मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो
मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ।
बिहार सदा से क्रांति प्रदेश रहा है। वह क्रांति चाहे बोध गया से शुरू हुई हो या नालंदा से या चंपारण से या गांधी मैदान से। दूर इतिहास में देखने की जरूरत नहीं है, नजदीकी तवारिखों के गलियारों में झांक कर देखेंगे तो अंग्रजों के खिलाफ निलहे आंदोलन की गूंज अभी भी चम्पारण की गलियों में कायम है। इस गूंज ने दिल्ली की हुकूमत को थरथरा दिया था और उसी ज्योति ने भारत में अंग्रेजी शासन के खिलाफ एक नवीन क्रांति को जन्म दिया। यही नहीं 70 के दशक में दिनकर की इन पंक्तियों ने क्रांति की पहली तीली जलाई
समर शेष है नही पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
और वहां की सड़कों पर गूंज उठा ,
क्योंकि एक बहत्तर बरस का
बूढ़ा अपनी कांपती कमजोर
आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल
पड़ा है..............
वो मंजर आज 40 साल पुराना हो चुका है। पर, यादें उस समय के लोगों के जहन में आज भी बसी हैं। जीवंत वो गाथा, भारत के इतिहास में, आजादी के बाद, अमर हो चुकी है। इमरजेंसी- यही वह 1975 का वक्त था जब इस शब्द को परिभाषित होते लोगों ने देखा। शायद कहीं न कहीं इंदिरा गांधी को इस घटना के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। इमरजेंसी इंदिरा गांधी की पहचान बन गयी। सत्ता दिल्ली की हो या बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश अथवा कर्नाटक की हिलती है फिर परिवर्तित होती है। सत्ताधारी जब निश्चिंत हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अब उनकी मुखालफत करने वाला कोई नहीं तो मंगल पांडे का जन्म कहीं न कहीं हो ही जाता है। बिहार की मिट्टी में एक क्रांति करने की पहल समायी हुई है। इसीलिए अन्ना हजारे हों या प्रधानमंत्री मोदी सभी ने अलख यहीं से जगायी। अब जब बिहार में चुनाव सिर पर मंडरा रहे हैं तो, हर बड़ी पार्टी इस मिट्टी पर अपना भाग्य आजमाना चाहती है। इस बार क्रांति की लहर ऐतिहासिक होने जा रही है। ओवैसी जो हैदराबाद से एमपी हैं और एआई एम आई एम के कर्ताधर्ता, बिहार में भाग्य आजमाना चाह रहे हैं। उधर, अपने राज्य से बिहारियों पर अंग्रेजों की मानिंद जुल्म करने वाली महाराष्ट्र की शिवसेना अपनी ऊंचाई मापना चाहती है। मुलायम अपने समधियाने में अकेले ही सबकुछ समेटने पर आमादा हैं। ये सभी पार्टियां चुनावी दंगल में बिहार की धरती पर अपना परचम लहराने को बेताब हैं। इस बार बिहार चुनाव की खासियत है पार्टी के कुछ नेताओं का अचानक बागी हो जाना। पिछले कई साल से पार्टी के सिद्धांतों को सबसे ज्यादा समझने का दावा करने वाले टिकट नहीं मिलने पर अचानक सुर बदल लेते हैं। चंद मिनटों में पार्टी बदल जाती है और वफादारी भी। बिहार में भी इस बार पार्टियों की सबसे बड़ी चिंता अपने बागियों को काबू में रखना है। चाहे महागठबंधन हो या फिर एनडीए, हर जगह बागी ताल ठोंककर खड़े हैं। अपनी जीत का दावा हो या न हो, लेकिन बागी कल तक जिस पार्टी में थे उसे हराने की गारंटी देते दिखते हैं। लेकिन क्या बागी वाकई इतनी ताकत रखते हैं कि वे किसी भी दल के समीकरण को बना-बिगाड़ सकते हैं? इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी है, लेकिन बगावत जारी है। चुनाव सर पर है और लोकतंत्र सबको अपनी बात कहने का मौका देता है। अब पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो चुनाव नहीं लड़ सकते, ऐसा थोड़े ही है। सो जहां से मिलेगा टिकट, वहां से लड़ेंगे बागी, और अगर नहीं मिला तो फिर आजाद उम्मीदवार बनकर अपनी बात रखेंगे। राजनीति में दाग अच्छे हैं। अच्छे, इसलिए कि 2010 के विधानसभा चुनाव में एडीआर (एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स) की रिपोर्ट में जिन 141 विधायकों पर आपराधिक मामले थे उनमें अधिकांश चेहरों पर पार्टियों ने इस बार भी भरोसा जताया है। इनमें से 38 जदयू से, 47 भाजपा से, 6 राजद से, 1 लोजपा से, 3 हम से, 3 कांग्रेस से और 1 निर्दलीय फिर मैदान में हैं। सूची में शामिल तीन नाम दिवंगत हो चुके हैं। इन दागी विधायकों में 46 पर तो हत्या, अपहरण, हत्या का प्रयास, रंगदारी जैसे संगीन मामले के आरोप थे। पांच साल की अवधि में इनमें कई चेहरे अदालत से बेदाग भी हुए होंगे। इस बार 29 बेटिकट भी हुए हैं। दागी माने गए चेहरों में पांच सांसद चुन लिए गए हैं, चार भाजपा से और एक जदयू से। इस जमात में पाला बदलने वालों की संख्या भी काफी है। दो विधायक भाजपा छोड़ जदयू के पाले में आए हैं और चुनाव भी लड़ रहे। ज्यादा आमद भाजपा और उसके सहयोगी दलों को हुई है। सम्राट चौधरी, राणा गंगेश्वर सिंह, अवनीश सिंह, सोनेलाल हेम्ब्रम, जाकिर हुसैन जैसे कुछ नाम इस बार अब तक मैदान में नहीं हैं। सम्राट, परबत्ता से राजद विधायक थे। बागी बने। जदयू से एमएलसी बने, मंत्री बने। यहां भी बगावत कर दी। गिनती हम के साथ होती है। राणा गंगेश्वर सिंह मोहिउद्दीननगर से भाजपा विधायक थे। पार्टी छोड़ जदयू में आ गए। फिलहाल एमएलसी हैं। अवनीश सिंह ने भाजपा छोड़ दिया। मोतिहारी से जदयू के टिकट पर एमपी का चुनाव लड़े, हार गए। बिहार में जातिगत वोटों की परंपरा आज भी विद्यमान है। कुर्मी, यादव और भूमिहार बाकी जातियों के अलावा इनकी पैठ मानी जाती है। केंद्र की सत्ता ने एक बार फिर परिस्थिति अपने हाथ में होने का आभास कराया है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में 4 में से 4 सीटें एबीवीपी ने जीती हैं जिससे हौसला बुलंद है। पर, बिहार क्या लोकसभा की कहानी दोहराने की हिम्मत दिखा पायेगा।
खरगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख्वाब,
फिरता है चांदनी में कोई सच डरा-डरा
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