आज हिन्दी दिवस है। इस अवसर पर जरा कल्पना करें एक चुटकुले की, जिसमें कहा जाय कि 'अड़सठ साल से एक आजाद देश जिसकी कथित तौर पर राष्ट्रभाषा हिन्दी है, उस देश में बड़ा अफसर बनने के लिए सबसे बड़ी योग्यता अंग्रेजी ज्ञान है।’ यह हिंदी दिवस सरकारी तौर पर हिंदी को राजभाषा (राष्ट्रभाषा नहीं) के रूप में स्वीकार करने की सांविधानिक तिथि है। अक्सर यह पूछा जाता है कि हिंदी अगर राजभाषा है तो राष्ट्रभाषा क्या है ?
यह प्रश्न मूलभूत रूप में दार्शनिक है पर उस पर सियासत का पानी चढ़ा हुआ है। अतएव इसके आनुषंगिक विश्लेषण से पूर्व इसके छोटे से समन्वित सांस्कृतिक,ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर गौर करें। कैसी हास्यास्पद स्थिति है, आप सोच सकते हैं। जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना पूरा होगा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो जाएगा, उस दिन देश सम्पूर्ण तौर पर केवल 'इंडिया’ रह जाएगा। हो सकता है, समय ज्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक स्वाधीन राष्ट्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी टक्कर का होना निश्चित है। अब आप सवाल पूछ सकते हैं कि इस सपने का निहितार्थ क्या है? इसकी चर्चा क्यों? यह एक संस्कृति का स्वप्न है। इस स्वप्न का निर्धारण बहुत हद तक उसकी स्मृतियां करती हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि किसी शब्द में यदि संस्कृति का संकेत है तो स्मृति में उसकी छाया भी। इसलिये कोई भी भाषा, जब तक वह है, कभी मरती नहीं है। यदि हमारे अतीत का सब कुछ मर- मिट जाय तब भी भाषा बची रहती है। जिसके द्वारा एक समाज के सदस्य आपस में संवाद कर पाते हैं। वर्तमान में रहते हुए भी अवचेतन रूप में वे अतीत से जुड़े रहते हैं। इस अर्थ में भाषा का दोहरा चरित्र होता है। वह सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ- साथ संस्कृति का वाहक भी होती है।
भारत के संदर्भ में इस सत्य को केवल दो दार्शनिक - भाषाविदों ने समझा, वे थे हीगल और मैक्समूलर। हीगल ने जहां एक तरफ भारतीय सभ्यता के स्वर्ण युग को दबे खंडहर की संज्ञा देकर वर्तमान को खारिज कर दिया था, वहीं मैक्समूलर ने भारत को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने वाली भाषा संस्कृत को समाप्त करने की साजिश की। मैक्समूलर की कोशिशें कारगर हो जातीं लेकिन 19वीं सदी के ही आखिरी दौर में लुप्त होती सांस्कृतिक अस्मिता ने राष्ट्रीय चेतना को प्रस्फुटित कर दिया। उन्होंने संस्कृत से उद्भूत हिंदी को संवाद का माध्यम के रूप में गढ़ दिया और हिंदुस्तान को जागृत कर दिया। संस्कृत के भीतर जातीय स्मृतियों की एक ऐसी विपुल सम्पदा सुरक्षित थी, जो एक संजीवनी शक्ति की धारा की तरह अतीत से बहकर वर्तमान की चेतना को आप्लावित करती थी। राष्ट्रीयता के बीज इसी चेतना में निहित थे। मैकॉले ने भी इसकी चेतावनी दी थी। जिस वैचारिक स्वराज की बात के सी भट्टाचार्य ने उठायी थी, उसका गहरा सम्बंध एक जाति की भाषाई अस्मिता से था। जिसे हम संस्कृति का सत्य कहते हैं, वह कुछ नहीं, शब्दों में अंतर्निहित अर्थों की संयोजित व्यवस्था है। जिसे हम यथार्थ कहते हैं, वह इन्हीं अर्थों की खिड़की, देखा गया बाह्य जगत है। भाषा के सवाल को लेकर मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेजी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नद्रष्टा थे स्वाधीनता के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं है, जहां विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हजारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है। अंग्रेजी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी प्रदेशों में है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन हैं। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढंक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं। राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए गये हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण फूटती दिखायी नहीं पड़ती।
इतने के बावजूद भारतीय अंग्रेजी का कद्र क्या है। प्रेमचंद और तुलसी को छोड़िये हिन्दी के दूसरे दर्जे के लेखकों की श्रेणी में भारतीय अंग्रेजी लेखकों को खड़ा कर सकते हैं तो नाम गिनाएं। कैसी विडम्बना है कि बचपन से 6 वर्षों तक ‘सी ए टी कैट’ और ‘आर ए टी रैट रटता’ हुआ बच्चा अपने जीवन के 26-27 साल अंग्रेजी के ग्रामर, स्पेलिंग और प्रोननसिएशन सीखने में लगा देता है और तब भी अशुद्ध उच्चारण और शब्द प्रयोग करता है। भारत के जितने अंग्रेजीदां हैं उनमें से एक प्रतिशत भी ऐसे नहीं हैं जो उसी भाषा में सोचते हों और सीना ठोंक कर कह सकें कि वे उसी स्तर की अंग्रेजी जानते हैं जिस स्तर की हिन्दी एक अच्छी हिन्दी पढ़ा भारतीय जानता है। भारतीय राष्ट्रीय चेतना यदि आरंभ से ही आत्मकेंद्रित संकीर्णता से मुक्त रही तो इसका कारण यह था कि वह आरोपित नहीं की गयी थी। इसके संस्कार पहले से ही सांस्कृतिक परम्परा में मौजूद थे। भारत की विभिन्न बोलियों और भाषाओं में भिन्नता होने के बावजूद एकसूत्रता के तत्व मौजूद थे, जिसके रहते भारत के राष्ट्रीय एकीकरण में कभी भी बाधा नहीं उपस्थित हुई। उनका घर एक ही था, खिड़कियां कई थीं। हिंदी में इन खिड़कियों के अंतर्संबंधों को परखने तथा कायम रखने की क्षमता है। इसीलिये हिंदी हिंदुस्तान की अस्मिता है। हिंदी है तो हिंदुस्तान रहेगा। इसके बगैर एक विखंडित संस्कृति के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
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