर जैसे विद्वान शामिल थे। कालिदास ने अपनी रचनाओं में विक्रमादित्य का जिक्र किया है। कुतुब मीनार के समीप लौह स्तम्भ पर लिखित आलेख में चंद्रगुप्त द्वितीय का उल्लेख है। लेकिन यह काल 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व का था जबकि विक्रम संवत की शुरुआत 57 वर्ष ईसा पूर्व थी। काल चाहे जो हो पर इससे विक्रम संवत का सांस्कृतिक महत्व कम नहीं होता और सबसे जरूरी है कि हमारा देश अपनी काल गणना पद्धति को स्वीकार करे तथा राष्टï्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण बनाये। प्रकृति भी इसे ही नववर्ष मानती है और इस अवसर पर सभी पाठकों, विज्ञापनदाताओं तथा शुभेच्छुओं को बधाई।

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