CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Wednesday, April 27, 2011

भारत में गणतंत्र की परंपरा यूनानी नगर राज्यों से भी पुरानी है

हरिराम पाण्डेय
सामान्यत: यह कहा जाता है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई
थी। लेकिन इन नगर राज्यों से भी हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहां यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है।
वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालांतर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ । कुरु और पांचाल जनों में भी पहले राजतंत्रीय व्यवस्था थी और ईसा से लगभग चार या पांच शताब्दी पूर्व उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई।

भारत में वैदिक काल से लेकर लगभग चौथी-पांचवीं शताब्दी तक बडे़ पैमाने पर जनतंत्रीय व्यवस्था रही। इस युग को सामान्यत: तीन भागों में बांटा जाता है। प्रथम 450 ई.पू. तक का समय, दूसरा इसके उपरांत 300 ई.पू. तक और तीसरा लगभग 350 ई. तक। पहले कालखंड के चर्चित गणराज्य थे पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी।

दूसरे कालखंड में अटल, अराट, मालव और मिसोई नामक गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। तीसरे कालखंड में पंजाब, राजपूताना और मालवा में अनेक गणराज्यों की चर्चा पढ़ने को मिलती है, जिनमें यौधेय, मालव और वृष्णि संघ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। आधुनिक आगरा और जयपुर के क्षेत्र में विशाल अर्जुनायन गणतंत्र था, जिसकी मुद्राएं भी खुदाई में मिली हैं। यह गणराज्य सहारनपुर -भागलपुर -लुधियाना और दिल्ली के बीच फैला था। इसमें तीन छोटे गणराज्य और शामिल थे, जिससे इसका रूप संघात्मक बन गया था। गोरखपुर और उत्तर बिहार में भी अनेक गणतंत्र थे। इन गणराज्यों में राष्ट्रीय भावना बहुत प्रबल हुआ करती थी और किसी भी राजतंत्रीय राज्य से युद्घ होने पर, ये मिलकर संयुक्त रूप से उसका सामना करते थे। कभी- कभी इनमें आपस में भी संघर्ष होता था।

महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। उसके अनुसार गणराज्य में एक जनसभा होती थी, जिसमें सभी सदस्यों को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। गणराज्य के अध्यक्ष पद पर जनता ही किसी नागरिक का निर्वाचन करती थी। कभी-कभी निर्णयों को गुप्त रखने के लिए मंत्रणा को, केवल मंत्रिपरिषद तक ही सीमित रखा जाता था। शांति पर्व में गणतंत्र की कुछ त्रुटियों की ओर भी इंगित किया गया है। जैसे यह कि गणतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी बात कहता है और उसी को सही मानता है। इससे पारस्परिक विवाद में वृद्घि होती है और समय से पहले ही बात के फूट जाने की आशंका रहती है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया।

बौद्घ साहित्य में एक घटना का उल्लेख है। इसके अनुसार महात्मा बुद्घ से एक बार पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के क्या कारण हैं? इस पर बुद्घ ने सात कारण बतलाए (1) जल्दी- जल्दी सभाएं करना और उनमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग लेना (2) राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना (3) कानूनों का पालन करना तथा समाज विरोधी कानूनों का निर्माण न करना (4) वृद्घ व्यक्तियों के विचारों का सम्मान करना (5) महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना (6) स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना तथा (7) अपने कर्तव्य का पालन करना।

राजा का शाब्दिक अर्थ (जनता का) रंजन करने वाले या सुख पहुंचाने वाले से है। हमारे यहां राजा की शक्तियां सदैव सीमित हुआ करती थीं।

गणराज्य में तो अंतिम शक्ति स्पष्ट रूप से जनसभा या स्वयं जनता के पास होती थी, लेकिन राजतंत्र में भी निरंकुश राजा को स्वीकार नहीं किया जाता था। जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था, जिसके दंड से स्वयं राजा या राजवंश भी नहीं बच सकता था। राजा सागर ने अत्याचार के आरोप में अपने पुत्र को निष्कासित कर दिया। जनमत की अवहेलना करने पर ही राजा वेण का वध कर दिया गया और राम को भी सीता का परित्याग करना पड़ा।
महाभारत के अनुशासन पर्व में स्पष्ट कहा गया कि जो राजा जनता की रक्षा करने का अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं करता, वह पागल कुत्ते की तरह मार देने योग्य है। राजा का कर्त्तव्य अपनी जनता को सुख पहुंचाना है।

बाद में एक लंबे अंतराल के बाद आज हमने जो यह नई गणतंत्रीय व्यवस्था प्राप्त की है, वह मूलत: हमारे लिए अपरिचित नहीं है, आवश्यकता बस उस पुरानी स्मृति को फिर से जगाने की है।

0 comments: