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Saturday, September 19, 2015

सामाजिक बदलाव के दौर से मिलते खतरनाक संकेत


देश में इस समय एक व्यापक सामाजिक बदलाव का दौर चल रहा है। दिल्ली में फैली डेंगू की महामारी , कोलकाता और अन्य शहरों में उसका आतंक यह बताता है कि बदलाव के इस दौर की भयावहता कैसी होगी। आबादी के ताजा आंकड़ों से साफ है कि देश के ग्रामीण क्षेत्र की आबादी का प्रतिशत 68.84 रहा, जबकि नगरीय आबादी का प्रतिशत बढ़कर 31.16 हो गया है। नगरीय आबादी का हिस्सा पिछले एक दशक में 27.81 प्रतिशत से बढ़कर 31.16 प्रतिशत तक पहुंच गया है, वहीं ग्रामीण आबादी का प्रतिशत 72.19 से घटकर 68.84 प्रतिशत रह गया है। पिछले एक दशक में रोजगार के अवसरों की तलाश में गांवों से शहरों की ओर लोगों के पलायन करने की रफ्तार तेज हुई है। यहां इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश के 58.4 प्रतिशत से भी अधिक लोगों की आजीविका का मुख्य साधन आज भी खेती ही है। सकल घरेलू उत्पाद में भी कृषि का योगदान पांचवें हिस्से के बराबर है। साथ ही खेती कुल निर्यात का 10 प्रतिशत हिस्सा होने के साथ-साथ अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराती है। खेती से जुड़े अनेक विरोधाभासी आंकड़े भी गवाह हैं कि गांवों में खेती अब घाटे का धंधा रह गई है। देश के 40 प्रतिशत किसानों ने तो खेती करना छोड़ ही दिया है। पिछले दिनों फेडरेशन ऑफ इंडियन फार्मर्स आर्गनाइजेशन (फिफो) की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि विभिन्न प्रकार के भूमि अधिग्रहणों के कारण देश में अब तक 12 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि कम हो चुकी है। मुआवजे के नाम पर किसानों को छोटी-मोटी रकम देकर शांत कर दिया जाता है। इस सच से तो इनकार किया ही नहीं जा सकता कि पिछले दशकों में गांवों में जीवनयापन मुश्किल हुआ है। 1991 के बाद वैश्वीकरण की तीव्रता ने विगत दशकों में जिस प्रकार शहरों की चकाचौंध को बढ़ाया है उससे लगता है कि शायद इनका भौतिक विकास ही राष्ट्रीय विकास का आधार बन गया है। निश्चित ही शहरों के रूपांतरण, लंबे-लंबे राजमार्ग, एक्सप्रेस-वे और मॉल जैसे भौतिक ढांचे के निर्माण ने लोगों को सुखवादी संस्कृति का अहसास कराया है। दूसरी ओर, देश में शहरीकरण से जुड़े जो नए शोध आ रहे हैं वे सभी भारत के शहरीकरण का भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्रीय विकास की नियंत्रण संकल्पना बताती है कि देश साफ तौर पर भारत और इंडिया में विभाजित हो रहा है। ठीक उसी प्रकार देश के नगरीय विकास के नए व स्मार्ट सिटी के मॉडल से शहर भी स्पष्ट रूप में दो भागों में बंटते जा रहे हैं। शहरों का एक भाग आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं से लैस होता जा रहा है, जबकि दूसरा हिस्सा झुग्गी-झोपड़ियों में बदल रहा है। भारत के शहरीकरण की ओर तेजी से बढ़ते कदमों को देखते हुए ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दो दशकों में लगभग आधी आबादी शहरों में निवास करेगी। परिणामत: नगरों में शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार से जुड़ीं अनेक समस्याओं का सामना भी उसी अनुपात में करना होगा। सरकारें जिस प्रकार एक्सप्रेस-वे, हाईवे व महानगरीय विस्तार के लिए बिल्डर्स को बढ़ावा दे रही हैं उसमें परोक्ष रूप से ही सही यह किसानों को खेती छोड़ने का स्पष्ट संकेत ही है। बारहवी पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में भी 2017 तक लगभग एक करोड़ से भी अधिक लोगों को खेती-किसानी से अलग करके उन्हें दूसरे अन्य काम-धंधों की ओर उन्मुख करना परिलक्षित होता है। भविष्य में खेती से जुड़े जो लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं उनसे लगता है कि बढ़ती आबादी में लोगों की बुनियादी जरूरत पूरी करने के लिए खेती की उत्पादकता बढ़ाना मजबूरी होगी। इसलिए खेती में हाईब्रिड बीज व तीव्र यंत्रीकरण करने से कृषि कार्य और कृषि मजदूरी करने के अवसर स्वत: ही कम हो जाएंगे। इन हालात में खेतिहर मजदूर व छोटे किसानों का शहर की ओर पलायन मजबूरी बन जाएगा। इतिहास साक्षी है कि अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक व आध्यात्मिक सत्ता को चुनौती देने के लिए ही शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज किया था। निश्चय ही उससे सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन भी हुआ। परंतु उनकी इस चतुराई से विकास नगरों तक ही सीमित होकर रह गया। उनकी षड्यंत्रकारी रणनीति के कारण गांवों व शहरों के बीच विषमताओं की खाई और चौड़ी होती गई। सड़कों का निर्माण, यातायात के साधनों की विभिन्नता, विदेशी शिक्षा के विस्तार इत्यादि के प्रभाव ने नगरों की तो कायापलट कर दी, परंतु गांव लगातार पिछड़ते गए। यही कारण रहा कि गांव गंदगी और पिछड़ेपन तथा नगर सभ्यता और प्रगतिशीलता के प्रतीक बन गए। गांवों का समाजशास्त्र बताता है कि गांव आत्मनिर्भरता, सामूहिकता, एकता, दुख-दर्द के साझेदार व पारिवारिक संयुक्तता के प्रतीक हैं। दूसरी ओर नगर मात्र व्यक्ति के निजी हित व सुखों के चारों ओर घूमने वाले पत्थरों के मकान हैं, जहां व्यक्ति के सामने उसका विशुद्ध अकेलापन, तकलीफें, पहचान गुम होती जा रही है। इस संदर्भ में अगर सोचें तो भारत के गांव आज भी एक संभावना हैं। संपूर्ण यूरोप आज भौतिक विकास के उच्च शिखर पर पहुंचने के बाद ग्रामीण संस्कृति में वापस लौटने को तड़प रहा है। हम हैं कि अपना संपूर्ण सुख नगरों में खोजने को लालायित है। गांवों से जुड़ी आबादी के ताजा आंकड़ों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत के मूल विकास की संकल्पना को खोजने के लिए गांवों की ओर लौटने की जरूरत है। धार्मिक जनगणना और उस पर विमर्श विखंड़ित राजनीति का पर्याय है। ऐसे में हमें तय करना है कि विमर्श राजनीति के विखंडन पर हो या देश के विकास पर और उसके समाजशास्त्र पर।

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