वादे और हकीकत
इसी हफ्ते प्रधानमंत्री जी ने देश के शीर्ष उद्योगपतियों और बैंकरों की एक मीटिंग बुलाई थी। मंच कुछ ऐसा सजा था मानों बहुत गंभीर वातावरण है। गांभीर्य कुछ इतना गुरु था कि उससे नाटकीयता का गुमान हो रहा था। लेकिन नाटक और अर्थ शास्त्र दोनों अलग अलग होते हैं और स्वभावत: प्रतिगामी होते हैं। नाटक में दिखावा, बनावट कुछ ऐसे होते हैं कि उनसे स्वाभाविकता का बोध होता है। जबकि अर्थ शास्त्र अपनी तासीर में हकीकी फितरत का होता है। हां तो प्रधानमंत्री जी ने मंगलवार को जो बैठक बलाई उसमें उन्होंने अपना तयशुदा भाषण दिया , जो लोकसभा चुनाव वाले हृदयहारी और सम्मोहक भाषण की तरह था। जवाब में भारत के शीर्ष उद्योगपतियों ने भी अच्छी- अच्छी बातें कहीं। वातावरण बेहद खुशगवार था और चेहरे खिले हुये थे , ऐसा महसूस हो रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था एकदम चुस्त और खुशहाल है। थोड़ा- बहुत यहां- वहां झोल- झाल है उसे सुधार लिया जायेगा। सबलोग आत्ममुग्ध और आत्मतुष्ट थे। अब यह कैसे बताया जाय कि आत्मतुष्टता अर्थव्यवस्था का दुश्मन होती है। क्योंकि इसके चलते कठोर फैसले नहीं लिये जा सकते। नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने तिलिस्मी भाषण में देश की जनता को यह विश्वास दिलाया था कि वे देश की अर्थव्यवस्था की बुनावट और बनावट को सही कर देंगे। उन्होंने कई सुनहरे वादे किये थे। लेकिन सत्ता में आने के 15 महीनों के भीतर सारे वादे सत्ता की ताप से भाप बन कर उड़ गये। जितना कहा था कुछ नहीं हुआ। अब श्री नरेंद्र मोदी उद्योगपतियों और बड़े व्यवसाइयों के ‘दुलरुआ’ नहीं रहे। शायद इसी ‘पहली सी मुहब्बत’ के लिए इस बैठक का आयोजन किया गया था। अर्थ व्यवस्था की सूरत को संवारने के लिए बेहद कठोर फैसले करने होते हैं। इन्हीं कठोर फैसलों में से एक है सब्सिडी को घटाया जाना। देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरआत से उद्योगपति इसका सुझाव दे रहे हैं। सब्सिडी से मौद्रिक घाटा बढ़ता है और उससे महंगाई को हवा लगती है। जबसे मोदी जी सत्ता में आये तब से उन्होंने इस दिशा में नग्ण्य कार्य किया है। अब ऐसी स्थिति में अगर वे कहते हैं कि सब्सिडी घटाई गयी है तो यह आत्म प्रवंचना ही होगी। जो कुछ घटा है वह तेल की दर में वैश्विक गिरावट के फलस्वरूप हुआ है। दूसरे क्षेत्र में सब्सिडी न घटायी गयी है और ना खत्म की गयी है। सब्सिडी राज अभी भी कायम है। दूसरे सुधार लागू नहीं किये जा सके क्योंकि संसद चल ही नहीं पायी। संसद के नहीं चल पाने का कारण था एक मंत्री द्वारा पद के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के मामले में प्रधानमंत्री द्वारा कार्रवाई नहीं की जाने के कारण पैदा हुए हालात। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी की दुंदुभी अब तूती की हास्यास्पद आवाज में बदल गयी है। मोदी जी से अपेक्षा यह थी कि उनकी सरकार चाल , चरित्र और उम्मीदों को पूरा किये जाने के मामले में पूर्ववर्ती यू पी ए सरकार से बेहतर होगी। लेकिन मोदी जी की सरकार यू पी ए सरकार का तीसरा अवतार है और इस अवतार की खूबी है कि यह बोलने में औऱ शब्दों के चयन में उससे बेहतर है। अब उद्योगपतियों के साथ विचार विमर्श के दौरान मोदी ने अपने चिर- परिचित अंदाज में उनसे कहा कि जोखम उठाने की अपनी क्षमता का विकास करें और निवेश को बढ़ाएं। अब देखिये कि मोदी जी ने यह कहीं नहीं कहा कि निवेश को बढ़ाने के क्रम में आने वाली बाधाओं को दूर करने का वह आश्वासन देते हैं। अगर कोई उद्योगपति पूंजी लगाने का जोखिम उठाता है तो यकीनन वह उम्मीद करेगा कि सर्विस टैक्स में छूट मिले, ढांचे की सुविधाएं हासिल हों, लाइसेंस वगैरह की सहूलियत हो , परंतु प्रधानमंत्री जी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा। मोदी हैरत जाहिर करते हैं कि एक तरफ विदेशी निवेश बढ़ रहा है तो दूसरी ओर भारतीय उद्योग जगत पूंजी निवेश में अनमना सा लग रहा है। इस स्थिति से ऐसा लगता है कि भारतीय उद्योग जगत और मोदीजी के बीच कहीं ना कहीं संवाद हीनता की स्थिति है। दर असल मोदी जी को छोटे तथा मझोले उद्योगों से बात करनी चाहिये क्योंकि वे ही ज्यादातर निर्यातक और रोजगार परक हैं। परंतु वे ऐसा नहीं कर रहे हैं, इससे उनकी मंशा पर संदेह का होना लाजिमी है।
इसी हफ्ते प्रधानमंत्री जी ने देश के शीर्ष उद्योगपतियों और बैंकरों की एक मीटिंग बुलाई थी। मंच कुछ ऐसा सजा था मानों बहुत गंभीर वातावरण है। गांभीर्य कुछ इतना गुरु था कि उससे नाटकीयता का गुमान हो रहा था। लेकिन नाटक और अर्थ शास्त्र दोनों अलग अलग होते हैं और स्वभावत: प्रतिगामी होते हैं। नाटक में दिखावा, बनावट कुछ ऐसे होते हैं कि उनसे स्वाभाविकता का बोध होता है। जबकि अर्थ शास्त्र अपनी तासीर में हकीकी फितरत का होता है। हां तो प्रधानमंत्री जी ने मंगलवार को जो बैठक बलाई उसमें उन्होंने अपना तयशुदा भाषण दिया , जो लोकसभा चुनाव वाले हृदयहारी और सम्मोहक भाषण की तरह था। जवाब में भारत के शीर्ष उद्योगपतियों ने भी अच्छी- अच्छी बातें कहीं। वातावरण बेहद खुशगवार था और चेहरे खिले हुये थे , ऐसा महसूस हो रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था एकदम चुस्त और खुशहाल है। थोड़ा- बहुत यहां- वहां झोल- झाल है उसे सुधार लिया जायेगा। सबलोग आत्ममुग्ध और आत्मतुष्ट थे। अब यह कैसे बताया जाय कि आत्मतुष्टता अर्थव्यवस्था का दुश्मन होती है। क्योंकि इसके चलते कठोर फैसले नहीं लिये जा सकते। नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने तिलिस्मी भाषण में देश की जनता को यह विश्वास दिलाया था कि वे देश की अर्थव्यवस्था की बुनावट और बनावट को सही कर देंगे। उन्होंने कई सुनहरे वादे किये थे। लेकिन सत्ता में आने के 15 महीनों के भीतर सारे वादे सत्ता की ताप से भाप बन कर उड़ गये। जितना कहा था कुछ नहीं हुआ। अब श्री नरेंद्र मोदी उद्योगपतियों और बड़े व्यवसाइयों के ‘दुलरुआ’ नहीं रहे। शायद इसी ‘पहली सी मुहब्बत’ के लिए इस बैठक का आयोजन किया गया था। अर्थ व्यवस्था की सूरत को संवारने के लिए बेहद कठोर फैसले करने होते हैं। इन्हीं कठोर फैसलों में से एक है सब्सिडी को घटाया जाना। देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरआत से उद्योगपति इसका सुझाव दे रहे हैं। सब्सिडी से मौद्रिक घाटा बढ़ता है और उससे महंगाई को हवा लगती है। जबसे मोदी जी सत्ता में आये तब से उन्होंने इस दिशा में नग्ण्य कार्य किया है। अब ऐसी स्थिति में अगर वे कहते हैं कि सब्सिडी घटाई गयी है तो यह आत्म प्रवंचना ही होगी। जो कुछ घटा है वह तेल की दर में वैश्विक गिरावट के फलस्वरूप हुआ है। दूसरे क्षेत्र में सब्सिडी न घटायी गयी है और ना खत्म की गयी है। सब्सिडी राज अभी भी कायम है। दूसरे सुधार लागू नहीं किये जा सके क्योंकि संसद चल ही नहीं पायी। संसद के नहीं चल पाने का कारण था एक मंत्री द्वारा पद के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के मामले में प्रधानमंत्री द्वारा कार्रवाई नहीं की जाने के कारण पैदा हुए हालात। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी की दुंदुभी अब तूती की हास्यास्पद आवाज में बदल गयी है। मोदी जी से अपेक्षा यह थी कि उनकी सरकार चाल , चरित्र और उम्मीदों को पूरा किये जाने के मामले में पूर्ववर्ती यू पी ए सरकार से बेहतर होगी। लेकिन मोदी जी की सरकार यू पी ए सरकार का तीसरा अवतार है और इस अवतार की खूबी है कि यह बोलने में औऱ शब्दों के चयन में उससे बेहतर है। अब उद्योगपतियों के साथ विचार विमर्श के दौरान मोदी ने अपने चिर- परिचित अंदाज में उनसे कहा कि जोखम उठाने की अपनी क्षमता का विकास करें और निवेश को बढ़ाएं। अब देखिये कि मोदी जी ने यह कहीं नहीं कहा कि निवेश को बढ़ाने के क्रम में आने वाली बाधाओं को दूर करने का वह आश्वासन देते हैं। अगर कोई उद्योगपति पूंजी लगाने का जोखिम उठाता है तो यकीनन वह उम्मीद करेगा कि सर्विस टैक्स में छूट मिले, ढांचे की सुविधाएं हासिल हों, लाइसेंस वगैरह की सहूलियत हो , परंतु प्रधानमंत्री जी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा। मोदी हैरत जाहिर करते हैं कि एक तरफ विदेशी निवेश बढ़ रहा है तो दूसरी ओर भारतीय उद्योग जगत पूंजी निवेश में अनमना सा लग रहा है। इस स्थिति से ऐसा लगता है कि भारतीय उद्योग जगत और मोदीजी के बीच कहीं ना कहीं संवाद हीनता की स्थिति है। दर असल मोदी जी को छोटे तथा मझोले उद्योगों से बात करनी चाहिये क्योंकि वे ही ज्यादातर निर्यातक और रोजगार परक हैं। परंतु वे ऐसा नहीं कर रहे हैं, इससे उनकी मंशा पर संदेह का होना लाजिमी है।
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