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Wednesday, September 30, 2015


29 सितम्बर
आज हिंदी पखवाड़ा खत्म हो जायेगा। इस दौरान हिंदी की सियासत करने वाले और हिंदी को बाजार में बेच कर मलाई उड़ाने वाले लोगों ने बहुतों को चायपानी पिलाया। अंग्रेजी शैली में ‘हिंडी’ बोलने वाले और ‘हिंडलिश’ में जीवन का लुत्फ उठाने वालों की इसबीच चांदी रही। इस पर्व को पन्द्रह दिनों तक मनाने के लिए सरकार प्रचुर धनराशि खर्च करती है। इसलिए पैसे की स्वीकृति पूर्व में ही करा ली जाती है। फिर क्या हर कार्यालय के प्रमुख ,हिंदी अधिकारी व कर्मचारी कार्यों से विरत हो नित एक नया कार्यक्रम आयोजित करते हैं और स्मृतिचिन्ह ,पुरस्कार व जलपान में पैसे समायोजित करते हुए हिंदी को भरपूर उपकृत करते हैं। स्वाधीन भारत में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने एवं इसके प्रचार प्रसार के लिए दशकों से हर वर्ष यह सरकारी पर्व मनाया जा रहा है परन्तु हिंदी देश की राजनीतिक देहरी पर, अपने हक के लिए, सात दशकों से खड़ी है। हमारे नेता इसे राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की बात करते हैं परन्तु राष्ट्र भाषा बनाने की चर्चा से कन्नी काट जाते हैं। जनहित की सोचने वाले जनहित का मरम जानने में विफल हैं। अब वे तर्क बेमानी लगते हैं कि हिंदी में तकनीकी शब्दावली क़ी कमी है या विज्ञान, अभियांत्रिकी ,अंतरिक्ष ,कानून जैसे विषय हिंदी में ब्यक्त नहीं हो पाते। भाषाओं की दूरियां मिट रही हैं। अंग्रेजी का ऑक्सफोर्ड शब्दकोष हर संस्करण में हिंदी के अनेक शब्द आत्मसात कर रहा है। वैसे ही हिंदी में अन्य भाषाओं के अनेकानेक शब्द घुल- मिल रहे हैं। यहां जो सबसे बड़ी गड़बड़ी है वह है हिंदी की सियासत करने वालों के स्वार्थ। अगर आप बारीकी से देखें तो हिंदी जहां खुद को तेज कंपटीटिव और नए संचार के लिए नाकाफी पाती है, वहां अंग्रेजी भी असली यथार्थ के संचार में अपने को कमजोर पाती है। लेकिन दोनों में फर्क यह है कि अंग्रेजी में हिंदी के आने को अंग्रेजी वाले अपने लिए विवाद का विषय नहीं बनाते, जबकि हिंदी के विद्वान अब भी अंग्रेजी के शब्दों के आने पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। अंग्रेजी की ताकत यह है कि मिलावट से परेशान नहीं होती, जबकि हिंदी वाले इस तरह की मिलावट से अब तक परेशान दिखते हैं। लगता है कि कभी-कभी अंग्रेजी का ऊंट पहाड़ के नीचे भी आने को मजबूर होता है। जिस अंग्रेजी का इतना बोलबाला है और जहां अंग्रेजी में गिटपिट करने वाले भी ‘‘चिंतक’ होने का गुमान पालते हैं और देश को दिशा देने का वहम पालते हैं, वे जब अपने को ‘‘तर्क में फंसा’ महसूस करते हैं तो अचानक हिंदी में बोलने लगते हैं, बात करने लगते हैं। कथित विद्वतजनों द्वारा अपनी भाषा (अंग्रेजी) छोड़ दूसरी ताकत की भाषा (हिंदी) में स्विच ओवर करने का मतलब ही यही है कि वह नए ताकत समूह में शामिल होना चाहता है। लेकिन इससे यह भी सिद्ध होता है कि अरसे से अंग्रेजी और हिंदी के बीच जो तेज लेन-देन चल रहा था, जो उदारीकरण के दौर में बने और बढ़े माध्यमों से हो रहा था वह अब इकतरफा नहीं रह पा रहा। पहले हिंदी वाले अंग्रेजी का छौंक लगाते थे, अब अंग्रेजी वाले हिंदी का तड़का लगाते हैं। हिंदी को श्रेष्ठता की धार देने वाले निःस्वार्थ साधक रहे हैं जिन्होंने हिंदी की सेवा स्वान्तःसुखाय की है या कर रहे हैं। यह वही परम्परा है जिसका श्रीगणेश गोस्वामी तुलसीदास ने यह कह कर किया कि

भाषाबद्ध करब हम सोई ,

मोरे मन भरोस जेहि होई।

कीरति ,भनति ,भूति भल सोई,

सुरसरि सम सबकर हित होई।

अतः हिंदी के निःस्वार्थ सेवक कामिल बुल्के सरीखे विदेशी विद्वान भूरि -भूरि प्रशस्ति के पात्र हैं।

आपने गौर किया होगा कि इन दिनों अंग्रेजी लेखक हिंदी में अनूदित होकर आने लगे हैं और हिंदी के अपने कालमकार कम होने लगे हैं। हिंदी के कालम तो अंग्रेजी में नहीं गए, अंग्रेजी के हिंदी में घुस आये हैं। यह हिंदी मीडिया की एक नई समस्या है जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया है। दरअसल यह अंग्रेजी का दंभ चूर होने की प्रक्रिया है। अगर समाज में तेज बदलाव की आकांक्षाए हैं और अंदरूनी संक्रमण है तो कोई भी कम ताकतवर भाषा अपने से ज्यादा ताकतवर भाषा से दोस्ती करेगी ही ताकि वह उसके हमले को रोक सके। चाहे इस चक्कर में वह कुछ भ्रष्ट हो जाए। भ्रष्ट होना खत्म होने की अपेक्षा बेहतर है क्योंकि भाषा का स्वभाव ही भ्रष्ट होते रहना है, मिलावट वाली होते रहना है। अंग्रेजी इसी बात का उदाहरण है और इस बात का भी कि वह प्लान करके दूसरी भाषा के शब्दों को हर साल अपने शब्दकोश में जगह देती है। अंग्रेजी इस तरह बदलने की नीति पर दृढ़ रहती है और अधिक व्यापक होती जाती है। हिंदी भी बदले और योजनाबद्ध रूप में बदले और उसके मठाधीश इस तरह बदलाव पर रोना बंद करें!


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